है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल
है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़नदा-हाए-गुल[1]
आज़ादी-ए नसीम मुबारक कि हर तरफ़
टूटे पड़े हैं हलक़ा-ए दाम-ए हवा-ए गुल
जो था सो मौज-ए रंग के धोके में मर गया
ऐ वाए नाला-ए लब-ए ख़ूनीं-नवा-ए गुल
ख़ुश-हाल उस हरीफ़े-सियह-मस्त का कि जो
रखता हो मिसल-ए साया-ए गुल सर ब पा-ए गुल
ईजाद करती है उसे तेरे लिये बहार
मेरा रक़ीब है नफ़स-ए `इतर-सा-ए गुल
शरमिंदा रखते हैं मुझे बाद-ए बहार से
मीना-ए बे-शराब-ओ-दिल-ए बे-हवा-ए गुल
सतवत[2] से तेरे जलवा-ए हुस्न-ए ग़यूर की
ख़ूं है मिरी निगाह में रंग-ए अदा-ए गुल
तेरे ही जलवे का है यह धोका कि आज तक
बे-इख़तियार दौड़े है गुल दर क़फ़ा-ए गुल
ग़ालिब मुझे है उस से हम-आग़ोशी आरज़ू
जिस का ख़याल है गुल-ए जेब-ए क़बा-ए गुल
शब्दार्थ: