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भाग 37

 


आधी रात का समय है और सन्नाटे की हवा चल रही है। बिल्लौर की तरह खूबी पैदा करने वाली चांदनी आशिकमिजाजों को सदा ही भली मालूम होती है लेकिन आज सर्दी ने उन्हें भी पस्त कर दिया, यह हिम्मत नहीं पड़ती कि जरा मैदान में निकलें और इस चांदनी की बहार लें मगर घर में बैठे दरवाजे की तरफ देखा करने और उसांसें लेने से होता ही क्या है। मर्दानगी कोई और ही चीज है, इश्क किसी दूसरी ही वस्तु का नाम है, तो भी इश्क के मारे हुए माशूक की नागिन-सी जुल्फों से अपने को डसाना ही जवांमर्दी समझते हैं और दिलबर की तिरछी निगाहों से अपने कलेजे को छलनी बनाने में बहादुरी मानते हैं। मगर वे लोग जो सच्चे बहादुर हैं घर बैठे 'ओफ' करना पसंद नहीं करते और समय पड़ने पर तलवार को ही अपना माशूक मानते हैं। देखिये इस सर्दी और ऐसे भयानक स्थान में भी एक सच्चे बहादुर को किसी पेड़ की आड़ में बैठ जाना भी बुरा मालूम होता है।
अब रात पहर भर से भी कम बाकी है। एक पहाड़ी के ऊपर जिसकी ऊंचाई बहुत ज्यादे नहीं तो इतनी कम भी नहीं है कि बिना दम लिए एक ही दौड़ में कोई ऊपर चढ़ जाये, एक आदमी मुंह पर नकाब डाले काले कपड़े से तमाम बदन को छिपाये इधर-उधर टहल रहा है। चारों तरफ सन्नाटा है, कोई उसे पहचानने वाला यहां मौजूद नहीं, शायद इसी खयाल से उसने नकाब उलट दी और कुछ देर के लिए खड़े होकर मैदान की तरफ देखने लगा।
इस पहाड़ी के बगल में एक दूसरी पहाड़ी है जिसकी जड़ इस पहाड़ी से मिली हुई है। मालूम होता है कि एक पहाड़ी के दो टुकड़े हो गए हैं। बीच में डाकुओं और लुटेरों के आने-जाने लायक रास्ता है जिसे भयानक दर्रा कहना मुनासिब जान पड़ता है। इस आदमी की निगाह घड़ी-घड़ी उस दर्रे की तरफ दौड़ती और सन्नाटा पाकर मैदान की तरफ घूम जाती है जिससे मालूम होता है कि उसकी आंखें किसी ऐसे को ढूंढ़ रही हैं जिसके आने की इस समय पूरी उम्मीद है।
टहलते - टहलते उसे बहुत देर हो गई, पूरब तरफ आसमान पर कुछ-कुछ सफेदी फैलने लगी जिसे देख यह कुछ घबड़ाया-सा हो गया और दस कदम आगे बढ़कर मैदान की तरफ देखने लगा, साथ ही इसके चौंका और धीरे से बोल उठा, "आ पहुंचे!"
उस आदमी ने धीरे से सीटी बजाई। इधर-उधर चट्टानों की आड़ में छिपे हुए दस-बारह आदमी निकल आये जिन्हें देख वह हुकूमत के तौर पर बोला, "देखो वे लोग आ पहुंचे, अब बहुत जल्द नीचे उतर चलना चाहिए।"
बात के अंदाज से मालूम हो गया कि वह आदमी जो बहुत देर से पहाड़ी के ऊपर टहल रहा था उन सभों का सरदार है। अब उसने अपने चेहरे पर नकाब डाल ली और अपने साथियों को लेकर तेजी के साथ पहाड़ी के नीचे उतर आने वालों का मुहाना रोक लिया।
कपड़े में लपेटी हुई एक लाश उठाए और उसे चारों तरफ से घेरे हुए कई आदमी उस दर्रे में घुसे। वे लोग कदम बढ़ाये जा रहे थे। उन्हें स्वप्न में भी यह गुमान न था कि हम लोगों के काम में बाधा डालने वाला इस पहाड़ के बीच में से कोई निकल आएगा।
जब लाश उठाए हुए वे लोग उस दर्रे के बीच में घुसे बल्कि उन लोगों ने जब आधा दर्रा तै कर लिया, तब यकायक चारों तरफ से छिपे हुए कई आदमी उन लोगों पर टूट पड़े और हर तरह से उन्हें लाचार कर दिया। वे लोग किसी तरह भी लाश को न ले जा सके और तीन-चार आदमियों के घायल होने तथा एक के मर जाने पर उसी जगह उस लाश को छोड़ आखिर सभों को भाग ही जाना पड़ा।
दुश्मनों के भाग जाने पर उस सरदार ने जो पहले ही से उस पहाड़ी पर मौजूद था जिसका जिक्र हम कर आये हैं, अपने साथियों को पुकारकर कहा, "पीछा करने की कोई जरूरत नहीं हमारा मतलब निकल गया, मगर यह देख लेना चाहिए कि यह किशोरी ही है या नहीं!"
