ख़मोशियों में तमाशा, अदा निकलती है निगाह दिल से तेरे सुरमा-सा[1] निकलती है फ़शार-ए-तंगी-ए-ख़लवत[2] से बनती है शबनम सबा[3] जो ग़ुंचे[4] के परदे में जा निकलती है न पूछ सीना-ए-आ़शिक़ से आब-ए-तेग़-ए-निगाह[5] कि ज़ख़्म-ए-रौज़न-ए-दर[6] से, हवा निकलती है