Get it on Google Play
Download on the App Store

भाग 56

 


अब हम रोहतासगढ़ की तरफ चलते हैं और तहखाने में बेबस पड़ी हुई बेचारी किशोरी और कुंअर आनंदसिंह इत्यादि की सुध लेते हैं। जिस समय कुंअर आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह तहखाने के अंदर गिरफ्तार हो गए और राजा दिग्विजयसिंह के सामने लाए गये तो राजा के आदमियों ने उन तीनों का परिचय दिया जिसे सुन राजा हैरान रह गया और सोचने लगा कि ये तीनों यहां क्योंकर आ पहुंचे। किशोरी भी उसी जगह खड़ी थी। उसने सुना कि ये लोग फलाने हैं तो वह घबड़ा गई, उसे विश्वास हो गया कि अब इनकी जान नहीं बचती। इस समय वह मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि जिस तरह हो सके इनकी जान बचाए, इनके बदले में मेरी जान जाय तो कोई हर्ज नहीं परंतु मैं अपनी आंखों से इन्हें मरते नहीं देखना चाहती। इसमें कोई शक नहीं कि ये मुझी को छुड़ाने आये थे नहीं तो इन्हें क्या मतलब था कि इतना कष्ट उठाते।
जितने आदमी तहखाने के अंदर मौजूद थे सभी जानते थे कि इस समय तहखाने के अंदर कुंअर आनंदसिंह का मददगार कोई भी नहीं है परंतु हमारे पाठक महाशय जानते हैं कि पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी जो इस समय दारोगा बने यहां मौजूद हैं कुंअर आनंदसिंह की मदद जरूर करेंगे, मगर एक आदमी के किए होता ही क्या है तो भी ज्योतिषीजी ने हिम्मत न हारी और वह राजा से बातचीत करने लगे। ज्योतिषीजी जानते थे कि मेरे अकेले के किए ऐसे मौके पर कुछ नहीं हो सकता और वहां की किताब पढ़ने से उन्हें यह भी मालूम हो गया था कि इस तहखाने के कायदे के मुताबिक ये जरूर मारे जाएंगे, फिर भी ज्योतिषीजी को इनके बचने की उम्मीद कुछ-कुछ जरूर थी क्योंकि पंडित बद्रीनाथ कह गये थे कि 'आज इस तहखाने में कुंअर आनंदसिंह आवेंगे'। अब ज्योतिषीजी सिवाए इसके और कुछ नहीं कर सकते कि राजा को बातों में लगाकर देर करें जिससे पंडित बद्रीनाथ वगैरह आ जाएं और आखिर उन्होंने ऐसा ही किया। ज्योतिषीजी अर्थात दारोगा साहब राजा के सामने गये और बोले –
दारोगा - मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि आप से आप कुंवर आनंदसिंह हम लोगों के कब्जे में आ गये।
राजा - (सिर से पैर तक ज्योतिषीजी को अच्छी तरह देखकर) ताज्जुब है कि आप ऐसा कहते हैं मालूम होता है कि आज आपकी अक्ल चरने चली गई है! छी!
दारोगा - (घबड़ाकर और हाथ जोड़कर) सो क्या महाराज!
राजा - (रंज होकर) फिर भी आप पूछते हैं सो क्या आप ही कहिए, आनंदसिंह आप से आप यहां आ फंसे तो क्यों आप खुश हुए?
