मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं
मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाये
वगर्ना ताब-ओ-तबाँ[1] बालो[2]-पर में ख़ाक नहीं
ये किस बहिश्ते-शमाइल[3] की आमद-आमद है?
के ग़ैर-जल्वा-ए-गुल[4] रहगुज़र में ख़ाक नहीं
भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं
ख़याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मयकश
शराबख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं
हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी[5] से शर्मिंदा
सिवाय हसरत-ए-तामीर[6] घर में ख़ाक नहीं
हमारे शे'र हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के 'असद'
खुला कि फ़ायदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं
शब्दार्थ: