चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 6
जो कुछ हम ऊपर लिख आये हैं उसके कई दिन बाद जमानिया में दोपहर दिन के समय जब राजा गोपालसिंह भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर अपने कमरे में चारपाई पर लेटे हुए एक-एक करके बहुस-सी चीठियों को पढ़-पढ़कर कुछ सोच रहे थे उसी समय चोबदार ने भूतनाथ के आने की इत्तिला की। गोपालसिंह ने भूतनाथ को अपने सामने हाजिर करने की आज्ञा दी। भूतनाथ हाजिर हुआ और सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया। उस समय वहां पर इन दोनों के सिवाय और कोई न था।
गोपाल - कहो भूतनाथ! अच्छे तो हो, इतने दिनों तक कहां थे और क्या करते थे?
भूत - आपसे बिदा होकर मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गया।
गोपाल - सो क्या!
भूत - कमलिनीजी के मकान की बर्बादी का हाल तो आपको मालूम हुआ ही होगा?
गोपाल - हां, मैं सुन चुका हूं कि कमलिनी के मकान को दुश्मनों ने उजाड़ दिया और उसके यहां जो कैदी थे वे भाग गये।
भूत - ठीक है, तो क्या आप किशोरी, कामिनी और तारा का हाल भी सुन चुके हैं जो उस मकान में थीं!
गोपाल - उनका खुलासा हाल तो मुझे मालूम नहीं हुआ मगर इतना सुन चुका हूं कि अब वे सब कमलिनी के साथ रोहतासगढ़ में जा पहुंची हैं।
भूत - ठीक है मगर उन पर कैसी मुसीबत आ पड़ी थी उसका हाल आपको शायद मालूम नहीं।
गोपाल - नहीं बल्कि उसका खुलासा हाल दरियाफ्त करने के लिए मैंने एक आदमी रोहतासगढ़ में ज्योतिषीजी के पास भेजा है और एक पत्र भी लिखा है मगर अभी तक जवाब नहीं आया। तो क्या कमलिनी के साथ तुम भी वहां गये थे!
भूत - जी हां, मैं कमलिनीजी के साथ था।
गोपाल - तब तो मुझे सब खुलासा हाल तुम्हारी ही जुबानी मालूम हो सकता है, अच्छा कहो कि क्या हुआ?
भूत - मैं सब हाल आपसे कहता हूं और उसी के बीच में अपनी तबाही और बर्बादी का हाल भी कहता हूं।
इतना कहकर भूतनाथ ने किशोरी, कमलिनी, लक्ष्मीदेवी, भगवनिया, श्यामसुन्दरसिंह और बलभद्रसिंह का कुल हाल जो ऊपर लिखा जा चुका है कहा और इसके बाद रोहतासगढ़ किले के अन्दर जो कुछ हुआ था और कृष्णा जिन्न ने जो कुछ काम किया था वह सब भी कहा!
पलंग पर पड़े राजा गोपालसिंह भूतनाथ की कुल बातें सुन गए और जब वह चुप हो गया तो उठकर एक ऊंची गद्दी पर जा बैठे जो पलंग के पास ही बिछी हुई थी। थोड़ी ही देर तक कुछ सोचने के बाद वे बोले, “हां तो इस ढंग से मालूम हुआ कि तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी है।”
भूत - जी हां, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी।
गोपाल - यह हाल बड़ा ही दिलचस्प है, अच्छा कृष्णा जिन्न की चीठी मुझे दो, मैं देखूं।
भूत - (चीठी देकर) आशा है कि इसमें कोई बात मेरे विरुद्ध लिखी हुई न होगी।
गोपाल - (चीठी देखकर) नहीं, इसमें तो तुम्हारी सिफारिश की है और मुझे मदद देने के लिए लिखा है।
भूत - कृष्णा जिन्न को आप जानते हैं?
गोपाल - वह मेरा दोस्त है, लड़कपन ही से मैं उसे जानता हूं, उसे मेरे कैद होने की कुछ भी खबर न थी, पांच-सात दिन हुए हैं जब वह मुबारकबाद देने के लिए मेरे पास आया था।
भूत - तो मैं उम्मीद करता हूं कि इस काम में आप मेरी मदद करेंगे!
गोपाल - हां-हां, मैं इस काम में हर तरह से मदद देने के लिए तैयार हूं क्योंकि यह काम वास्तव में मेरा ही काम है, मगर मेरी समझ में नहीं आता कि क्या मदद कर सकूंगा क्योंकि मुझे इन बातों की कुछ भी खबर न थी और न है।
भूत - जिस तरह की मदद मैं चाहता हूं, अर्ज करूंगा, मगर उसके पहिले मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या आप राजा वीरेन्द्रसिंह और कमलिनी इत्यादि से मिलने के लिए रोहतासगढ़ जायेंगे?
गोपाल - जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह मुझे न बुलावेंगे मैं अपनी मर्जी से न जाऊंगा और न मुझे कमलिनी या लक्ष्मीदेवी से मिलने की जल्दी ही है, जब तुत्हारे मुकद्दमे का फैसला हो जायगा तब जैसा होगा देखा जायगा।
गोपालसिंह की बात सुनकर भूतनाथ को बड़ा ताज्जुब हुआ क्योंकि लक्ष्मीदेवी की खबर सुनकर न तो उनके चेहरे पर किसी तरह की खुशी दिखाई दी और न बलभद्रसिंह का हाल सुनकर उन्हें रंज ही हुआ। कमरे के अन्दर पैर रखते ही भूतनाथ ने जिस शान्त भाव से उन्हें देखा था वैसी ही सूरत में अब भी देख रहा था। आखिर बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद भूतनाथ ने कहा, “अपने खास बाग में मायारानी के कमरे की तलाशी ली थी?'
गोपाल - तुम भूलते हो। खास बाग के किसी कमरे या कोठरी की तलाशी लेने से कोई काम नहीं चल सकता। या तो तुम हेलासिंह के किसी पक्षपाती को जो उस काम में शरीक रहा हो गिरफ्तार करो या दारोगा कम्बख्त को दुःख देकर पूछो, मगर अफसोस इतना ही है कि दारोगा राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है और उसके विषय में उनको कुछ लिखना मैं पसन्द नहीं करता।
गोपालसिंह की इस बात से भूतनाथ को और भी आश्चर्य हुआ और उसने कहा, “तलाशी से मेरा और कोई मतलब नहीं है, मुझे ठीक पता लग चुका है कि मायारानी के पास तस्वीरों की एक किताब थी और उसमें उन लोगों की तस्वीरें थीं जो इस काम में उसके मददगार थे, बस मेरा मतलब उसी किताब के पाने से है और कुछ नहीं।”
गोपाल - हां ठीक है, मुझे इस प्रकार की एक किताब मिली थी मगर उस समय बड़े क्रोध में था इसलिए कम्बख्त नकली मायारानी का असबाब कपड़ा-लत्ता इत्यादि जो कुछ मेरे हाथ लगा उसी में उस तस्वीर वाली किताब को भी रखकर मैंने आग लगा दी, मगर अब मुझे यह जानकर अफसोस होता है कि वह किताब बड़े मतलब की थी।
अब भूतनाथ को निश्चय हो गया कि राजा गोपालसिंह मुझसे बहाना करते हैं और मेरी मदद करना नहीं चाहते। तब क्या करना चाहिए इसके लिए भूतनाथ सिर झुकाए हुए कुछ सोच रहा था कि राजा गोपालसिंह ने कहा -
गोपाल - मगर भूतनाथ मुझे याद पड़ता है कि तस्वीर वाली किताब में तुम्हारी तस्वीर भी थी!
भूत - शायद हो।
गोपाल - खैर अब तो वह किताब ही जल गई, उसके बारे में कुछ भी कहना वृथा है।
भूत - (उदासी के साथ) मेरी किस्मत, मैं लाचार हूं। बस मदद के लिए केवल एक ही किताब थी जिसे पाने की उम्मीद में मैं आपके पास आया था, खैर अब जाता हूं, जो कुछ हैरानी बदी है उसे उठाऊंगा और जिस तरह बनेगा असल बलभद्रसिंह का पता लगाऊंगा।
गोपाल - मैं जानता हूं कि इस समय जमानिया के बाहर होकर तुम कहां जाओगे और बलभद्रसिंह का पता क्योंकर लगाओंगे, क्या करोगे!
