भाग 41
रोहतासगढ़ किले के सामने पहाड़ी से कुछ दूर हटकर वीरेंद्रसिंह का लश्कर पड़ा हुआ है। चारों तरफ फौजी आदमी अपने-अपने काम में लगे हुए दिखाई देते हैं। कुछ फौज आ चुकी और बराबर चली ही आती है। बीच में राजा वीरेंद्रसिंह का कारचोबी खेमा शान-शौकत के साथ खड़ा है, उसके दोनों बगल कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह का खेमा है, सामने और पीछे की तरफ दुपट्टी बड़े-बड़े सरदारों और बहादुरों का डेरा पड़ा है। बाजार लगने की तैयारियां हो रही हैं, लड़ाई का सामान इतना इकट्ठा हो रहा है कि देखने से दुश्मनों का कलेजा दहल जाय।
डेरा खड़ा होने के दूसरे दिन कुंअर इंद्रजीतसिंह, आनंदसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, भैरोसिंह, तारासिंह, जगन्नाथ ज्योतिषीजी, फतहसिंह (पुराने सेनापति जो नौगढ़ में थे) और नाहरसिंह इत्यादि को साथ लिये राजा वीरेंद्रसिंह भी आ पहुंचे और सब लोग अपने-अपने खेमे में उतरे। पन्नालाल गयाजी में ओैर रामनारायण तथा चुन्नीलाल चुनारगढ़ में रखे गये। इस लड़ाई के लिए सेनापति की पदवी नाहरसिंह को दी गई। तीसरे दिन और भी फौज आ जाने पर पांच झंडे, पचास हजार फौज का निशान खड़ा किया गया। बहादुरों के चेहरों पर खुशी मालूम होती थी, सब इसी फिक्र में थे कि जहां तक हो लड़ाई जल्दी छिड़ जाये और बेशक एक ही दो दिन में लड़ाई छिड़ जाने की उम्मीद थी मगर वीरेंद्रसिंह के लश्कर पर यकायक ऐसी आफत आ पड़ी कि कुछ दिनों तक लड़ाई रुकी रही। इस आफत के आने का किसी को स्वप्न में भी गुमान न था जिसका हाल हम आगे चलकर लिखेंगे।
राजा दिग्विजयसिंह का पत्र लेकर उनका एक ऐयार वीरेन्द्रिसिंह के पास आया। वीरेंद्रसिंह ने पत्र लेकर मुंशी को पढ़ने के लिये दिया, उसमें जो कुछ लिखा था उसका संक्षेप यह है -
“हमारे - आपके बीच कभी की दुश्मनी नहीं, तो भी न मालूम आपस में लड़ने या बिगाड़ पैदा करने का इरादा आपने क्यों किया खैर इसका सबब जो कुछ हो हम नहीं कह सकते मगर इतना याद रखना चाहिए कि पचास वर्ष लड़कर भी यह किला आप हमसे नहीं ले सकते। अगर हम चुपचाप बैठे रहें तो भी आप हमारा कुछ नहीं कर सकते, फिर भी हम आपसे लड़ेंगे और मैदान में निकलकर बहादुरी दिखायेंगे। अगर आपको अपनी बहादुरी या जवांमर्दी का घमंड है तो फौज की जान क्यों लेते हैं, एक पर एक लड़ के फैसला कर लीजिये। बहादुरों की कार्रवाई देखने के बाद हमसे और आपसे द्वंद्व-युद्ध हो जाये, आप हम पर फतह पाइये तो यह राज्य आपका हो जाय, नहीं तो आप हमारे मातहत समझे जायें। अफसोस, इस समय हमारा लड़का मौजूद नहीं है, अगर होता तो आपके दोनों लड़कों से वह अकेला ही भिड़ जाता।”
इस पत्र के जवाब में जो कुछ राजा वीरेंद्रसिंह ने लिखा हम उसका भी संक्षेप नीचे लिख देते हें -
“आप हमारे राज्य में घुसकर किशोरी को ले गये क्या यह आपकी जबर्दस्ती नहीं है क्या इसे लड़ाई की बुनियाद कायम करना नहीं कह सकते हां, अगर आप किशोरी को इज्जत के साथ हमारे पास भेज दें तो हम बेशक अपने घर लौट जायेंगे। नहीं तो याद रहे हम इस किले की एक-एक ईंट उखाड़कर फेंक देंगे जिसकी मजबूती पर घमंड करते हैं। हम लोग आपसे द्वंद्व-युद्ध करने के लिए भी तैयार हैं, जिसका जी चाहे एक पर एक लड़के हौसला निकाल ले। आपका लड़का मेरे यहां कैद है, यदि आप किशोरी को हमारे पास भेज दें तो हम उसे छोड़ने के लिए तैयार हैं।”
