भाग 35
शिवदत्तगढ़ में महाराज शिवदत्त बैठा हुआ बेफिक्री का हलुआ नहीं उड़ाता। सच पूछिये तो तमाम जमाने की फिक्र ने उसको आ घेरा है। वह दिन-रात सोचा ही करता है और उसके ऐयारों और जासूसों का दिन दौड़ते ही बीतता है। चुनार, गयाजी और राजगृही का हाल तो उसे रत्ती-रत्ती मालूम है क्योंकि इन तीनों जगहों की खबरें पहुंचाने के लिए उसने पूरा बंदोबस्त किया हुआ है। आज यह खबर पाकर कि गयाजी का राज्य राजा वीरेंद्रसिंह के कब्जे में आ गया, माधवी राज ही छोड़कर भाग गई, और किशोरी दीवान अग्निदत्त के हाथ फंसी हुई है, शिवदत्त घबड़ा उठा और तरह-तरह की बातें सोचने में इतना लीन हो गया कि तनोबदन की सुध जाती रही। किशोरी के ऊपर इसे इतना गुस्सा आया कि अगर वह यहां मौजूद होती तो अपने हाथ से टुकड़े-टुकड़े कर डालता। इस समय भी वह प्रण करके उठ खड़ा हुआ कि 'जब तक किशोरी के मरने की खबर न पाऊंगा अन्न न खाऊंगा' और सीधा महल में चला गया, हुक्म देता गया कि भीमसेन को हमारे पास भेज दो।
राजा शिवदत्त महल में जाकर अपनी रानी कलावती के पास बैठ गया। उसके चेहरे की उदासी और परेशानी का सबब जानने के लिए कलावती ने बहुत कुछ उद्योग किया मगर जब तक उसका लड़का भीमसेन महल में न गया उसने कलावती की बात का कुछ भी जवाब न दिया। मां-बाप के पास पहुंचते ही भीमसेन ने प्रणाम किया और पूछा, क्या आज्ञा होती है'
शिव - किशोरी के बारे में जो कुछ खबर आज पहुंची तुमने भी सुनी होगी!
भीम - जी हां।
शिव - अफसोस, फिर भी तुम्हें अपना मुंह दिखाते शर्म नहीं आती! न मालूम तुम्हारी बहादुरी किस दिन काम आयेगी और तुम किस दिन अपने को इस लायक बनाओगे कि मैं तुम्हें अपना लड़का समझूं!!
भीम - मुझे जो आज्ञा हो तैयार हूं।
शिव - मुझे उम्मीद नहीं कि तुम मेरी बात मानोगे।
भीम - मैं यज्ञोपवीत हाथ में लेकर कसम खाता हूं कि जब तक जान बाकी है उस काम के करने की पूरी कोशिश करूंगा जिसके लिए आप आज्ञा देंगे!
शिव - मेरा पहला हुक्म है कि किशोरी का सिर काटकर मेरे पास लाओ।
भीम - (कुछ सोच और ऊंची सांस लेकर) बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा। और क्या हुक्म होता है
शिव - इसके बाद वीरेंद्रसिंह या उनके लड़कों में से जब तक किसी को मार न लो यहां मत आओ। यह न समझना कि यह काम मैं तुम्हारे ही सुपुर्द करता हूं। नहीं, मैं खुद आज इस शिवदत्तगढ़ को छोड़ूंगा और अपना कलेजा ठंडा करने के लिए पूरा उद्योग करूंगा। वीरेंद्रसिंह का चढ़ता प्रताप देखकर मुझे निश्चय हो गया कि लड़कर उन्हें किसी प्रकार नहीं जीत सकता इसलिए आज से मैं उनके साथ लड़ने का खयाल छोड़ देता हूं और उस ढंग पर चलता हूं जिसे ठग, चोर या डाकू लोग पसंद करते हैं।
भीम - अख्तियार आपको है जो चाहें करें। मुझे आज्ञा हो तो इसी समय चला जाऊं और जो कुछ हुक्म हुआ है उसे पूरा करने का उद्योग करूं!
शिव - अच्छा जाओ मगर यह कहो कि अपने साथ किस-किस को ले जाते हो
भीम - किसी को नहीं।
शिव - तब तुम कुछ न कर सकोगे। दो-तीन ऐयार और दस-बीस लड़कों को अपने साथ जरूर लेते जाओ।
भीम - आपके यहां ऐसा कौन ऐयार है जो वीरेंद्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करे और ऐसा कौन बहादुर है जो उन लोगों के सामने तलवार उठा सके!
शिव - तुम्हारा कहना ठीक है मगर तुम्हारे साथ गये हुए ऐयारों की कार्रवाई तब तक बहुत अच्छी होगी जब तक दुश्मनों को यह न मालूम हो जाय कि शिवदत्तगढ़ का कोई आया है! सिवाय इसके में बहादुर नाहरसिंह को तुम्हारे साथ भेजता हूं जिसका मुकाबला करने वाला वीरेंद्रसिंह की तरफ कोई नहीं है।
भीम - बेशक नाहरसिंह ऐसा ही है मगर मुश्किल तो यह है कि नाहरसिंह जितना बहादुर है उससे ज्यादा इस बात को देखता है कि अपने कौल का सच्चा रहे। उसका कहना है कि 'जिस दिन कोई बहादुर द्वंद्व-युद्ध में मुझे जीत लेगा उसी दिन मैं उसका हो जाऊंगा।' ईश्वर न करे कहीं ऐसी नौबत पहुंची तो वह उसी दिन से हम लोगों का दुश्मन हो जायगा।
शिव - यह सब तुम्हारा खयाल है, द्वंद्व-युद्ध में उसे वहां कोई जीतने वाला नहीं है।
भीम - अच्छा जो आज्ञा।
शिव - (खड़े होकर) चलो मैं इसी वक्त चलकर तुम्हारे जाने का बंदोबस्त कर देता हूं।
शिवदत्त और भीमसेन के बाहर चले जाने के बाद रानी कलावती ने जो बहुत देर से इन लोगों की बातें सुन-सुनकर गरम-गरम आंसू गिरा रही थी सिर उठाया और लंबी सांस लेकर कहा, "हाय, अब तो जमाने का उलट-फेर ही दूसरा हुआ चाहता है। बेचारी किशोरी का क्या कसूर वह आप से आप तो चली ही नहीं गई उसने अपने आप तो कोई ऐसा काम किया ही नहीं जिससे उसकी इज्जत में फर्क आवे! हाय, किस कलेजे से भीमसेन अपनी बहिन को मारने का इरादा करेगा! मेरी जिंदगी अब व्यर्थ है क्योंकि बेचारी लड़की तो अब मारी ही जायेगी, भीमसेन भी वीरेंद्रसिंह से दुश्मनी करके अपनी जान नहीं बचा सकता, दूसरे उस लड़के का भरोसा ही क्या जो अपने हाथ से अपनी बहिन का सिर काटे। अगर इन सब बातों को भूल जाऊं और यही सोचकर बैठ रहूं कि मेरा सर्वस्व तो पति है मुझे लड़के-लड़कियों से क्या मतलब, तो भी नहीं बनता, क्योंकि वे भी डाकू-वृत्ति लिया चाहते हैं। इस अवस्था में वे किसी प्रकार का सुख नहीं पा सकते। फिर जीते जी अपने पति को दुख भोगते मैं कैसे देखूंगी हाय! वीरेंद्रसिंह! वही वीरेंद्रसिंह है जिसकी बदौलत मेरी जान बची थी, न मालूम बुर्देफरोशों की बदौलत मेरी क्या दुर्दशा होती! वही वीरेंद्रसिंह है जिसने कृपा कर मुझे अपने पति के पास खोह में भिजवा दिया था! वही वीरेंद्रसिंह है जिसने हम लोगों का कसूर एकदम माफ कर दिया था और चुनार की गद्दी लौटा देने को भी तैयार था। किस-किस बात की तरफ देखूं वीरेंद्रसिंह के बराबर धर्मात्मा तो कोई दुनिया में न होगा! फिर किसको दोष दूं, अपने पति को नहीं कभी नहीं, यह मेरे किए न होगा! यह सब दोष तो मेरे कर्मों ही का है। फिर जब भाग्य ही बुरे हैं तो ऐसे भाग्य को लेकर दुनिया में क्यों रहूं अपनी छुट्टी तो आप ही कर लेती हूं फिर मेरे पीछे क्या जाने क्या होगा इसकी खबर ही किसे है!"
रानी कलावती पागलों की तरह बहुत देर तक न जाने क्या-क्या सोचती रही, आखिर उठ खड़ी हुई और ताली का गुच्छा उठाकर अपना एक संदूक खोला। न मालूम उसमें से क्या निकालकर उसने अपने मुंह में रख लिया और पास ही पड़ी हुई सोने की सुराही में से जल निकालकर पीने के बाद कलम-दवात और कागज लेकर कुछ लिखने बैठ गई। लेख समाप्त होते-होते तक उसकी सखियां भी आ पहुंचीं। कलावती ने लिखे हुए कागज को लपेटकर अपनी एक सखी के हाथ में दिया और कहा, "जब महाराज मुझे पूछें तो यह कागज उनके हाथ में दे देना। बस अब तुम लोग जाओ अपना काम करो, मैं इस समय सोना चाहती हूं, जब तक मैं खुद न उठूं खबरदार, मुझको कभी मत उठाना!"
हुक्म पाते ही उसकी लौंडियां वहां से हट गईं और रानी कलावती ने पलंग पर लेटकर आंचल से मुंह ढांप लिया।
दो ही पहर के बाद मालूम हो गया कि रानी कलावती सो गई, आज के लिए नहीं बल्कि वह हमेशा के लिए सो गई, अब वह किसी के जगाये नहीं जाग सकती।
शाम के वक्त जब महाराज शिवदत्त फिर महल में आये तो महारानी का लिखा कागज उनके हाथ में दिया गया। पढ़ते ही शिवदत्त दौड़ा हुआ उस कमरे में गया जिसमें कलावती सोई हुई थी। मुंह पर से कपड़ा हटाया, नब्ज देखी, और तुरंत लौटकर बाहर चला गया।
अब तो उसकी सखियों और लौंडियों को भी मालूम हो गया कि रानी कलावती हमेशा के लिए सो गईं। न मालूम बेचारी ने किन-किन बातों को सोचकर जान दे देना ही मुनासिब समझा। उसकी प्यारी सखियां जिन्हें वह जान से ज्यादे मानती थी पलंग के चारों तरफ जमा हो गईं और उसकी आखिरी सूरत देखने लगीं। भीमसेन चार घंटे पहले ही मुहिम पर रवाना हो चुका था। उसे अपनी प्यारी मां के मरने की कुछ खबर ही नहीं और यह सोचकर कि वह उदास और सुस्त होकर अपना काम न कर सकेगा, शिवदत्त ने भी कलावती के मरने की खबर उसके कान तक पहुंचने न दी।