दारोगा - मैं यह सोचकर खुश हुआ कि जब इनकी गिरफ्तारी का हाल राजा वीरेंद्रसिंह सुनेंगे तो जरूर कहला भेजेंगे कि आनंदसिंह को छोड़ दीजिए, इसके बदले में हम कुंअर कल्याणसिंह को छोड़ देंगे।
राजा - अब मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारी अक्ल सचमुच चरने गई है या तुम वह दारोगा नहीं हो, कोई दूसरे हो।
दारोगा - (कांपकर) शायद आप इसलिए कहते हों कि मैंने जो कुछ अर्ज किया इस तहखाने के कायदे के खिलाफ किया।
राजा - हां, अब तुम राह पर आये! बेशक ऐसा ही है। मुझे इनके यहां आ फंसने का रंज है। अब मैं अपनी और अपने लड़के की जिन्दगी से भी नाउम्मीद हो गया। बेशक अब यह रोहतासगढ़ उजाड़ हो गया। मैं किसी तरह कायदे के खिलाफ नहीं कर सकता, चाहे जो हो, आनंदसिंह को अवश्य मारना पड़ेगा और इसका नतीजा बहुत ही बुरा होगा। मुझे इस बात का भी विश्वास है कि कुंअर आनंदसिंह पहले-पहल यहां नहीं आये बल्कि इनके कई ऐयार इसके पहले भी जरूर यहां आकर सब हाल देख गये होंगे। कई दिनों से यहां के मामले में जो विचित्रता दिखाई पड़ती है यह सब उसी का नतीजा है। सच तो यह है कि इस समय की बातें सुनकर मुझे आप पर भी शक हो गया है। यहां का दारोगा इस तरह आनंदसिंह के आ फंसने से कभी न कहता कि मैं खुश हूं। यह जरूर समझता कि कायदे के मुताबिक इन्हें मारना पड़ेगा, इसके बदले में कल्याणसिंह मारा जायेगा, और इसके अतिरिक्त वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग ऐयारी के कायदे को तिलांजलि देकर बेहोशी की दवा के बदले जहर का बर्ताव करेंगे और एक ही सप्ताह में रोहतासगढ़ को चौपट कर डालेंगे। इस तहखाने के दारोगा को जरूर इस बात का रंज होता।
राजा की बातें सुनकर ज्योतिषीजी की आंखें खुल गईं। उन्होंने मन में अपनी भूल कबूल की और गर्दन नीची करके सोचने लगे। उसी समय राजा ने पुकारकर अपने आदमियों से कहा, “इस नकली दारोगा को भी गिरफ्तार कर लो और अच्छी तरह आजमाओ कि यहां का दारोगा हे या वीरेंद्रसिंह का कोई ऐयार!”
बात की बात में दारोगा साहब की मुश्कें बांध ली गईं और राजा ने दो आदमियों को गरम पानी लाने का हुक्म दिया। नौकरों ने यह समझकर कि वहां पानी गरम करने में देर होगी, ऊपर दीवानखाने में हरदम गरम पानी मौजूद रहता है वहां से लाना उत्तम होगा, महाराज से आज्ञा चाही। महाराज ने इसको पसन्द करके ऊपर दीवानखाने से पानी लाने का हुक्म दिया।
दो नौकर गरम पानी लाने के लिए दौड़े मगर तुरन्त लौट आकर बोले, “ऊपर का रास्ता तो बंद हो गया।”
महा - सो क्या! रास्ता कैसे बंद हो सकता है?
नौकर - क्या जाने ऐसा क्यों हुआ?
महा - ऐसा कभी नहीं हो सकता! (ताली दिखाकर) देखो यह ताली मेरे पास मौजूद है, इस ताली के बिना कोई क्योंकर उन दरवाजों को बंद कर सकता है?
