यक़ ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का
यक ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का
यां जादा[1] भी फ़तीला[2] है लाले[3] के दाग़[4] का
बे-मै किसे है ताक़त-ए-आशोब[5]-ए-आगही[6]
खेंचा है अ़ज़ज़[7]-ए-हौसला ने ख़त[8] अयाग़[9] का
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़नदा-हाए-गुल[10]
कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का
ताज़ा नहीं है नशा-ए-फ़िकर-ए-सुख़न[11] मुझे
तिरयाकी-ए-क़दीम[12] हूं दूद[13]-ए-चिराग़ का
सौ बार बंद-ए-इश्क़[14] से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें कि दिल ही अदू[15] है फ़राग़[16] का
बे-ख़ून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह ग़ुबार[17]
यह मै-कदा ख़राब है मै के सुराग़[18] का
बाग़-ए-शिगुफ़ता तेरा बिसात[19]-ए-नशात[20]-ए-दिल
अब्र-ए-बहार[21] ख़ुम-कदा[22] किस के दिमाग़ का
शब्दार्थ: