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मसूरी की यात्रा

बहुत सोच-विचार के बाद मैंने यह निश्चय किया कि मसूरी चलूँ। व्हीलर की दुकान से मसूरी के सम्बन्ध में तीन-चार पुस्तकें लाया और सामान की तैयारी होने लगी। आज अप्रैल की बाईस तारीख को मैं मसूरी के लिये चला। स्टेशन पर मुझे एक मित्र पहुँचाने के लिये आये।

जिस डब्बे में सवार हुआ, केवल दो व्यक्ति थे। एक मैं और एक और सज्जन थे। बहुत पतले न बहुत मोटे। अवस्था कोई चालीस साल। रंग आसमानी। एक बेंच पर लेटे हुए थे। ज्यों ही मैंने डब्बे में पाँव रखा, घबड़ा कर उठ बैठे। कुछ सहमे, सकपकाये-से, परन्तु मैंने कुछ ध्यान नहीं दिया। मेरा सब सामान रखा जा रहा था। तब तक वह खिड़की के पास गये और गाड़ी चलते-चलते उन्होंने अपने नौकर को, जो नौकरोंवाले डिब्बे में बैठा था, बुला लिया।

गाड़ी चल पड़ी। वह मेरी ओर कभी-कभी देख लिया करते थे। नौकर से उन्होंने कहा - 'ह़ुक्का चढ़ाओ।' मेरी समझ में केवल 'चढ़ाओ' शब्द आया। मैंने समझा कि उनका अभिप्राय यह है कि मुझे ऊपरवाले बेंच पर चढ़ा दो। मैंने समझा, हो सकता है अपने से वहाँ चढ़ सकने में असमर्थ हैं। मैंने सोचा कि अवसर अच्छा है, इन्हें सहायता भी दूँ और परिचय भी हो जाये तो चौबीस घंटे की यात्रा भी कट जाये।

परन्तु मैं यह नहीं जानता था कि वह अंग्रेजी जानते हैं कि नहीं। उर्दू बोलने में मुझे संकोच होता था, लाज भी लगती थी। न जाने कैसे हिन्दुस्तानी लोग फर्रफर्र अंग्रेजी बोल लेते हैं। उन्हें कुछ लज्जा नहीं लगती। देखा कि उनके पास ही अंग्रेजी के समाचारपत्र रखे हैं, एक पुस्तक भी पड़ी है। मैं इतना तो समझ गया कि इन्हें अंग्रेजी आती है। मैंने अंग्रेजी में कहा - 'यदि मेरी सहायता की आवश्यकता हो तो मैं तैयार हूँ। मैं आपको ऊपर की बेंच पर चढ़ा सकने में सहायक हो सकता हूँ।' उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे कुछ डर गये हों और नौकर से पता नहीं क्या कहा। इसके बाद ही एक स्टेशन आया और गाड़ी खड़ी हो गयी।

वह उतरकर बाहर गये और कुली बुला लाये और अपना असबाब उतारने के लिये कहने लगे कि दूसरे डब्बे में चलो। संयोग की बात थी कि पहले दर्जे का कोई दूसरा डब्बा नहीं था। इसलिये वह स्टेशन मास्टर को बुला लाये। न जाने क्या कहा। स्टेशन मास्टर ने मुझे कहा कि आप इन्हें क्यों नहीं बैठने देते? स्थान तो काफी है। मैंने कहा कि मैंने तो कोई आपत्ति नहीं की। फिर उन्होंने कहा कि यह मुझे ऊपर के बर्थ पर जबरदस्ती चढ़ा रहे थे। स्टेशन मास्टर के पूछने पर मैंने कहा कि इन्होंने नौकर से कहा, मैंने केवल इनकी सहायता करनी चाही। सब जानने पर बड़ी हँसी हुई और हम लोग मित्र हो गये।

मैंने अपना परिचय दिया; और उनका नाम पूछा। उन्होंने अपना नाम बताया, 'राजा काली-नाग-मर्दन-प्रसाद-राय नारायण सिंह! मुझे भारतवासियों के नाम के सम्बन्ध में कुछ नहीं ज्ञात था, फिर भी मैंने यह समझा कि यह बड़े आदमी हैं, बड़े आदमियों का नाम भी बड़ा होता होगा।

इसके बाद हुक्का चढ़ा। अब मेरी समझ में आया कि हुक्का क्या होता है। एक विचित्र प्रकार का चाँदी का लोटा था। जिसकी गरदन पतली थी। उस गरदन में लम्बी-लम्बी नलियाँ बैठायी हुई थीं। उन नलियों के ऊपर कपड़ा लपेटा हुआ था। एक नली के ऊपर मिट्टी का एक बरतन रखा गया। यह बरतन फूल की शक्ल का था जिसके एक ओर छेद था दूसरी ओर बड़ी-सी जगह। इसमें एक काली वस्तु रखी गयी जो पीछे पता चला कि तम्बाकू है। इस पर एक मिट्टी का छोटा-सा ढकना-सा रखा गया और उस पर धधकते हुए अंगारे। दूसरी नली में से एक और बड़ी नली लगी हुई थी जिसमें मुँह लगाकर राजा साहब पीने लगे और उनके मुँह से धुआँ निकलने लगा, ठीक छोटी लाइन के इंजन की भाँति।