एक ने बटुए में से मोमबत्ती निकालकर जलाई और उस लाश के मुंह पर से कपड़ा हटाकर देखने के बाद कहा, "किशोरी ही तो है।" सरदार ने किशोरी की नब्ज पर हाथ रखा और कहा -
सरदार - ओफ! इसे बहुत तेज बेहोशी दी गई है, देखो तुम भी देख लो!
एक - (नब्ज देखकर) बेशक बहुत ज्यादे बेहोशी दी गई है, ऐसी हालत में अक्सर जान निकल जाती है!
दूसरा - इसे कुछ कम करना चाहिए।
सरदार ने अपने बटुए में से एक डिबिया निकाली तथा खोलकर किशोरी को सुंघाने के बाद फिर नब्ज पर हाथ रखा और कहा, "बस इससे ज्यादे बेहोशी कम करने से यह होश में आ जायेगी। चलो उठाओ, अब यहां ठहरना मुनासिब नहीं है।"
किशोरी को उठाकर वे लोग उसी दर्रे की राह घूमते हुए पहाड़ी के पार हो गये और न मालूम किस तरफ चले गये। इनके जाने के बाद उसी जगह जहां पर लड़ाई हुई थी छिपा हुआ एक आदमी बाहर निकला और चारों तरफ देखने लगा। जब वहां किसी को मौजूद न पाया तो धीरे से बोल उठा -
"मेरा पहले ही से यहां पहुंचना कैसा मुनासिब हुआ! मैं उन लोगों को खूब पहचानता हूं जो लड़-भिड़कर बेचारी किशोरी को ले गये! खैर, क्या मुजायका है, मुझसे भागकर ये लोग कहां जायेंगे। मेरे लिए तो दोनों ही बराबर हैं, वे ले जाते तब भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती, और ये लोग ले गये हैं तब भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ेगी। खैर हरि इच्छा, अब बाबाजी को ढूंढ़ना चाहिए। उन्होंने भी इसी जगह मिलने का वादा किया था।"
इतना कह वह आदमी चारों तरफ घूमने और बाबाजी को ढूंढ़ने लगा। इस समय इस आदमी को यदि माधवी देखती तो तुरंत पहचान लेती क्योंकि यह वही साधु है जो रामशिला पहाड़ी के सामने टीले पर रहता था, जिसके पास माधवी गई थी, या जिसने भीमसेन के हाथ से उस समय किशोरी की जान बचाई थी जब खंडहर के बीच में वह उसकी छाती पर सवार हो खंजर उसके कलेजे के पार किया ही चाहता था।
साफ सबेरा हो चुका था बल्कि पूरब तरफ सूर्य की लालिमा ने चौथाई आसमान पर अपना दखल जमा लिया था। वह साधु इधर-उधर घूमता - फिरता एक जगह अटक गया और सोचने लगा कि किधर जाय या क्या करे इतने ही में सामने से इसी की सूरत-शक्ल के दूसरे बाबाजी आते हुए दिखाई पड़े। देखते ही यह उनकी तरफ बढ़ा और बोला, "मैं बड़ी देर से आपको ढूंढ़ता रहा हूं क्योंकि इसी जगह मिलने का आपने वादा किया था।"
अभी आए हुए बाबाजी ने कहा, "मैं भी वादा पूरा करने के लिए आ पहुंचा। (हंसकर) बहुत अच्छे! यदि इस समय कोई देखे तो अवश्य बावला हो जाय और कहे कि एक ही रंग और सूरत-शक्ल के दो बाबाजी कहां से पैदा हो गये अच्छा हमारे पीछे-पीछे चले आओ।"
दोनों बाबाजी ने एक तरफ का रास्ता लिया और देखते-देखते न मालूम किधर गायब हो गये या किसी खोह में जा छिपे।
किशोरी की जब आंख खुली तो उसने अपने को एक सुंदर मसहरी पर लेटे हुए पाया और उम्दा कपड़ों और जेवरों से सजी हुई कई औरतें भी उसे दिखाई पड़ीं। पहले तो किशोरी ने यही समझा कि वे सब अच्छे अमीरों और सरदारों की लड़कियां हैं मगर थोड़ी ही देर बाद उनकी बातचीत और कायदे से मालूम हो गया कि लौंडियां हैं। अपनी बेबसी और बदकिस्मती पर रोती हुई किशोरी को यह जानने की बड़ी उत्कंठा हुई कि किस महाराजाधिराज के मकान में आ फंसी हूं जिसकी लौंडियां इस शान और शौकत की दिखाई पड़ती हैं।
किशोरी को होश में आते देख उनमें की दो-तीन लौंडियां न मालूम कहां चली गईं मगर किशोरी ने समझ लिया कि मेरे होश में आने की किसी को खबर करने गई हैं।
