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भाग 58

 


अब तो कुंदन का हाल जरूर ही लिखना पड़ा, पाठक महाशय उसका हाल जानने के लिए उत्कंठित हो रहे होंगे। हमने कुंदन को रोहतासगढ़ महल के उसी बाग में छोड़ा है जिसमें किशोरी रहती थी। कुंदन इस फिक्र में लगी रहती थी कि किशोरी किसी तरह लाली के कब्जे में न पड़ जाय।
जिस समय किशोरी को लेकर सेंध की राह लाली उस घर में उतरी जिसमें तहखाने का रास्ता था और यह हाल कुंदन को मालूम हुआ तो वह बहुत घबड़ाई। महल भर में इस बात का गुल मचा दिया और सोच में पड़ी कि, अब क्या करना चाहिए हम पहले लिख आये हैं कि किशोरी और लाली के जाने के बाद 'धरो पकड़ो' की आवाज लगाते हुए कई आदमी सेंध की राह उसी मकान में उतर गये जिसमें लाली और किशोरी गई थीं।
उन्हीं लोगों में मिलकर कुंदन भी एक छोटी-सी गठरी कमर के साथ बांध उस मकान के अंदर चली गई और यह हाल घबड़ाहट और गुल-शोर में किसी को मालूम न हुआ। उस मकान के अंदर भी बिल्कुल अंधेरा था। लाली ने दूसरी कोठरी में जाकर दरवाजा बंद कर लिया इसलिये लाचार होकर पीछा करने वालों को लौटना पड़ा और उन लोगों ने इस बात की इत्तिला महाराज से की, मगर कुंदन उस मकान से न लौटी बल्कि किसी कोने में छिप रही।
हम पहले लिख आये हैं और अब भी लिखते हैं कि उस मकान के अंदर तीन दरवाजे थे, एक तो वह सदर दरवाजा था जिसके बाहर पहरा पड़ा करता था, दूसरा खुला पड़ा था, तीसरे दरवाजे को खोलकर किशोरी को साथ लिये लाली गई थी।
जो दरवाजा खुला था उसके अंदर एक दालान था, इसी दालान तक लाली और किशोरी को खोजकर पीछा करने वाले लौट गये थे क्योंकि कहीं आगे जाने का रास्ता उन लोगों को न मिला था। जब वे लोग मकान के बाहर निकल गये तो कुंदन ने अपनी कमर से गठरी खोली और उसमें से सामान निकालकर मोमबत्ती जलाने के बाद चारों तरफ देखने लगी।
यह एक छोटा-सा दालान था मगर चारों तरफ से बंद था। इस दालान की दीवारों में तरह-तरह की भयानक तस्वीरें बनी हुई थीं मगर कुंदन ने उन पर कुछ ध्यान न दिया। दालान के बीचोंबीच में बित्ते-बित्ते भर के ग्यारह डिब्बे लोहे के रखे हुए थे और हर एक डिब्बे पर आदमी की खोपड़ी रखी हुई थी। कुंदन उन्हीं डिब्बों को गौर से देखने लगी। ये डिब्बे गोलाकार एक चौकी पर सजाए हुए थे, एक डिब्बे पर आधी खोपड़ी थी और बाकी डिब्बों पर पूरी-पूरी। कुंदन इस बात को देखकर ताज्जुब कर रही थी कि इनमें से एक खोपड़ी जमीन पर क्यों पड़ी हुई है, औरों की तरह उसके नीचे डिब्बा नहीं है कुंदन ने उस डिब्बे से जिस पर आधी खोपड़ी रखी हुई थी गिनना शुरू किया। मालूम हुआ कि सातवें नंबर की खोपड़ी के नीचे डिब्बा नहीं है। यकायक कुंदन के मुंह से निकला, “ओफओह, बेशक इसके नीचे का डिब्बा लाली ले गई क्योंकि ताली वाला डिब्बा नहीं था, मगर यह हाल उसे क्योंकर मालूम हुआ'
कुंदन ने फिर गिनना शुरू किया और टूटी हुई खोपड़ी से पांचवें नंबर पर रुक गई, खोपड़ी उठाकर नीचे रख दी और डिब्बे को उठा लिया, तब अच्छी तरह गौर से देखकर जोर से जमीन पर पटका। डिब्बे के चार टुकड़े हो गए, मानो चार जगहों से जोड़ लगाया हुआ हो। उसके अंदर से एक ताली निकली जिसे देख कुंदन हंसी और खुश होकर आप ही आप बोली, “देखो तो लाली को मैं कैसा छकाती हूं।”
कुंदन ने उस ताली से काम लेना शुरू किया। उसी दालान में दीवार के साथ एक अलमारी थी जिसे कुंदन ने उसी ताली से खोला। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां नजर आईं और वह बेखौफ नीचे उतर गई। एक कोठरी में पहुंच जहां एक छोटे सिंहासन के ऊपर हाथ-भर लंबी और इससे कुछ कम चौड़ी तांबे की एक पट्टी रखी हुई थी। कुंदन ने उसे उठाकर अच्छी तरह देखा, मालूम हुआ कि कुछ लिखा हुआ है, अक्षर खुदे हुए थे और उन पर किसी तरह का चिकना या तेल मला हुआ था जिसके सबब से पटिया अभी तक जंग लगने से बची हुई थी। कुंदन ने उस लेख को बड़े गौर से पढ़ा और हंसकर चारों तरफ देखने लगी। उस कोठरी की दीवार में दो तरफ दो दरवाजे थे और एक पल्ला जमीन में था। उसने एक दरवाजा खोला, ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां मिलीं, वह बेखौफ ऊपर चढ़ गई और एक ऐसी तंग कोठरी में पहुंची जिसमें चार-पांच आदमी से ज्यादे के बैठने की जगह न थी, मगर इस कोठरी के चारों तरफ की दीवार में छोटे-छोटे कई छेद थे, जलती हुई बत्ती बुझाकर उन छेदों में से एक छेद में आंख लगाकर कुंदन ने देखा।
कुंदन ने अपने को ऐसी जगह पाया जहां से वह भयानक मूर्ति जिसके आगे एक औरत बलि दी जा चुकी थी और जिसका हाल पीछे लिख आये हैं साफ दिखाई देती थी। थोड़ी देर में कुंदन ने महाराज दिग्विजयसिंह, तहखाने के दारोगा, लाली, किशोरी और बहुत से आदमियों को वहां देखा। उसके देखते ही देखते एक औरत उस मूरत के सामने बलि दी गई और कुंअर आनंदसिंह ऐयारों सहित पकड़े गये। इस तहखाने में से किशोरी और कुंअर आनंदसिंह का भी कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं वह सब कुंदन ने देखा था। आखिर में कुंदन नीचे उतर आई और उस पल्ले को जो जमीन में था उसी ताली से खोलकर तहखाने में उतरने के बाद बत्ती बालकर देखने लगी। छत की तरफ निगाह करने से मालूम हुआ कि वह सिंहासन पर बैठी हुई भयानक मूर्ति जो कि भीतर की तरफ से बिल्कुल (सिंहासन सहित) पोली थी, उसके सिर के ऊपर है।
कुंदन फिर ऊपर आई और दीवार में लगे हुए एक दूसरे दरवाजे को खोलकर एक सुरंग में पहुंची। कई कदम जाने के बाद एक छोटी खिड़की मिली, उसी ताली से कुंदन ने उस खिड़की को भी खोला। अब वह उस रास्ते में पहुंच गई जो दीवानखाने और तहखाने में आने-जाने के लिए था और जिस राह से महाराज आते थे, तहखाने से दीवानखाने में जाने तक जितने दरवाजे थे सभी को कुंदन ने अपनी ताली से बंद कर दिया, ताले के अलावे उन दरवाजों में एक-एक खटका और भी था उसे भी कुंदन ने चढ़ा दिया। इस काम से छुट्टी पाने के बाद फिर वहां पहुंची जहां से भयानक मूर्ति और आदमी सब दिखाई दे रहे थे। कुंदन ने अपनी आंखों से राजा दिग्विजयसिंह की घबराहट देखी जो दरवाजा बंद हो जाने से उन्हें हुई थी।
मौका देखकर कुंदन वहां से उतरी और उस तहखाने में जो उस भयानक मूर्ति के नीचे था पहुंची। थोड़ी देर तक कुछ बकने के बाद कुंदन ने ही वे शब्द कहे जो उस भयानक मूर्ति के मुंह से निकले हुए राजा दिग्विजयसिंह या और लोगों ने सुने थे और उनके मुताबिक किशोरी बारह नंबर की कोठरी में बंद कर दी गई थी।
कुंदन वहां से निकलकर यह देखने के लिए कि राजा किशोरी को उस कोठरी में बंद करता है या नहीं। फिर उस छत पर पहुंची जहां से सब लोग दिखाई पड़ते थे। जब कुंदन ने देखा कि किशोरी उस कोठरी में बंद कर दी गई तो वह नीचे तहखाने में उतरी। उसी जगह से एक रास्ता था जो उस कोठरी के ठीक नीचे पहुंचता था जिसमें किशोरी बंद की गई थी। वहां की छत इतनी नीची थी कि कुंदन को बैठ कर जाना पड़ा। छत में एक पेंच लगा हुआ था जिसके घुमाने से एक पत्थर की चट्टान हट गई और आंचल से मुंह ढांपे कुंदन किशोरी के सामने जा खड़ी हुई।
बेचारी किशोरी तरह-तरह की आफतों से आप ही बदहवास हो रही थी, अंधेरे में बत्ती लिए यकायक कुंदन को निकलते हुए देख घबड़ा गई। उसने घबड़ाहट में कुंदन को बिल्कुल नहीं पहचाना बल्कि उसे भूत, प्रेत या कोई आसेब समझकर डर गई और एक चीख मारकर बेहोश हो गई।
कुंदन ने अपनी कमर से कोई दवा निकालकर किशोरी को सुंघाई जिससे वह अच्छी तरह बेहोश हो गई, इसके बाद अपनी छोटी गठरी में से सामान निकालकर वह बरवा अर्थात 'धनपति रंग मचायो साध्यो काम'...इत्यादि लिखकर कोठरी में एक तरफ रख दिया और अपनी कमर से एक चादर खोली जो महल से लेती आई थी, उसी में किशोरी की गठरी बांधी और नीचे घसीट ले गई। जिस तरह पेंच को घुमाकर पत्थर की चट्टान हटाई थी उसी तरह रास्ता बंद कर दिया।
यह सुरंग कोठरी के नीचे खतम नहीं हुई थी बल्कि दूर तक चली गई थी। आगे से चौड़ी और ऊंची होती गई थी। किशोरी को लिए हुए कुंदन उस सुरंग में चलने लगी। लगभग सौ कदम जाने के बाद एक दरवाजा मिला जिसे कुंदन ने उसी ताली से खोला, आगे फिर उसी सुरंग में चलना पड़ा। आधी घड़ी के बाद सुरंग का अंत हुआ और कुंदन ने अपने को एक खोह के मुंह पर पाया।
इस जगह पहुंचकर कुंदन ने सीटी बजाई। थोड़ी देर में पांच आदमी आ मौजूद हुए और एक ने बढ़कर पूछा, “कौन है धनपतिजी!”
कुंदन - हां रामा, तुम लोगों को यहां बहुत दुख भोगना और कई दिन तक अटकना पड़ा।
रामा - जब हमारे मालिक ही इतने दिनों तक अपने को बला में डाले हुए थे जहां से जान बचाना मुश्किल था तो फिर हम लोगों की क्या बात है, हम लोग तो खुले मैदान में थे।
कुंदन - लो किशोरी तो हाथ लग गई, अब इसे ले चलो और जहां तक जल्द हो सके भागो।
वे लोग किशोरी को लेकर वहां से रवाना हुए। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि किशोरी धनपति के काबू में पड़ गई। कौन धनपति वही धनपति जिसे नानक और रामभोली के बयान में आप लोग जान चुके हैं। मेरे इस लिखने से पाठक महाशय चौंकेंगे और उनका ताज्जुब घटेगा नहीं बल्कि बढ़ जायगा, इसके साथ ही साथ पाठकों को नानक की वह बात कि 'वह किताब भी जो किसी के खून से लिखी गई है...' भी याद आयेगी जिसके सबब से नानक ने अपनी जान बचाई थी। पाठक इस बात को भी जरूर सोचेंगे कि कुंदन अगर असल में धनपति थी तो लाली जरूर रामभोली होगी, क्योंकि धनपति को किसी के 'खून से लिखी हुई किताब' का भेद मालूम था और यह भेद रामभोली को भी मालूम था। जब धनपति ने रोहतासगढ़ महल में लाली के सामने उस किताब का जिक्र किया तो लाली कांप गई जिससे मालूम होता है कि वह रामभोली ही होगी। किसी के खून से लिखी हुई किताब का नाम सुनकर अगर लाली डर गई तो धनपति भी जरूर समझ गई होगी कि यह रामभोली है, फिर धनपति (कुंदन) लाली से मिल क्यों न गई क्योंकि वे दोनों तो एक ही के तुल्य थीं ऐसी अवस्था में तो इस बात का शक होता है कि लाली रामभोली न थी। फिर तहखाने में धनपति के लिखे हुए बरवै को सुनकर लाली क्यों हंसी इत्यादि बातों को सोचकर पाठकों की चिंता अवश्य बढ़ेगी, क्या किया जाय, लाचारी है।