अब यही समझ में आया कि हुक्का एक प्रकार का हिन्दुस्तानी पाइप है। अंग्रेजों की जानकारी के लिये मैं यह बता देना चाहता हूँ कि भारत में चार प्रकार से तम्बाकू पी जाती है। एक तो बीड़ी से, जिसे दो प्रकार के लोगों को मैंने पीते देखा है - एक तो मजदूर लोग और दूसरे क्रान्तिकारी लोग। जब कोई अंग्रेज किसी गरीब को बीड़ी पीते देखे तब समझ ले कि यह किसी मिल का मजदूर, किसान, लोहार, बढ़ई या साधारण दुकानदार होगा और किसी साफ कपड़ा पहनने-वाले को पीते देखे तो तुरन्त समझ लेना चाहिये कि यह क्रान्तिकारी दल का सदस्य या अराजकतावादी या समाजवादी होगा।

दूसरे प्रकार के वह लोग हैं जो हम लोगों की भाँति सिगरेट या सिगार पीते हैं। यह वही लोग हैं जिनके भरोसे भारत में अंग्रेजी राज्य स्थिर है। इन लोगों से किसी प्रकार का भय नहीं है। यह लोग भाषण बहुत अच्छा देते हैं।

तीसरा प्रकार हुक्का है। मुझे राजा साहब से पता चला कि इसे विविध प्रकार से लोग प्रयोग करते हैं किन्तु यह राजा-रईसों के पीने का ढंग है। सवेरे उठने के पश्चात्, भोजन के पश्चात्, सोने के पहले यह लोग इसका सेवन करते हैं और दो घंटे कम से कम इसमें लगते हैं। यदि इस प्रकार न पिया जाये तो बड़प्पन में अन्तर आ जाता है और यदि यों न पिया जाये तो चौबीस घंटे का समय भी काटना कठिन है। इस प्रकार से छः घंटे कट जाते हैं।

राजा साहब ने बड़ा कष्ट करके हुक्के के सब भागों का नाम बताया और कैसे धुआँ निकलता है, यह भी समझाया। जिसमें तम्बाकू रखा जाता है, उसे चिलम कहते हैं। गाँव के लोग केवल चिलम हाथ में लेकर पी लेते हैं। राजा साहब ने इस विषय में बहुत खोज भी की थी। उनका कहना था कि यह शब्द संस्कृत 'चिलमीलिका' से बना है। चिलमीलिका का अर्थ बिजली होता है। इसका सेवन करने से मनुष्यों में बिजली के समान स्फूर्ति आ जाती है। इसलिये इसे भी लोग चिलमीलिका कहने लगे।

इसके बाद वह जोर-जोर से पीने लगे। धुआँ निकलता था और 'गड़बड़' शब्द भी हो रहे थे। जैसे बरसात में किसी नाले में पानी बहता है। राजा साहब ने मुझसे पीने के लिये कहा। मैंने पहले तो कहा कि मैं सिगरेट पीता हूँ और मेरे पास है भी। यह न कह सका कि कैसे जूठा पी सकता हूँ। किन्तु सम्भवतः वह मेरी बात समझ गये। उन्होंने नौकर से कुछ कहा और एक चाँदी की नली निकाली, उसे नौकर ने साफ किया और वह उन्होंने उस हुक्के की नली पर लगा दी और मेरे सामने नौकर ने पीने के लिये बढ़ा दिया। मैंने दो-एक बार खींचा तो उतना धुआँ न निकला जितना राजा साहब के मुँह से निकलता था। मैंने समझा कि इससे मेरी दुर्बलता जानी जायेगी। हुक्के को अपने पास खींचकर टेढ़ा करके बड़ी जोर से खींचा। एकाएक मेरे मुँह में आधा बोतल पानी भर गया; जिसका स्वाद बड़ा ही विचित्र था। मुझे यह नहीं मालूम था कि इसे पी जाना चाहिये। मुँह में पानी भरा था, इसलिये पूछ भी नहीं सकता था। अन्त में मैंने निश्चय किया कि आधा पी जाऊँ और आधा कुल्ला कर दूँ।

राजा साहब ने मेरी स्थिति समझ ली और कहा कि तुरन्त कुल्ला कर दीजिये। दो-तीन बूँदें मेरे गले में गयी होंगी। मैंने सारा पानी कुल्ला कर दिया। राजा साहब बोले कि हुक्का पीना सबका काम नहीं है। कितने दिनों के बाद आता है। फिर मुझे सब ब्योरा समझाया और कैसे पीना चाहिये, बताया। मैंने उसे ढंग से पीना आरम्भ किया। अब तो मुझे धुआँ निकालने में बड़ा आनन्द आने लगा।

पेंशन लेने के बाद जब समय किसी और काम में न कटेगा, मैं भी इसी प्रकार तम्बाकू देवी की आराधना करूँगा। सिगरेट-सिगार पीना गद्य है, इस प्रकार से तम्बाकू पीना कविता है।

लफ़्टंट पिगसन की डायरी

बेढब बनारसी
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