नौकर - जो हो, मैं कुछ नहीं अर्ज कर सकता, सरकार खुद चलकर देख लें।
राजा ने स्वयं जाकर देखा तो ऊपर जाने का रास्ता बंद पाया। ताज्जुब हुआ और सोचने लगा कि दरवाजा किसने बंद किया, ताली तो मेरे पास थी! आखिर दरवाजा खोलने के लिए ताली लगाई मगर ताला न खुला। आज तक इसी ताली से बराबर इस तहखाने में आने-जाने का दरवाजा खोला जाता था, लेकिन इस समय ताली कुछ काम नहीं करती। यह अनोखी बात जो राजा दिग्विजयसिंह के ध्यान में कभी न आई थी आज यकायक पैदा हो गई। राजा के ताज्जुब का कोई हद्द न रहा। उस तहखाने में और भी बहुत से दरवाजे उसी ताली से खुला करते थे। राजा ने ताली ठोंक-पीटकर एक दूसरे दरवाजे में लगाई, मगर वह भी न खुला। राजा की आंखों में आंसू भर आए और यकायक उसके मुंह से यह आवाज निकली, “अब इस तहखाने की और हम लोगों की उम्र पूरी हो गई।”
राजा दिग्विजयसिंह घबड़ाया हुआ चारों तरफ घूमता और घड़ी-घड़ी दरवाजों में ताली लगाता था - इतने ही में उस काले रंग की भयानक मूर्ति के मुंह में से जिसके सामने एक औरत की बलि दी जा चुकी थी एक तरह की आवाज निकलने लगी। यह भी एक नई बात थी। दिग्विजयसिंह और जितने आदमी वहां थे सब डर गये तथा उसी तरफ देखने लगे। कांपता हुआ राजा उस मूर्ति के पास जाकर खड़ा हो गया ओैर गौर से सुनने लगा कि क्या आवाज आती है। थोड़ी देर तक वह आवाज समझ में न आई, इसके बाद यह सुनाई पड़ा - “तेरी ताली केवल बारह नंबर की कोठरी को खोल सकेगी। जहां तक जल्दी हो सके किशोरी को उसमें बंद कर दे नहीं तो सभों की जान मुफ्त में जाएगी!”
यह नई अद्भुत और अनोखी बात को देख-सुनकर राजा का कलेजा दहलने लगा मगर उसकी समझ में कुछ न आया कि यह मूरत क्योंकर बोली, आज तक कभी ऐसी बात न हुई थी। सैकड़ों आदमी इसके सामने बलि चढ़ गए लेकिन ऐसी नौबत न आई थी। अब राजा को विश्वास हो गया कि इस मूरत में कोई करामात जरूर है तभी तो बड़े लोगों ने बलि का प्रबंध किया है। यद्यपि राजा ऐसी बातों का विश्वास कम रखता था परंतु आज उसे डर ने दबा लिया, उसने सोच-विचार में ज्यादे समय नष्ट न किया और उसी ताली से बारह नंबर वाली कोठरी खोलकर किशोरी को उसके अंदर बंद कर दिया।
राजा दिग्विजयसिंह ने अभी इस काम से छुट्टी न पाई थी कि बहुत से आदमियों को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ उस तहखने में आ पहुंचे। कुंअर आनंदसिंह और तारासिंह को बेबस पाकर झपट पड़े और बहुत जल्दी उनके हाथ-पैर खोल दिए। महाराज के आदमियों ने इनका मुकाबला किया, पंडित बद्रीनाथ के साथ जो आदमी आये थे वे लोग भी भिड़ गये। जब आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह छूटे तो लड़ाई गहरी हो गई, इन लोगों के सामने ठहरने वाला कौन था केवल चार ऐयार ही उतने लोगों के लिए काफी थे। कई मारे गये, कई जख्मी होकर गिर पड़े, राजा दिग्विजयसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया, वीरेंद्रसिंह की तरफ का कोई न मरा। इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद किशोरी की खोज की गई।
इस तहखाने में जो कुछ आश्चर्य की बातें हुई थीं सभों ने देखी-सुनी थीं। लाली और ज्योतिषीजी ने सब हाल आनंदसिंह और ऐयार लोगों को बताया और कहा कि किशोरी बारह नंबर की कोठरी में बंद कर दी गई है।
पंडित बद्रीनाथ ने दिग्विजयसिंह की कमर से ताली निकाल ली और बारह नंबर की कोठरी खोली मगर किशोरी को उसमें न पाया। चिराग लेकर अच्छी तरह ढूंढ़ा परंतु किशोरी न दिखाई पड़ी, न मालूम जमीन में समा गई या दीवार खा गई! इस बात का आश्चर्य सभों को हुआ कि बंद कोठरी में से किशोरी कहां गायब हो गई। हां एक कागज का पुर्जा उस कोठरी में जरूर मिला जिसे भैरोसिंह ने उठा लिया और पढ़कर सभों को सुनाया। यह लिखा था –
“धनपति रन मचायो साध्यो काम।
भोली भलि मुड़ि ऐहैं यदि यहि ठाम।।”
इस बरवै का मतलब किसी की समझ में न आया, लेकिन इतना विश्वास हो गया कि अब इस जगह किशोरी का मिलना कठिन है। उधर लाली इस बरवै को सुनते ही खिलखिलाकर हंस पड़ी लेकिन जब लोगों ने हंसने का सबब पूछा तो कुछ जवाब न दिया बल्कि सिर नीचा करके चुप हो रही, जब ऐयारों ने बहुत जोर दिया तो बोली, “मेरे हंसने का कोई खास सबब नहीं है। बड़ी मेहनत करके किशोरी को मैंने यहां से छुड़ाया था। (किशेरी के छुड़ाने के लिए जो-जो काम उसने किये थे सब कहने के बाद) मैं सोचे हुए थी कि इस काम के बदले में राजा वीरेंद्रसिंह से कुछ इनाम पाऊंगी, लेकिन कुछ न हुआ, मेरी मेहनत चौपट हो गई, मेरे देखते ही देखते किशोरी इस कोठरी में बंद हो गई थी। जब आप लोगों ने कोठरी खोली तो मुझे उम्मीद थी कि उसे देखूंगी और वह अपनी जुबान से मेरे परिश्रम का हाल कहेगी परंतु कुछ नहीं। ईश्वर की भी क्या विचित्र गति है, वह क्या करता है सो कुछ समझ में नहीं आता! यही सोचकर मैं हंसी थी और कोई बात नहीं है।”
लाली की बातों का और सभों को चाहे विश्वास हो गया हो लेकिन हमारे ऐयारों के दिल में उसकी बातें न बैठीं। देखा चाहिए अब वे लोग लाली के साथ क्या सलूक करते हैं।
पंडित बद्रीनाथ की राय हुई कि अब इस तहखाने में ठहरना मुनासिब नहीं, जब यहां की अजब बातों से खुद यहां का राजा परेशान हो गया तो हम लोगों की क्या बात है, यह भी उम्मीद नहीं है कि इस समय किशोरी का पता लगे, अस्तु जहां तक जल्द हो सके यहां से चले चलना ही मुनासिब है।
जितने आदमी मर गये थे उसी तहखाने में गड्ढा खोदकर गाड़ दिये गये, बाकी बचे हुए चार-पांच आदमियों को राजा दिग्विजयसिंह सहित कैदियों को तरह साथ लिया और सभों का मुंह चादर से बांध दिया। ज्योतिषीजी ने भी ताली का झब्बा सम्हाला, रोजनामचा हाथ में लिया, और सभों के साथ तहखाने से बाहर हुए। अबकी दफे तहखाने से बाहर निकलते हुए जितने दरवाजे थे सभों में ज्योतिषीजी ताला लगाते गए जिससे उसके अंदर कोई आने न पावे।
तहखाने से बाहर निकलने पर लाली ने कुंअर आनंदसिंह से कहा, “मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि मेरी मेहनत बर्बाद हो गई और किशोरी से मिलने की आशा न रही। अब यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने घर जाऊं क्योंकि किशोरी ही की तरह मैं भी इस किले में कैद की गई थी।”
आनंद - तुम्हारा मकान कहां है?
लाली - मथुराजी।
भैरो - (आनंदसिंह से) इसमें कोई शक नहीं कि लाली का किस्सा भी बहुत बड़ा और दिलचस्प होगा, इन्हें हमारे महाराज के पास अवश्य ले चलना चाहिए।
बद्री - जरूर ऐसा होना चाहिए नहीं तो महाराज रंज होंगे।
ऐयारों का मतलब कुंअर आनंदसिंह समझ गए और इसी जगह से लाली को बिदा होने की आज्ञा उन्होंने न दी। लाचार लाली को कुंअर साहब के साथ जाना ही पड़ा और ये लोग बिना किसी तरह की तकलीफ पाए राजा वीरेंद्रसिंह के लश्कर में पहुंच गये जहां लाली इज्जत के साथ एक खेमे में रखी गई।