भूत - (ताज्जुब से) वह क्या?
गोपाल - बस काशी में मनोरमा का मकान तुम्हारा सबसे पहिला ठिकाना होगा।
भूत - बस-बस ठीक है, आपने खूब समझा और अब मुझे विश्वास हो गया कि इस काम में आप मेरी बहुत कुछ मदद कर सकते हैं मगर आश्चर्य है कि आप किसी तरह की सहायता नहीं करते।
गोपाल - खैर अब हम तुमसे साफ-साफ कह देना ही अच्छा समझते हैं। कृष्णा जिन्न से और मुझसे निःसन्देह दोस्ती थी और वह अब भी मुझसे प्रेम रखता है। मगर किसी कारण से मेरी तबियत उससे खट्टी हो गई और मैं कसम खा चुका हूं कि जिस काम में वह पड़ेगा उसमें मैं दखल न दूंगा चाहे वह काम मेरे ही फायदे का क्यों न हो या मदद न देने के सबब से मेरा कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न हो या मेरी जान ही क्यों न चली जाये। बस यही सबब है कि मैं तुम्हारी मदद नहीं करता।
भूत - (कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं जाऊं और बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए उद्योग करूं।
गोपाल - जाओ, ईश्वर तुम्हारी मदद करे।
भूतनाथ सलाम करके कमरे के बाहर चला गया। उसके जाने के बाद गोपालसिंह को हंसी आई और उन्होंने आप ही आप धीरे से कहा, “इसने जरूर सोचा होगा कि गोपालसिंह पूरा बेवकूफ या पागल है!”
भूतनाथ महल की ड्योढ़ी पर आया जहां अपने साथी को छोड़ गया था और उसे साथ लेकर शहर के बाहर निकल गया। जब वे दोनों आदमी मैदान में पहुंचे जहां चारों तरफ सन्नाटा था तो भूतनाथ के साथी ने पूछा, “कहिये राजा गोपालसिंह की मुलाकात का क्या नतीजा निकला?'
भूत - कुछ भी नहीं, मैं व्यर्थ ही आया।
आदमी - सो क्या?
भूत - उन्होंने किसी प्रकार की मदद देने से इनकार किया।
आदमी - बड़े आश्चर्य की बात है, यह काम तो वास्तव में उन्हीं का है।
भूत - सब-कुछ है मगर...।
आदमी - तो क्या लक्ष्मीदेवी का पता लगने से खुश नहीं हैं?
भूत - मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि वे खुश हैं या नाराज, न तो उनके चेहरे पर किसी तरह की खुशी दिखाई दी, न रंज। हंसना तो दूर रहा वे लक्ष्मीदेवी, बलभद्रसिंह, मायारानी और कृष्णा जिन्न का किस्सा सुनकर मुस्कुराये भी नहीं, यद्यपि कई बातें ऐसी थीं जिन्हें सुनकर उन्हें अवश्य हंसना चाहिए था।
आदमी - क्या उनके मिजाज में कुछ फर्क पड़ गया है!
भूत - मालूम तो ऐसा ही होता है, बल्कि मैं समझता हूं कि वे पागल हो गये हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि “राजा वीरेन्द्रसिंह या लक्ष्मीदेवी से मिलने के लिए आप रोहतासगढ़ जायेंगे?' तो उन्होंने कहा, “नहीं, जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह न बुलावेंगे मैं न जाऊंगा।” भला यह भी कोई बुद्धिमानी की बात है!
आदमी - मालूम होता है, वे सनक गये हैं।
भूत - या तो वे सनक ही गये हैं और या फिर कोई भारी धूर्तता करना चाहते हैं। खैर जाने दो, इस समय तो भूतनाथ स्वतन्त्र है फिर जो होगा देखा जायगा। अब मुझे किसी ठिकाने बैठकर अपने आदमियों का इन्तजार करना चाहिए।
आदमी - तब उसी कुटी में चलिए, किसी न किसी से मुलाकात हो ही जायगी।
भूत - (हंसकर) अच्छा देखो तो सही भूतनाथ क्या-क्या करता है और कैसे-कैसे खेल-तमाशे दिखाता है।