इस पत्र के जवाब में रोहतासगढ़ के किले से तोप की एक आवाज आई। अब लड़ाई में किसी तरह का शक न रहा। दोनों तरफ के ऐयार अपनी-अपनी कार्रवाई दिखाने पर मुस्तैद हो गये और उन लोगों ने जो कुछ किया उसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।
रोहतासगढ़ किले के अंदर राजमहल की अटारियों पर चढ़ी हुई बहुत-सी औरतें उस तरफ देख रही हैं जिधर वीरेंद्रसिंह का लश्कर पड़ा हुआ है। कुंअर कल्याणसिंह के गिरफ्तार हो जाने से किशोरी को एक तरह निश्चिंत-सी हो गई थी क्योंकि ज्यादे डर उसे अपनी शादी उसके साथ हो जाने का था, अपने मरने की उसे जरा भी परवाह न थी। हां, कुंअर इंद्रजीतसिंह की याद वह एक सायत के लिए भी नहीं भुला सकती थी जिनकी तस्वीर उसके कलेजे में खिंची हुई थी। वीरेंद्रसिंह की चढ़ाई का हाल सुन, उसे बड़ी खुशी हुई और वह भी अपनी अटारी पर चढ़कर हसरत भरी निगाहों से उस तरफ देखने लगी जिधर वीरेंद्रसिंह की फौज पड़ी हुई थी। चाहे यहां से बहुत दूर हो तो भी किशोरी की निगाहें वहां तक पहुंच और भीड़ में घुस-घुसकर किसी को ढूंढ़ निकालने की कोशिश कर रही थीं। इस समय किशोरी के साथ ही लाली थी जिसने आज कई दिन हुए किशोरी के कमरे में कुंदन को नारंगी दिखाकर डरा दिया था।
लाली किशोरी की निगहबानी पर रखी गई थी तो भी वह किशोरी पर मेहरबानी रखती थी। किशोरी ने नारंगी वाले भेद को जानने की कई दफे कोशिश की मगर पता न लगा। उस दिन के बाद कई दफे कुंदन से भी मुलाकात हुई मगर पूछने पर उसने ऐसी कोई बात न कही जिससे किशोरी का शक दूर हो जाय। नित्य एक घर में रहने पर भी लाली और कुंदन में फिर किसी तरह की दुश्मनी न दिखाई पड़ी। इस बात ने किशोरी के ताज्जुब को और भी बढ़ा रखा था।
इस समय किशोरी के साथ सिवाय लाली के दूसरी कोई और औरत न थी। ये दोनों वीरेंद्रसिंह के लश्कर की तरफ बड़े गौर से देख रही थीं कि यकायक किशोरी को फिर वही नारंगी वाली बात याद आई और थोड़ी देर तक सोचने के बाद वह लाली से पूछने लगी।
किशोरी - लाली, उस दिन की बात जब मैं याद करती हूं, उस पर विचार करती हूं तो कुंदन की दगाबाजी साफ झलक जाती है। कुंदन अगर सच्ची होती तो तुम्हें मारने के लिए न झपटती या हकीकत में अगर वह उस समय यहां से भाग जाने वाली होती तो उसके काम में विघ्न पड़ जाने से उसे रंज होता, सो उसके बदले में वह खुश दिखाई देती है।
लाली - नहीं, वह एकदम से झूठी भी नहीं है।
किशोरी - क्या उसकी बातों का कोई हिस्सा सच भी था?
लाली - जरूर था।
किशोरी - वह क्या?
लाली - यही कि वह भी इस किले में उसी काम के लिए लाई गई है जिस काम के लिए आप लाई गई हैं।
किशोरी - यानी तुम्हारे राजकुमार से ब्याहने के लिए!
लाली - हां।
किशोरी - अच्छा उसकी और कौन-सी बात सच थी
लाली - इन सब बातों को पूछकर क्या करोगी, इस भेद के खुलने से बहुत बड़ी बुराई पैदा होगी।
किशोरी - नहीं-नहीं, मेरी प्यारी लाली, मेरी जुबान से वह बात कोई दूसरा कभी नहीं सुन सकता और मैं उम्मीद करती हूं कि तुम मुझसे उसका हाल साफ-साफ कह दोगी। उस दिन से मुझे विश्वास हो गया है कि तुम मेरी दर्दशरीक हो, अस्तु अगर मेरा खयाल ठीक है तो तुम उसका हाल मुझे जरूर बता दो जिससे मैं हरदम होशियार रहूं।
लाली - अब वह तुम्हारे साथ बुराई कभी न करेगी।
किशोरी - तो भी मेहरबानी करके...
लाली - खैर बता देती हूं, मगर खबरदार, इसका जिक्र किसी दूसरे के सामने कभी मत करना!
