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चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 9

महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके ऐयारों के सामने एक नकाबपोश ने दोनों कुमारों का हाल इस तरह बयान करना शुरू किया –

नकाब - कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने भी उन पांचों कैदियों के साथ रात को उसी बाग में गुजारा किया। सबेरा होने पर मामूली कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाई उसी बीच वाले बुर्ज के पास गये और चबूतरे वाले पत्थरों को गौर से देखने लगे। उन पत्थरों में कहीं-कहीं अंक और अक्षर भी खुदे हुए थे, उन्हीं अंकों को देखते-देखते इन्द्रजीतसिंह ने एक चौखूटे पत्थर पर हाथ रक्खा और आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा, “बस इसी पत्थर को उखाड़ना चाहिए।” इसके जवाब में आनन्दसिंह ने “जी हां” कहा और तिलिस्मी खंजर की नोक से टुकड़े को उखाड़ डाला।

पत्थर के नीचे एक छोटा-सा चौखूटा कुण्ड बना हुआ था और उस कुण्ड के बीचोंबीच में लोहे की एक गोल कड़ी लगी थी जिसे कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने खींचना शुरू किया। उस कड़ी के साथ लोहे की पचीस-तीस हाथ लम्बी जंजीर लगी हुई थी जो बराबर खिंचती हुई चली आई और जब वह रुक गई अर्थात् अपनी हद तक खिंचकर बाहर निकल आई तब उस चबूतरे के चारों तरफ का निचला पत्थर आप से आप उखड़कर जमीन के साथ लग गया और उसके अन्दर जाने के लिए दो रास्ते दिखाई देने लगे। इनमें से एक रास्ता नीचे तहखाने में उतर जाने के लिए था और दूसरा बुर्ज के ऊपर चढ़ने के लिए।

दोनों कुमार पहिले बुर्ज के ऊपर चढ़ गये और वहां से चारों तरफ की बहार देखने लगे। खास बाग के कुछ हिस्से और उनके कई तरफ की मजबूत दीवारें तथा कुछ इमारत और पेड़-पत्ते इत्यादि दिखाई दे रहे थे। उन सभों को गौर से देखने के बाद कुमार नीचे उतर आये और उन पांचों कैदियों को यह कहकर कि तुम लोग इसी बाग में रहो, खबरदार 'नीचे न उतरना' दोनों भाई तहखाने में उतर गए।

नीचे उतरने के लिए चक्करदार ग्यारह सीढ़ियां थीं जिन्हें तै करने के बाद वे दोनों एक लम्बे-चौड़े कमरे में पहुंचे। वहां बिल्कुल अन्धकार था, मगर तिलिस्मी खंजर की रोशनी करने पर वहां की सब चीजें साफ दिखाई देने लगीं। वह कमरा लम्बाई में बीस हाथ और चौड़ाई में पन्द्रह हाथ से ज्यादे न होगा। उसके बीचों-बीच में लोहे का एक चबूतरा था और उसके ऊपर लोहे ही का एक शेर बैठा हुआ था जिसकी चमकदार आंखें उसके भयानक चेहरे के साथ ही साथ देखने वालों के दिल पर खौफ पैदा कर सकती थीं। उसके सामने जमीन पर लोहे का एक हथौड़ा पड़ा हुआ था। बस इसके अतिरिक्त उस कमरे में और कुछ भी न था। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने उस शेर के सिर को अच्छी तरह टटोलना शुरू किया।

उस शेर के दाहिने कान की तरफ केवल एक अंगुली जाने लायक छोटा-सा गड़हा था। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपनी जेब में से एक चमकदार चीज निकालकर उस गड़हे में फंसाने के बाद शेर के सामने वाला हथौड़ा जमीन से उठाकर उसी से वह चमकदार चीज (कील) एक ही चोट में ठोंक दी और इसके बाद तुरत ही दोनों भाई उस तहखाने के बाहर निकल आये।

वह चमकदार चीज जो शेर के सिर में ठोंकी गई थी क्या थी, इसे आप लोग जानते होंगे। यह वही चमकदार चीज थी जो कुंअर इन्द्रजीतसिंह को बाग के उस तहखाने में एक पुतले के पेट में से मिली थी जिसमें वे कुंअर आनन्दसिंह को खोजते हुए गये थे।

जब दोनों कुमार तहखाने के बाहर निकल आये, उसके थोड़ी ही देर बाद जमीन के अन्दर से धमधमाहट और धड़धड़ाहट की आवाज आने लगी जिससे वे पांचों कैदी बहुत ही ताज्जुब और घबड़ाहट में आ गये। मगर कुमार ने उन्हें समझाकर शान्त किया और कुछ खाने-पीने की फिक्र में लगे। पहर भर बाद वह आवाज बन्द हुई और तब तक कुमार भी हर तरह से निश्चिन्त हो गये। दो पहर दिन ढलने के बाद पांचों कैदियों को साथ लिये हुए दोनों कुमार पुनः तहखाने के अन्दर उतरे। जब उस कमरे में पहुंचे तो वहां शेर और चबूतरे का नाम-निशान भी न पाया, हां उसके बदले में उस जगह एक गड़हा देखा जिसमें उतरने के लिए छः-सात सीढ़ियां बनी हुई थीं। कैदियों को भी साथ लिए और तिलिस्मी खंजर की रोशनी किए हुए दोनों कुमार इस सुरंग में घुसे और लगभग पचास कदम जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुंचे। यह कमरा भी पहिले ही कमरे के बराबर था और इसके सामने की दीवार में पुनः आगे जाने के लिए एक सुरंग का मुहाना नजर आ रहा था अर्थात् इस कमरे को लांघकर पुनः आगे बढ़ जाने के लिए भी सामने की तरफ सुरंग दिखाई दे रही थी।

यह कमरा पहिले की तरह खाली या सुनसान न था। इसमें तरह-तरह की बेशकीमत चीजों तथा हर्बे, जवाहिरात और अशर्फियों के भी जगह-जगह ढेर लगे हुए थे जिन्हें देखकर उन पांचों कैदियों में से एक ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, “यह इतनी बड़ी रकम यहां किसके लिए रक्खी हुई है?'

इन्द्र - यह सब दौलत हमारे लिए रक्खी हुई है, केवल इतनी ही नहीं बल्कि इसी तरह और भी कई जगह इससे भी बढ़के अच्छी-अच्छी और कीमती चीजें दिखाई देंगी।

कैदी - इन चीजों को आप क्योंकर बाहर निकालेंगे?

इन्द्र - जब हम लोग तिलिस्म तोड़ते हुए चुनारगढ़ पहुंचेंगे तब ये सब चीजें निकलवा ली जायंगी।

कैदी - तब तक इसी तरह ज्यों-की-त्यों पड़ी रहेंगी?

इन्द्र - हां।

इस कमरे में चारों तरफ की दीवारों के साथ तरह-तरह के बेशकीमत हर्बे लटक रहे थे जिन पर इस खयाल से कि जंग इत्यादि लगकर खराब न हो जायं, एक किस्म का मोमी रोगन लगा हुआ था। नीचे दो सन्दूक जड़ाऊ जेवरों से भरे हुए थे जिनमें ताले लगे हुए न थे। इसके अतिरिक्त सोने के बहुत-से जड़ाऊ खुशनुमा और नाजुक बर्तन भी दिखाई दे रहे थे।

इन चीजों को देख-भालकर कुमार आगे बढ़े और सुरंग के दूसरे मुहाने में घुसकर दूर तक चले गए। अबकी दफे का सफर सीधा न था बल्कि घूम-घुमौवा था। लगभग दो या डेढ़ कोस जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुंचे। पहिले कमरे की तरह इसमें भी आमने-सामने दोनों तरफ सुरंग बनी हुई थी।

इस कमरे में सोने-चांदी या जवाहिरात की कोई चीज न थी, हां दीवारों पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें लटक रही थीं जो एक किस्म के रोगनी कपड़े पर जिस पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं पहुंच सकता था, बनी हुई थीं। इन तस्वीरों में रोहतासगढ़ और चुनार की तस्वीरें ज्यादे थीं और तरह-तरह के नक्शे भी जगह-जगह लटक रहे थे जिन्हें बड़े गौर से दोनों कुमार देर तक देखते रहे।

इस कमरे की कैफियत को देखके इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, “मालूम होता है, 'ब्रह्म-मण्डल' यही है, इसी जगह हम लोगों को बराबर आना पड़ेगा, तथा चुनारगढ़ के तिलिस्म की चाभी भी इसी जगह से हमें मिलेगी।”

आनन्द - बेशक यही बात है, इस जगह के 'ब्रह्म-मण्डल' होने में कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता।

इन्द्र - फिर अब तुम्हारी क्या राय है इस समय यहां कुछ काम किया जाय या नहीं क्योंकि इस काम को हम लोग अपनी इन्छानुसार कर सकते हैं।

आनन्द - मेरी राय में तो इस समय यहां कोई काम न करना चाहिए क्योंकि (कैदियों की तरफ इशारा करके) इन लोगों को तकलीफ होगी, पहिले इन लोगों को तिलिस्म के बाहर कर देना उचित होगा, फिर हम लोग यहां आकर अपना काम किया करेंगे।

इन्द्र - मैं भी यही उचित समझता हूं, इसके अतिरिक्त हम लोगों को यहां कई दफे आने की जरूरत पड़ेगी अस्तु इस समय अगर यहां अटककर कोई काम करेंगे तो बाहर निकलने में बहुत देर हो जायगी और हम भी परेशान और दुखी हो जायेंगे।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह आगे की तरफ बढ़े और सभों को लिए सामने वाली सुरंग में घुसे। अबकी दफे दोनों कुमारों और कैदियों को बहुत ज्यादे चलना पड़ा और साथ ही इसके भूख-प्यास की भी तकलीफ उठानी पड़ी। कई कोस का सफर करने के बाद जब वे लोग सुरंग के बाहर निकले तो सुबह की सफेदी आसमान पर फैल चुकी थी इसलिए दोनों कुमारों ने अन्दाज से समझा कि अबकी दफे हम लोग चौदह या पन्द्रह घण्टे तक बराबर चलते रहे और जमानिया को बहुत दूर छोड़ आये।

सुरंग के बाहर निकलकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने जिस सरजमीन में अपने को पाया वह एक बहुत ही दिलचस्प और सुहावनी घाटी थी। चारों तरफ कम ऊंची सुन्दर और हरी-भरी पहाड़ियों के बीच में सरसब्ज मैदान था जिसके बीच में बरसाती पानी से बचने के लिए एक स्थान भी बना हुआ था। इस सरजमीन को इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने बहुत ही पसन्द किया और इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखकर कहा, “अब तुम लोग अपने को आजाद और तिलिस्मी कैदखाने से बाहर निकला हुआ समझो, थोड़ी देर में हम लोग तुम्हें इस घाटी से बाहर पहुंचा देंगे फिर जहां तुम लोगों की इच्छा हो चले जाना।”

इसके जवाब में इन कैदियों ने हाथ जोड़कर कहा - “अब हम लोग इन चरणों को छोड़ नहीं सकते! यद्यपि अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए हम लोग बेताब हो रहे हैं परन्तु हमारी यह अभिलाषा भी आपकी कृपा के बिना पूरी नहीं हो सकती अस्तु हम लोग आपके साथ ही साथ राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में चलने की इच्छा रखते हैं।”

दोनों कुमारों ने उनकी प्रार्थना मंजूर कर ली और इसके बाद जो कुछ अनूठी कार्रवाई उन लोगों ने की, दूसरे दिन बयान करूंगा।

इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और अपने घर जाने की इच्छा से राजा साहब का मुंह देखने लगा। यद्यपि महाराज इसके आगे भी इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुना चाहते थे परन्तु इस समय नकाबपोशों को छुट्टी दे देना ही उचित जानकर घर जाने की इजाजत दे दी और दरबार बर्खास्त किया।

चंद्रकांता संतति

देवकीनन्दन खत्री
Chapters
चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 10 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चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 16 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 17 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 2 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