ताज्जुब-भरी निगाहों से किशोरी चारों तरफ देखने लगी। वाह-वाह, क्या सुंदर कमरा बना हुआ है। चारों तरफ दीवारों पर मीनाकारी का काम किया हुआ है, छत में सुनहरी बेल और बीच-बीच में जड़ाऊ फूलों को देखकर अक्ल दंग होती है, न मालूम इसकी तैयारी में कितने रुपये खर्च हो गये होंगे! छत से लटकती हुई बिल्लोरी हांडियों की परइयों में मानिक की लोलकें लटक रही हैं, जड़ाऊ डारों पर बेशकीमती दीवारगीरें अपनी बहार दिखा रही हैं, दरवाजों की महराबों पर बेलें और उस पर बैठी हुई छोटी-छोटी खूबसूरत चिड़ियों के बनाने में कारीगर ने जो कुछ मेहनत की होगी उसका जानना बहुत ही मुश्किल है। उन अंगूरों में कहीं पके अंगूर की जगह मानिक और कच्चे की जगह पन्ना काम में लाया गया था। अलावा इन सब बातों के उस कमरे में कुल सजावट का हाल अगर लिखा जाय तो हमारा असल मतलब बिल्कुल छूट जायेगा और मुख्तसर लिखावट के वादे में फर्क पड़ जायगा, अस्तु इस बारे में हम कुछ नहीं लिखते।
इस मकान को देख किशोरी दंग हो गई। उसकी हालत को लिखना बहुत ही मुश्किल है। जिधर उसकी निगाह जाती उधर ही की हो रहती थी, पर उस जगह की सजावट किशोरी अच्छी तरह देखने भी न पाई थी कि पहले की-सी और कई लौंडियां वहां आ मौजूद हुईं और बोलीं, "महाराज को साथ लिए रानी साहिबा आ रही हैं!"
महाराज को साथ लिए रानी साहिबा उस कमरे में आ पहुंचीं। बेचारी किशोरी को भला क्या मालूम कि ये दोनों कौन हैं या कहां के राजा हैं तो भी इन दोनों की सूरत-शक्ल देखते ही किशोरी रुआब में आ गई। महाराज की उम्र लगभग पचास वर्ष की होगी। लंबा कद, गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी आंखें, चौड़ी पेशानी, ऊपर को उठी हुई मूंछें, बहादुरी चेहरे पर बरस रही थी। रानी साहिबा की उम्र भी लगभग पैंतीस वर्ष के होगी फिर भी उनके बदन की बनावट और खूबसूरती नौजवान परीजमालों की आंखें नीची करती थी। उनकी बड़ी-बड़ी रतनार आंखों में अब भी वही बात थी जो उनकी जवानी में होगी। उनके अंगों की लुनाई में किसी तरह का फर्क नहीं आया था। इस समय एक कीमती धानी पोशाक उनकी खूबसूरती को बढ़ा रही थी और जड़ाऊ जेवरों से उनका बदन भरा हुआ था मगर देखने वाला यही कहेगा कि उन्हें जेवरों की कोई जरूरत नहीं, यह तो हुस्न ही के बोझ से दबी जाती हैं।
उन दोनों के रुआब ने किशोरी को पलंग पर पड़े रहने न दिया। वह उठ खड़ी हुई और उनकी तरफ देखने लगी। रानी साहिबा चाहे कैसी ही खूबसूरत क्यों न हों और उन्हें अपनी खूबसूरती पर चाहे कितना ही घमंड क्यों न हो, मगर किशोरी की सूरत देखते ही वे दंग हो गईं और इनकी शेखी हवा हो गई। इस समय वह हर तरह से सुस्त और उदास थी, किसी तरह की सजावट उसके बदन पर न थी, तो भी महारानी के जी ने गवाही दे दी कि इससे बढ़कर खूबसूरत दुनिया में कोई न होगा। किशोरी उनकी खूबसूरती के रुआब में आकर पलंग के नीचे नहीं उतरी थी बल्कि इज्जत के लिहाज से और यह सोचकर कि जब इस कमरे की इतनी बड़ी सजावट है तो उनके खास कमरे की क्या नौबत होगी और वह कितने बड़े राज्य और दौलत की मालिक होंगी, उठ खड़ी हुई थी।
राजा और रानी दोनों ने प्यार की निगाह से किशोरी की तरफ देखा और राजा ने आगे बढ़कर किशोरी की पीठ पर हाथ फेरकर कहा, "बेशक यह मेरी ही पतोहू होने के लायक है।"
इस आखिरी शब्द ने किशोरी के साथ वह काम किया जो नमक जख्म के साथ, आग फूस की झोंड़ड़ी के साथ, तीर कलेजे के साथ, शराब धर्म के साथ, लालच ईमान के साथ और बिजली गिरकर तनोबदन के साथ करती है।