किशोरी - ऐसा मैं कदापि नहीं कर सकती और तुम खुद ही जानती हो कि इस महल में सिवाय तुम्हारे कोई भी ऐसा नहीं है कि जिससे में दो बातें करती होऊं।
लाली - अच्छा तो सिवाय उस बात के जो मैं ऊपर कह चुकी हूं बाकी कुल बातें उसकी झूठ थीं। वह इस मकान से भागना नहीं चाहती थी, वह तो हमारे कुमार के साथ ब्याह होने की उम्मीद में खुश है, मगर जिस दिन से तुम आई हो, उस दिन से वह फिक्र में पड़ गई है क्योंकि वह खूबसूरती और इज्जत में तुमको अपने से बहुत बढ़ के समझती है और हकीकत में ऐसा ही है। उसे यह खयाल सता रहा है कि राजकुमार से पहले किशोरी की शादी हो लेगी तब मेरी होगी और ऐसी अवस्था में किशोरी बड़ी रानी कहलावेगी और उसी के लड़के गद्दी के मालिक समझे जायेंगे, इसी से वह इस फिक्र में थी कि तुम्हें मार डाले मगर किसी ऐसे ठिकाने पर ले जाकर जिससे उस पर कोई शक न कर सके।
किशोरी - छिः-छिः!
लाली - मगर अब वह तुम्हारे साथ बुराई नहीं कर सकती।
किशोरी - और वह नारंगी वाला भेद क्या है
लाली - वह मैं नहीं कह सकती। मगर तुम उसी से क्यों नहीं पूछतीं, अब तो वह हरदम तुम्हारी खुशामद किया करती है।
किशोरी - मैं उससे पूछ चुकी हूं।
लाली - उसने क्या कहा
किशोरी - उसने कहा कि लाली ने नारंगी दिखाकर यह नसीहत की कि देखो इसमें कई फांकें हैं, मगर एक साथ रहने और छिलके से ढंके रहने के कारण एक ही गिनी जाती है, कोई कह नहीं सकता कि इसमें कै फांकें हैं, इसी तरह हम लोगों को भी रहना चाहिए।
लाली - ठीक तो कहा।
किशोरी - वाह-वाह! तुमने तो उसी का साथ दिया, एकदम छोकरी बनाकर भुलावा देने लगीं!
लाली - (हंसकर) खैर घबराओ मत सब मालूम हो जायगा।
इतने में सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आहट मालूम हुई और दोनों उस तरफ देखने लगीं। कुंदन ने पहुंचकर दोनों को सलाम किया और हंसी-हंसी में लाली की तरफ देखकर बोली, “एक आदमी तुम्हें खोजता हुआ आया है, वह कहता है कि लाली ने मेरी किताब चुराई है, वह किताब जो किसी के खून से लिखी गई है।”
कुंदन के इन शब्दों में न मालूम क्या भेद भरा हुआ था कि सुनने ही से लाली का रंग उड़ गया। खौफ के मारे उसके तमाम बदन में कंपकंपी पैदा हो गई और मालूम होता था कि किसी ने उसके बदन का खून खींच लिया है। थोड़ी देर तक वह अपने हवास में न रही अंत में हाथ जोड़ के उसने कुंदन से कहा -
लाली - कुंदन, मुझसे बड़ी भूल हुई, मुझ पर रहम खा, मैं तमाम उम्र तेरी लौंडी बनकर रहूंगी!
कुंदन - क्या गुलामी की दस्तावेज मेरे आंचल पर लिख देगी
कुंदन के इस दूसरे जुमले ने लाली को एकदम ही बदहवास कर दिया। अबकी दफे वह अपने को किसी तरह न सम्हाल सकी, उसका सिर घूमने लगा और वह चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ी।
लाली का यह हाल देख कुंदन चुपचाप वहां से चली गई, मगर उसकी सूरत से मालूम होता था कि वह अपनी कार्रवाई पर खुश है या उसने लाली के ऊपर अपनी हुकूमत पैदा कर ली है। उसका मुंह सिकोड़कर सिर हिलाना कहे देता था कि वह लाली पर कुछ और भी जुल्म किया चाहती है।
बेचारी किशोरी का अजब हाल था। नारंगी वाला भेद जानने के लिये वह पहले ही परेशान थी, अब इस दूसरे भेद ने और भी कलेजा ऐंठ दिया। उसने बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाला और लाली को उसी तरह छोड़ छत के नीचे उतर आई तथा अपने कमरे से एक गिलास जल लाकर लाली के मुंह पर छींटा दिया। थोड़ी देर में लाली होश में आई और बिना कुछ बात किये रोती हुई अपने रहने की जगह में चली गई और किशोरी भी अपने कमरे की तरफ रवाना हुई।
जिस कमरे में किशोरी रहती थी वह एक खुशनुमा बाग के बीचोंबीच में था। इस बाग के चारों कोनों में छोटी-छोटी चार इमारतें और भी थीं, एक में वे कुल औरतें रहती थीं जो किशोरी की हिफाजत के लिए मुकर्रर की गई थीं। उन औरतों की अफसर लाली थी। दूसरे मकान में दो-तीन लौंडियों के साथ लाली रहती थी। तीसरा मकान अमीराना ठाठ से रहने के लिए कुंदन को मिला हुआ था, चौथे मकान में जो सबसे छोटा था ताला बंद था मगर बारी-बारी से कई औरतें नंगी तलवार लिये उसके दरवाजे पर पहरा दिया करती थीं। यह बाग जनाने महल में था और किसी गैर का यहां आना या यहां से किसी का निकल भागना मुश्किल था।