भाग 44
इसके बाद लाली ने दबी जुबान से किशोरी को कुछ समझाया और दो घंटे में फिर मिलने का वादा करके वहां से चली गयी।
हम ऊपर कई दफे लिख आये हैं कि उस बाग में जिसमें किशोरी रहती थी एक तरफ ऐसी इमारत है जिसके दरवाजे पर बराबर ताला बंद रहता है और नंगी तलवार का पहरा पड़ा करता है।
आधी रात का समय है। चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। तेज हवा चलने के कारण बड़े-बड़े पेड़ों के पत्ते लड़खड़ाकर सन्नाटे को तोड़ रहे हैं। इसी समय हाथ में कमंद लिए हुए लाली अपने को हर तरफ से बचाती और चारों तरफ गौर से देखती हुई उसी मकान के पिछवाड़े की तरफ जा रही है। जब दीवार के पास पहुंची कमंद लगाकर छत के ऊपर चढ़ गई। छत के ऊपर चारों तरफ तीन-तीन हाथ ऊंची दीवार थी। लाली ने बड़ी होशियारी से छत फोड़कर एक इतना बड़ा सूराख किया जिसमें आदमी बखूबी उतर जा सके और खुद कमंद के सहारे उसके अंदर उतर गई।
दो घंटे के बाद एक छोटी-सी संदूकड़ी लिए हुए लाली निकली और कमंद के सहारे छत के नीचे उतर एक तरफ को रवाना हुई। पूरब तरफ वाली बारहदरी में आई जहां से महल में जाने का रास्ता था, फाटक के अंदर घुसकर महल में पहुंची। यह महल बहुत बड़ा और आलीशान था। दो सौ लौंडियों और सखियों के साथ महारानी साहिबा इसी में रहा करती थीं। कई दालानों और दरवाजों को पार करती हुई लाली ने एक कोठरी के दरवाजे पर पहुंचकर धीरे से कुंडा खटखटाया।
एक बुढ़िया ने उठकर किवाड़ खोला और लाली को अंदर करके फिर बंद कर दिया। उस बुढ़िया की उम्र लगभग अस्सी वर्ष की होगी, नेकी और रहमदिली उसके चेहरे पर झलक रही थी। सिर्फ छोटी-सी कोठरी, थोड़ा-सा जरूरी सामान और मामूली चारपाई पर ध्यान देने से मालूम होता था कि बुढ़िया लाचारी से अपनी जिंदगी बिता रही है। लाली ने दोनों पैर छूकर प्रणाम किया ओैर उस बुढ़िया ने पीठ पर हाथ फेरकर बैठने के लिए कहा।
लाली - (संदूक आगे रखकर) यही है
बुढ़िया - क्या ले आईं हां ठीक है, बेशक यही है, अब आगे जो कुछ कीजियो बहुत सम्हलकर! ऐसा न हो कि आखिर समय में मुझे कलंक लगे।
लाली - जहां तक हो सकेगा बड़ी होशियारी से काम करूंगी, आप आशीर्वाद दीजिए कि मेरा उद्योग सफल हो।
बुढ़िया - ईश्वर तुझे इस नेकी का बदला दे, वहां कुछ डर तो नहीं मालूम हुआ?
लाली - दिल कड़ा करके इसे ले आई, नहीं तो मैंने जो कुछ देखा, जीते जी भूलने योग्य नहीं, अभी तो फिर एक दफे देखना नसीब होगा। ओफ! अभी तक कलेजा कांपता है।
बुढ़िया - (मुस्कराकर) बेशक वहां ताज्जुब के सामान इकट्ठे हैं मगर डरने की कोई बात नहीं, जा ईश्वर तेरी मदद करे।
लाली ने उस संदूकड़ी को उठा लिया और अपने खास घर में आकर संदूकड़ी को हिफाजत से रख पलंग पर जा लेट रही। सबेरे उठकर किशोरी के कमरे में गई।
किशोरी - मुझे रात भर तुम्हारा खयाल बना रहा और घड़ी-घड़ी उठकर बाहर जाती थी कि कहीं से गुल-शोर की आवाज तो नहीं आती।
लाली - ईश्वर की दया से मेरे काम में किसी तरह का विघ्न नहीं पड़ा।
किशोरी - आओ मेरे पास बैठो, अब तो तुम्हें उम्मीद हो गई होगी कि मेरी जान बच जायगी और यहां से जा सकूंगी।
लाली - बेशक अब मुझे पूरी उम्मीद हो गई।
किशोरी - संदूकड़ी मिली?
लाली - हां, यह सोचकर कि दिन को किसी तरह मौका न मिलेगा उसी समय मैं बूढ़ी दादी को भी दिखा आई, उन्होंने पहचानकर कहा कि बेशक यही संदूकड़ी है। उसी रंग की वहां कई संदूकड़ियां थीं मगर वह खास निशान जो बूढ़ी दादी ने बताया था देखकर मैं उसी एक को ले आई!
किशोरी - मैं भी उस संदूकड़ी को देखना चाहती हूं।
लाली - बेशक मैं तुम्हें अपने यहां ले चलकर वह संदूकड़ी दिखा सकती हूं मगर उसके देखने से तुम्हें किसी तरह का फायदा नहीं होगा। बल्कि तुम्हारे वहां चलने से कुंदन को खुटका हो जायगा और यह सोचेगी कि किशोरी लाली के यहां क्यों गई। उस संदूकड़ी में भी कोई ऐसी बात नहीं है जो देखने लायक हो, उसे मामूली एक छोटा-सा डिब्बा समझना चाहिए जिसमें कहीं ताली लगाने की जगह नहीं है और मजबूत भी इतनी है कि किसी तरह टूट नहीं सकती।
किशोरी - फिर वह क्योंकर खुल सकेगी और उसके अंदर से वह चाभी क्योंकर निकलेगी जिसकी हम लोगों को जरूरत है?
लाली - रेती से रेतकर उसमें सुराख किया जायगा।
किशोरी - देर लगेगी!
लाली - हां, दो दिन में यह काम होगा क्योंकि सिवाय रात के दिन को मौका नहीं मिल सकता।
किशोरी - मुझे तो एक घड़ी सौ-सौ वर्ष के समान बीतती है।
लाली - खैर जहां इतने दिन बीते वहां दो दिन और सही।
थोड़ी देर तक बातचीत होती रही। इसके बाद लाली उठकर अपने मकान में चली गई और मामूली कामों की फिक्र में लगी।
इसके तीसरे दिन आधी रात के समय लाली अपने मकान से बाहर निकली और किशोरी के मकान में आई। वे लौंडियां जो किशोरी के यहां पहरे पर मुकर्रर थीं गहरी नींद में पड़ी खुर्राटे ले रही थीं मगर किशोरी की आंखों में नींद का नाम-निशान नहीं, वह पलंग पर लेटी दरवाजे की तरफ देख रही थी। उसी समय हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिए लाली ने कमरे के अंदर पैर रखा जिसे देखते ही किशोरी उठ खड़ी हुई, बड़ी मुहब्बत के साथ हाथ पकड़ लाली को अपने पास बैठाया।
किशोरी - ओफ! ये दो दिन बड़ी कठिनता से बीते, दिन-रात डर लगा ही रहता था।
लाली - क्यों?
किशोरी - इसलिए कि कोई उस छत पर जाकर देख न ले कि किसी ने सेंध लगाई है।
लाली - ऊंह, कौन उस पर जाता है और कौन देखता है! लो अब देर करना मुनासिब नहीं।
किशोरी - मैं तैयार हूं, कुछ लेने की जरूरत तो नहीं है?
लाली - जरूरत की सब चीजें मेरे पास हैं, तुम बस चली चलो।
लाली और किशोरी वहां से रवाना हुईं और पेड़ों की आड़ में छिपती हुई उस मकान के पिछवाड़े पहुंचीं जिसकी छत में लाली ने सेंध लगाई थी। कमंद लगाकर दोनों ऊपर चढ़ीं, कमंद खींच लिया और उसी कमंद के सहारे सेंध की राह दोनों मकान के अंदर उतर गईं। वहां की अजीब बातों को देख किशोरी की अजब हालत हो गई मगर तुरंत ही उसका ध्यान दूसरी तरफ जा पड़ा। किशोरी और लाली जैसे ही उस मकान के अंदर उतरीं वैसे ही बाहर से किसी के ललकारने की आवाज आई, साथ ही फुर्ती से कई कमंद लगा दस-पंद्रह आदमी छत पर चढ़ आये और “धरो-धरो, जाने न पावे, जाने न पावे!” की आवाज लगी।