हुजूम-ए-ग़म से, यां तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
हुजूम-ए-ग़म[1] से, यां तक सर-निगूनी[2] मुझ को हासिल है
कि तार-ए-दामन[3]-ओ-तार-ए-नज़र में फ़र्क़ मुश्किल है
रफ़ू-ए-ज़ख़्म से, मतलब है लज़्ज़त[4] ज़ख़्म-ए-सोज़न[5] की
समझियो मत कि पास-ए-दर्द[6] से दीवाना ग़ाफ़िल[7] है
वह गुल जिस गुलसितां में जल्वा-फ़रमाई[8] करे, ग़ालिब
चटकना ग़ुंचा-ए-गुल[9] का सदा-ए-ख़न्दा-ए-दिल[10] है
शब्दार्थ: