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चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 1

अब हम अपने पाठकों को पुनः जमानिया के तिलिस्म में ले चलते हैं और इन्दिरा का बचा हुआ किस्सा उसी की जुबानी सुनवाते हैं जिसे छोड़ दिया गया था।

इन्दिरा ने एक लम्बी सांस लेकर अपना किस्सा यों कहना शुरू किया –

इन्दिरा - जब मैं अपनी मां की लिखी चिट्ठी पढ़ चुकी तो जी में खुश होकर सोचने लगी कि ईश्वर चाहेगा तो अब मैं बहुत जल्द अपनी मां से मिलूंगी और हम दोनों को इस कैद से छुटकारा मिलेगा, अब केवल इतनी ही कसर है कि दारोगा साहब मेरे पास आवें और जो कुछ वे कहें मैं उसे पूरा कर दूं। थोड़ी देर तक सोचकर मैंने अन्ना से कहा, “अन्ना, जो कुछ दारोगा साहब कहें उसे तुरन्त करना चाहिए।”

अन्ना - नहीं बेटी, तू भूलती है, क्योंकि इन चालबाजियों को समझने लायक अभी तेरी उम्र नहीं है। अगर तू दारोगा के कहे मुताबिक काम कर देगी तो तेरी मां और साथ ही उसके तू भी मार डाली जायेगी, क्योंकि इस बात में कोई सन्देह नहीं कि दारोगा ने तेरी मां से जबर्दस्ती यह चिट्ठी लिखवाई है।

मैं - तब तुमने इस चिट्ठी के बारे में यह कैसे कहा कि मैं तेरे लिए खुशखबरी लाई हूं?

अन्ना - खुशखबरी से मेरा मतलब यह न था कि अगर तू दारोगा के कहे मुताबिक काम कर देगी तो तुझे और तेरी मां को कैद से छुट्टी मिल जायेगी बल्कि यह था कि तेरी मां अभी तक जीती-जागती है इसका पता लग गया। क्या तुझे यह मालूम नहीं कि स्वयम् दारोगा ही ने तुझे कैद किया है?

मैं - यह तो मैं खुद तुझसे कह चुकी हूं कि दारोगा ने मुझे धोखा देकर कैद कर लिया है।

अन्ना - तो क्या तुझे छोड़ देने से दारोगा की जान बच जायगी क्या दारोगा साहब इस बात को नहीं समझते कि अगर तू छूटेगी तो सीधे राजा गोपालसिंह के पास चली जायेगी और अपना तथा लक्ष्मीदेवी का भेद उनसे कह देगी उस समय दारोगा का क्या हाल होगा।

मैं - ठीक है, दारोगा मुझे कभी न छोड़ेगा।

अन्ना - बेशक कभी न छोड़ेगा। वह कम्बख्त तो अब तक तुझे मार डाले होता, मगर अब निश्चय हो गया कि उसे तुम दोनों से अपना कुछ मतलब निकालना है इसीलिए अभी तक कैद किये हुए है। जिस दिन उसका काम हो जायगा उसी दिन तुम दोनों को मार डालेगा। जब तक उसका काम नहीं होता तभी तक तुम दोनों की जान बची है। (चिट्ठी की तरफ इशारा करके) यह चिट्ठी उसने इसी चालाकी से लिखवाई है जिससे तू उसका काम जल्द कर दे।

मैं - अन्ना, तू सच कहती है, अब मैं दारोगा का काम कभी न करूंगी चाहे जो हो।

अन्ना - अगर तू मेरे कहे मुताबिक करेगी तो निःसन्देह तुम दोनों की जान बच रहेगी और किसी न किसी दिन तुम दोनों को कैद से छुट्टी भी मिल जायगी।

मैं - बेशक जो तू कहेगी वही मैं करूंगी।

अन्ना - मगर मैं डरती हूं कि अगर दारोगा तुझे धमकाएगा या मारे-पीटेगा तो तू मार खाने के डर से उसका काम जरूर कर देगी।

मैं - नहीं-नहीं, कदापि नहीं, अगर वह मेरी बोटी-बोटी काटकर फेंक दे तो भी मैं तेरे कहे बिना उसका कोई भी काम नहीं करूंगी।

अन्ना - ठीक है, मगर साथ ही इसके यह भी कह न दीजियो कि अन्ना कहेगी तो मैं तेरा काम कर दूंगी।

मैं - नहीं सो तो न कहूंगी मगर कहूंगी क्या सो तो बताओ?

अन्ना - बस जहां तक हो टालमटोल करती जाइयो, आज-कल के वादे पर दो-तीन दिन टाल जाना चाहिए, मुझे आशा है कि इस बीच में हम लोग छूट जायेंगे।

सुबह की सफेदी खिड़कियों में दिखाई देने लगी और दरवाजा खोलकर दारोगा कमरे के अन्दर आता हुआ दिखाई दिया, वह सीधे आकर बैठ गया और बोला, “इन्दिरा, तू समझती होगी कि दारोगा साहब ने मेरे साथ दगाबाजी की और मुझे गिरफ्तार कर लिया, मगर मैं धर्म की कसम खाकर कहता हूं कि वास्तव में यह बात नहीं है, बल्कि सच तो यों है कि स्वयं राजा गोपालसिंह तेरे दुश्मन हो रहे हैं। उन्होंने मुझे हुक्म दिया था कि इन्दिरा को गिरफ्तार करके मार डालो, और उन्हीं की आज्ञानुसार मैं उनके कमरे मैं बैठा हुआ तुझे गिरफ्तार करने की तर्कीब सोच रहा था कि यकायक तू आ गई और मैंने तुझे गिरफ्तार कर लिया। मैं लाचार हूं कि राजा साहब का हुक्म टाल नहीं सकता मगर साथ ही इसके जब तुझे मारने का इरादा करता हूं तो मुझे दया आ जाती है और तेरी जान बचाने की तर्कीब सोचने लगता हूं। तुझे इस बात का ताज्जुब होगा कि गोपालसिंह तेरे दुश्मन क्यों हो गये, मगर मैं तेरा यह शक भी मिटाये देता हूं। असल बात यह है कि राजा साहब को लक्ष्मीदेवी के साथ शादी करना मंजूर न था और जिस खूबसूरत औरत के साथ वे शादी किया चाहते थे वह विधवा हो चुकी थी और लोगों की जानकारी में वे उसके साथ शादी नहीं कर सकते थे इसलिये लक्ष्मीदेवी के बदले में यह दूसरी औरत उलटफेर कर दी गई। उनकी आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी तो मार डाली गई मगर उन लोगों को भी चुपचाप मार डालने की आज्ञा राजा साहब ने दे दी जिन्हें यह भेद मालूम हो चुका था या जिनकी बदौलत इस भेद के खुल जाने का डर था। तेरे सबब से भी लक्ष्मीदेवी का भेद अवश्य खुल जाता इसीलिए तू भी उनकी आज्ञानुसार कैद कर ली गई।”

गोपाल - (क्रोध से) क्या कम्बख्त दारोगा ने तुझे इस तरह समझाया-बुझाया?

इन्दिरा - जी हां, और यह बात उसने ऐसे ढंग से अफसोस के साथ कही कि मुझे और मेरी अन्ना को भी थोड़ी देर के लिए उसकी बातों पर पूरा विश्वास हो गया, बल्कि वह उसके बाद भी बहुत देर तक आपकी शिकायत करता रहा।

गोपाल - और मुझे वह बहुत दिनों तक तेरी बदमाशी का विश्वास दिलाता रहा था। अस्तु अब मुझे मालूम हुआ कि तू मेरा सामना करने से क्यों डरती थी। अच्छा तब क्या हुआ!

इन्दिरा - दारोगा की बात सुनकर अन्ना ने उससे कहा कि जब आपको इन्दिरा पर दया आ रही है तो कोई ऐसी तर्कीब निकालिये जिसमें इस लड़की और इसकी मां की जान बच जाय।

दारोगा - मैं खुद इसी फिक्र में लगा हुआ हूं। इसकी मां को बदमाशों ने गिरफ्तार कर लिया था मगर ईश्वर की कृपा से वह बच गई, मैंने उसे शैतानों के हाथ से बचा लिया।

अन्ना - मगर वह भी लक्ष्मीदेवी को पहिचानती है और उसकी बदौलत लक्ष्मीदेवी का भेद खुल जाना सम्भव है।

दारोगा - हां ठीक है, मगर इसके लिए भी मैंने एक बन्दोबस्त कर लिया है।

अन्ना - वह क्या?

दारोगा - (एक चिट्ठी दिखाकर) देख सर्यू से मैंने यह चिट्ठी लिखवा ली है, पहिले इसे पढ़ ले।

मैंने और अन्ना ने वह चिट्ठी पढ़ी। उसमें यह लिखा हुआ था - “मेरी प्यारी लक्ष्मीदेवी, मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि तेरे ब्याह के समय मैं न आ सकी! इसका बहुत बड़ा कारण है जो मुलाकात होने पर तुमसे कहूंगी, मगर अपनी बेटी इन्दिरा की जुबानी यह सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई कि वह ब्याह के समय तेरे पास थी, बल्कि ब्याह होने के एक दिन बाद तक तेरे साथ खेलती रही।”

जब मैं चिट्ठी पढ़ चुकी तो दारोगा ने कहा कि बस अब तू भी एक चिट्ठी लक्ष्मीदेवी के नाम से लिख दे और उसमें यह लिख कि “मुझे इस बात का रंज है कि तेरी शादी होने के बाद एक दिन से ज्यादे मैं तेरे पास न रह सकी मगर मैं तेरी उस छवि को नहीं भूल सकती जो ब्याह के दूसरे दिन देखी थी।” मैं ये दोनों चीठियां राजा गोपालसिंह को दूंगा और तुम दोनों को छोड़ देने के लिए उनसे जिद्द करके उन्हें समझा दूंगा कि, “अब सर्यू और इन्दिरा की जुबानी लक्ष्मीदेवी का भेद कोई नहीं सुन सकता, अगर ये दोनों कुछ कहेंगी तो इन चीठियों के मुकाबिले में स्वयं झूठी बनेंगी।”

मैंने दारोगा की बातों का यह जवाब दिया कि, “बात तो आपने बहुत ठीक कही, अच्छा मैं आपके कहे मुताबिक चिट्ठी कल लिख दूंगी।”

दारोगा - यह काम देर करने का नहीं है, इसमें जहां तक जल्दी करोगी वहां तक तुम्हें छुट्टी जल्दी मिलेगी।

मैं - ठीक है मगर इस समय मेरे सिर में बहुत दर्द है, मुझसे एक अक्षर भी न लिखा जायगा।

दारोगा - अच्छा क्या हर्ज है, कल सही।

इतना कहकर दारोगा कमरे से बाहर चला गया और फिर मुझसे और अन्ना में बातचीत होने लगी। मैंने अन्ना से कहा, “क्यों अन्ना, तू समझती है मुझे तो दारोगा की बात सच जान पड़ती है?'

अन्ना - (कुछ सोचकर) जैसी चिट्ठी दारोगा तुमसे लिखाया चाहता है वह केवल इस योग्य ही नहीं कि यदि राजा गोपालसिंह दोषी है तो लोकनिन्दा से उनको बचावे बल्कि वह चिट्ठी बनिस्बत उनके दारोगा के काम की ज्यादे होगी, अगर वह स्वयं दोषी है तो।

मैं - ठीक है मगर ताज्जुब की बात है कि जो राजा साहब मुझे अपनी लड़की से बढ़कर मानते थे वे ही मेरी जान के ग्राहक बन जायें!

अन्ना - कौन ठिकाना कदाचित ऐसा ही हो।

मैं - अच्छा तो अब क्या करना चाहिए?

अन्ना - (कुछ सोचकर) चिट्ठी तो कभी न लिखनी चाहिए चाहे राजा गोपालसिंह दोषी हों या दारोगा दोषी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि चिट्ठी लिख देने के बाद तू मार डाली जायगी।

अन्ना की बात सुनकर मैं रोने लगी और समझ गई कि अब मेरी जान नहीं बचती और ताज्जुब नहीं कि दारोगा के मतलब की चिट्ठी लिख देने के कारण मेरी मां इस दुनिया से उठा दी गई हो। थोड़ी देर तक तो अन्ना ने रोने में मेरा साथ दिया लेकिन इसके बाद उसने अपने को सम्हाला और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। कुछ देर के बाद अन्ना ने मुझसे कहा कि “बेटी, मुझे कुछ आशा हो रही है कि हम लोगों को इस कैदखाने से निकल जाने का रास्ता मिल जायगा। मैं पहिले कह चुकी हूं और अब भी कहती हूं कि रात को (कोठरी की तरफ इशारा करके) उस कोठरी में सिर पर से गठरी फेंक देने की तरह धमाके की आवाज सुनकर मैं जाग उठी थी और जब उस कोठरी में गई तो वास्तव में एक गठरी पर निगाह पड़ी। अब जो मैं सोचती हूं तो विश्वास होता है कि उस कोठरी में कोई ऐसा दरवाजा जरूर है कि जिसे खोलकर बाहर वाला उस कोठरी में आ सके या उसमें से बाहर जा सके। इसके अतिरिक्त इस कोठरी में भी तख्तेबन्दी की दीवार है जिससे कहीं-न-कहीं दरवाजा होने का शक हर एक ऐसे आदमी को हो सकता है जिस पर हमारी तरह मुसीबत आई हो, अस्तु आज का दिन तो किसी तरह काट ले रात को मैं दरवाजा ढूंढ़ने का उद्योग करूंगी।”

अन्ना की बातों से मुझे भी कुछ ढाढ़स हुई। थोड़ी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला और कई तरह की चीजें लिये हुए तीन आदमी कमरे के अन्दर आ पहुंचे। एक के हाथ में पानी का भरा घड़ा-लोटा और गिलास था, दूसरा कपड़े की गठरी लिये हुए था, तीसरे के हाथ में खाने की चीजें थीं। तीनों ने सब चीजें कमरे में रख दीं और पहिले की रक्खी हुई चीजें और चिरागदान वगैरह उठा ले गये और जाते समय कह गये कि 'तुम लोग स्नान करके खाओ-पीओ, तुम्हारे मतलब की सब चीजें मौजूद हैं'।

ऐसी मुसीबत में खाना-पीना किसे सूझता है, परन्तु अन्ना के समझाने-बुझाने से जान बचाने के लिए सब-कुछ करना पड़ा। तमाम दिन बीत गया, संध्या होने पर फिर हमारे कमरे के अन्दर खाने-पीने का सामान पहुंचाया गया और चिराग भी जलाया गया मगर रात को हम दोनों ने कुछ भी न खाया।

कैदखाने से निकल भागने की धुन में हम लोगों को नींद बिल्कुल न आई। शायद आधी रात बीती होगी जब अन्ना ने उठकर कमरे का वह दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया जिस राह से वे लोग आते थे, और इसके बाद मुझे उठने और अपने साथ उस कोठरी के अन्दर चलने के लिए कहा जिसमें से कपड़े की गठरी और मेरी मां के हाथ की लिखी हुई चिट्ठी मिली थीं। मैं उठ खड़ी हुई और अन्ना के पीछे-पीछे चली। अन्ना ने चिराग हाथ में उठा लिया और धीरे-धीरे कदम रखती हुई कोठरी के अन्दर गई। मैं पहिले बयान कर चुकी हूं कि उसके अन्दर तीन कोठरियां थीं, एक में पायखाना बना हुआ था और दो कोठरियां खाली थीं। उन दोनों कोठरियों के चारों तरफ की दीवारें भी तख्तों की थीं। अन्ना हाथ में चिराग लिए एक कोठरी के अन्दर गई और उन लकड़ी वाली दीवारों को गौर से देखने लगी। मालूम होता था कि दीवार कुछ पुराने जमाने की बनी हुई है क्योंकि लकड़ी के तख्ते खराब हो गये थे, और कई तख्तों को घुन ने ऐसा बरबाद कर दिया था कि एक कमजोर लात खाकर भी उनका बच रहना कठिन जान पड़ता था। यह सब-कुछ था मगर जैसा कि देखने में वह खराब और कमजोर मालूम होती थी वैसी वास्तव में न थी क्योंकि दीवार की लकड़ी पांच या छः अंगुल से कम मोटी न होगी, जिसमें से सिर्फ अंगुल-डेढ़ अंगुल के लगभग घुनी हुई थी। अन्ना ने चाहा कि लात मारकर एक-दो तख्तों को तोड़ डाले मगर ऐसा न कर सकी।

हम दोनों आदमी बड़े गौर से चारों तरफ की दीवार को देख रहे थे कि यकायक एक छोटे से कपड़े पर अन्ना की निगाह पड़ी जो लकड़ी के दो तख्तों के बीच में फंसा हुआ था। वह वास्तव में एक छोटा-सा रूमाल था, जिसका आधा हिस्सा तो दीवार के उस पार था और आधा हिस्सा हम लोगों की तरफ था। उस कपड़े को अच्छी तरह देखकर अन्ना ने मुझे कहा, “बेटी, देख यहां एक दरवाजा अवश्य है। (हाथ का निशान बताकर) यह चारों तरफ की दरार दरवाजे को साफ बता रही है। कोई आदमी इस तरफ आया है मगर लौटकर जाती दफे जब उसने दरवाजा बन्द किया तो उसका रूमाल इस में फंसकर रह गया, शायद अंधेरे में उसने इस बात का खयाल न किया हो, और देख इस कपड़े के फंस जाने के कारण दरवाजा भी अच्छी तरह बैठा नहीं है, ताज्जुब नहीं कि वह दरवाजा खटके पर बन्द होता हो और तखता अच्छी तरह न बैठने के कारण खटका भी बन्द न हुआ हो।”

वास्तव में जो कुछ अन्ना ने कहा वही बात थी क्योंकि जब उसने उस रूमाल को अच्छी तरह पकड़कर अपनी तरफ खेंचा तो उसके साथ लकड़ी का तख्ता भी खिंचकर हम लोगों की तरफ चला आया और दूसरी तरफ जाने के लिए रास्ता निकल आया। हम दोनों आदमी उस तरफ चले गये और एक कमरे में पहुंचे। उस लकड़ी के तख्ते में जो पेंच पर जड़ा हुआ था और जिसे हटाकर हम लोग उस पार चले गये थे दूसरी तरफ पीतल का एक मुट्ठा लगा हुआ था, अन्ना ने उसे पकड़कर खेंचा और वह दरवाजा जहां का तहां खट से बैठ गया। अब हम दोनों आदमी जिस कमरे में पहुंचे वह बहुत बड़ा था। सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा नजर आया और उसके पास जाने पर मालूम हुआ कि नीचे उतर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। दाहिनी और बाईं तरफ की दीवार में छोटी - छोटी कई खिड़कियां बनी हुई थीं, दाहिनी तरफ की खिड़कियों में से एक खिड़की कुछ खुली हुई थी, मैंने और अन्ना ने उसमें झांककर देखा तो एक मरातिब नीचे छोटा-सा चौक नजर आया जिसमें साफ-सुथरा फर्श लगा हुआ था। ऊंची गद्दी पर कम्बख्त दारोगा बैठा हुआ था, उसके आगे एक शमादान जल रहा था और उसके पास ही में एक आदमी कलम-दवात और कागज लिये बैठा हुआ था।

हम दोनों आदमी दारोगा की सूरत देखते ही चौंके और डरकर पीछे हट गये। अन्ना से धीरे से कहा, “यहां भी वही बला नजर आती है, ऐसा न हो कि वह कम्बख्त हम लोगों को देख ले या फिर ऊपर चढ़ आवे।”

इतना कहकर अन्ना सीढ़ी की तरफ चली गई और धीरे से सीढ़ी का दरवाजा खेंचकर जंजीर चढ़ा दी। वह चिराग जो अपने कमरे में से लेकर यहां तक आये थे एक कोने में रखकर हम दोनों फिर उसी खिड़की के पास गये और नीचे की तरफ झांककर देखने लगे कि दारोगा क्या कर रहा है। दारोगा के पास जो आदमी बैठा था उसने एक लिखा हुआ कागज हाथ में उठाकर दारोगा से कहा, “जहां तक मुझसे बन पड़ा मैंने इस चिट्ठी के बनाने में बड़ी मेहनत की।”

दारोगा - इसमें कोई शक नहीं कि तुमने ये अक्षर बहुत अच्छे बनाये हैं और इन्हें देखकर कोई यकायक नहीं कह सकता कि यह सर्यू का लिखा हुआ नहीं है। जब मैंने यह पत्र इन्दिरा को दिखाया तो उसे भी निश्चय हो गया कि यह उसकी मां के हाथ का लिखा हुआ है, मगर जो गौर करके देखता हूं तो सर्यू की लिखावट में और इसमें थोड़ा फर्क मालूम पड़ता है। इन्दिरा लड़की है, वह इस बात को नहीं समझ सकती, मगर इन्द्रदेव जब इस पत्र को देखेगा तो जरूर पहिचान जायगा कि सर्यू के हाथ का लिखा नहीं है बल्कि जाली बनाया गया है।

आदमी - ठीक है, अच्छा तो मैं इसके बनाने में एक दफे और मेहनत करूंगा, क्या करूं सर्यू की लिखावट ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी है कि ठीक नकल नहीं उतरती, तिसमें इस चिट्ठी में कई अक्षर ऐसे लिखने पड़े जो कि मेरे देखे हुए नहीं हैं केवल अन्दाज ही से लिखे हैं।

दारोगा - ठीक है, ठीक है, इसमें कोई शक नहीं कि तुमने बड़ी सफाई से इसे बनाया है, खैर एक दफे और मेहनत करो, मुझे आशा है कि अबकी दफे बहुत ठीक हो जायगा। (लम्बी सांस लेकर) क्या कहें, कम्बख्त सर्यू किसी तरह मानती ही नहीं। उसे मेरी बातों पर कुछ भी विश्वास नहीं होता, यद्यपि कल मैं उसे फिर दिलासा दूंगा, अगर उसने मेरे दाम में आकर अपने हाथ से चिट्ठी लिख दी तो इस काम को हो गया समझो नहीं तो पुनः मेहनत करनी पड़ेगी। सर्यू और इन्दिरा ने मेरे कहे मुताबिक चिट्ठी लिख दी तो मैं बहुत जल्द उन दोनों को मारकर बखेड़ा तै करूंगा क्योंकि मुझे गदाधरसिंह (भूतनाथ) का डर बराबर बना रहता है, वह सर्यू और इन्दिरा की खोज में लगा हुआ है और उसे घड़ी-घड़ी मुझी पर शक होता है। यद्यपि मैं उससे कसम खाकर कह चुका हूं कि मुझे दोनों का हाल कुछ भी मालूम नहीं है मगर उसे विश्वास नहीं होता। क्या करूं, लाखों रुपये दे देने पर भी मैं उसकी मुट्ठी में फंसा हुआ हूं, यदि उसे जरा भी मालूम हो जायगा कि सर्यू और इन्दिरा को मैंने कैद कर रक्खा है तो वह बड़ा ही ऊधम मचावेगा और मुझे बरबाद किये बिना न रहेगा।

आदमी - गदाधरसिंह तो मुझे आज भी मिला था।

दारोगा - (चौंककर) क्या वह फिर इस शहर में आया है! मुझसे तो कह गया था कि मैं दो-तीन महीने के लिये जाता हूं, मगर वह तो दो-तीन दिन भी गैरहाजिर न रहा।

आदमी - वह बड़ा शैतान है, उसकी बातों का कुछ भी विश्वास नहीं हो सकता और इसका जानना तो बड़ा ही कठिन है कि वह क्या करता है, क्या करेगा या किस धुन में लगा हुआ है।

दारोगा - अच्छा तो मुलाकात होने पर उससे क्या-क्या बात हुई?

आदमी - मैं अपने घर की तरफ जा रहा था कि उसने पीछे से आवाज दी, “ओ रघुबरसिंह, ओ जैपालसिंह!”1

दारोगा - बड़ा ही बदमाश है, किसी का अदब-लेहाज करना तो जानता ही नहीं! अच्छा तब क्या हुआ।

रघुबर - उसकी आवाज सुनकर मैं रुक गया, जब वह पास आया तो बोला, “आज आधी रात के समय मैं दारोगा साहब से मिलने जाऊंगा, उस समय तुम्हें भी वहां मौजूद रहना चाहिए।” बस इतना कहकर चला गया।

दारोगा - तो इस समय वह आता ही होगा!

रघुबर - जरूर आता होगा।

1. जैपालसिंह, बालासिंह और रघुबरसिंह ये सब नाम उसी नकली बलभद्रसिंह के हैं।

दारोगा - कम्बख्त ने नाकों दम कर दिया है।

इतने ही में बाहर से घंटी बजने की आवाज आई, जिसे सुन दारोगा से रघुबरसिंह ने कहा, “देखो दरबान क्या कहता है, मालूम होता है गदाधरसिंह आ गया।”

रघुबरसिंह उठकर बाहर गया और थोड़ी ही देर में गदाधरसिंह को अपने साथ लिये हुए दारोगा के पास आया। गदाधरसिंह को देखते ही दारोगा उठ खड़ा हुआ और बड़ी खातिरदारी और तपाक के साथ मिलकर उसे अपने पास बैठाया।

दारोगा - (गदाधरसिंह से) आप कब आये!

गदाधर - मैं गया कब और कहां था!

दारोगा - आप ही ने कहा था कि मैं दो-तीन महीने के लिए कहीं जा रहा हूं।

गदाधर - हां, कहा तो था मगर एक बहुत बड़ा सबब आ पड़ने से लाचार होकर रुक जाना पड़ा।

दारोगा - क्या वह सबब मैं भी सुन सकता हूं।

गदाधर - हां-हां आप ही के सुनने लायक तो वह सबब है। क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता तो आप ही हैं।

दारोगा - तो जल्द कहिये।

गदाधर - जाते ही जाते एक आदमी ने मुझे निश्चय दिलाया कि सर्यू और इन्दिरा आप ही के कब्जे में हैं अर्थात् आप ही ने उन्हें कैद करके कहीं छिपा रक्खा है।

दारोगा - (अपने दोनों कानों पर हाथ रखके) राम-राम! किस कम्बख्त ने मुझ पर यह कलंक लगाया नारायण-नारायण! मेरे दोस्त, मैं तुम्हें कई दफे कसमें खाकर कह चुका हूं कि सर्यू और इन्दिरा के विषय में कुछ भी नहीं जानता मगर तुम्हें मेरी बातों का विश्वास ही नहीं होता।

गदाधर - न मेरी बातों पर आपको विश्वास करना चाहिए और न आपकी कही हुई बातों को मैं ही ब्रह्मवाक्य समझ सकता हूं। बात यह है कि इन्द्रदेव को मैं अपने सगे भाई से बढ़कर समझता हूं, चाहे मैंने आपसे रिश्वत लेकर बुरा काम क्यों न किया हो मगर अपने दोस्त इन्द्रदेव को किसी तरह का नुकसान पहुंचने न दूंगा। आप सर्यू और इन्दिरा के बारे में बार-बार कसमें खाकर अपनी सफाई दिखाते हैं और मैं जब उन लोगों के बारे में तहकीकात करता हूं तो बार-बार यही मालूम पड़ता है कि वे दोनों आपके कब्जे में हैं, अस्तु आज मैं एक आखिरी बात आपसे कहने आया हूं, अबकी दफे आप खूब अच्छी तरह समझ-बूझकर जवाब दें।

दारोगा - कहो-कहो, क्या कहते हो? मैं सब तरह से तुम्हारी दिलजमई करा दूंगा...

गदाधर - आज मैं इस बात का निश्चय करके आया हूं कि इन्दिरा और सर्यू का हाल आपको मालूम है, अस्तु साफ-साफ कहे देता हूं कि यदि वे दोनों आपके कब्जे में हों तो ठीक-ठीक बता दीजिए, उनको छोड़ देने पर इस काम के बदले में जो कुछ आप कहें मैं करने को तैयार हूं लेकिन यदि आप इस बात से इनकार करेंगे और पीछे साबित होगा कि आप ही ने उन्हें कैद किया था तो मैं कसम खाकर कहता हूं कि सबसे बढ़कर बुरी मौत जो कही जाती है वही आपके लिए कायम की जायगी।

दारोगा - जरा जुबान सम्हालकर बातें करो। मैं तो दोस्ताना ढंग पर नरमी के साथ तुमसे बातें करता हूं और तुम तेज हुए जाते हो!

गदाधर - जी मैं आपके दोस्ताना ढंग को अच्छी तरह समझता हूं, अपनी कसमों का विश्वास तो उसे दिलाइए जो आपको केवल बाबाजी समझता हो! मैं तो आपको पूरा झूठा, बेईमान और विश्वासघाती समझता हूं और आपका कोई हाल मुझसे छिपा हुआ नहीं है। जब मैंने कलमदान आपको वापस किया था तब भी आपने कसम खाई थी कि तुम्हारे और तुम्हारे दोस्तों के साथ कभी किसी तरह की बुराई न करूंगा मगर फिर भी आप चालबाजी करने से बाज न आये!

दारोगा - यह सब-कुछ ठीक है मगर मैं जब एक दफे कह चुका कि सर्यू और इन्दिरा का हाल मुझे कुछ भी मालूम नहीं है तब तुम्हें अपनी बात पर ज्यादे खींच न करना चाहिए, हां अगर तुम इस बात को साबित कर सको तो जो कुछ कहो मैं जुर्माना देने के लिए तैयार हूं, यों अगर बेफायदे का तकरार बढ़ाकर लड़ने का इरादा हो तो बात ही दूसरी है। इसके अतिरिक्त अब तुम्हें जो कुछ कहना हो इसको खूब सोच-समझकर कहो कि तुम किसके मकान में और कितने आदमियों को साथ लेकर आये हो।

इतना कहकर इन्दिरा रुक गई और एक लम्बी सांस लेकर उसने राजा गोपालसिंह और दोनों कुमारों से कहा –

इन्दिरा - गदाधरसिंह और दारोगा में इस ढंग की बातें हो रही थीं और हम दोनों खिड़की में से सुन रहे थे। मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि गदाधरसिंह हम दोनों मां-बेटियों को छुड़ाने की फिक्र में लगा हुआ है। मैंने अन्ना के कान में मुंह लगा के कहा कि, “देख अन्ना, दारोगा हम लोगों के बारे में कितना झूठ बोल रहा है! नीचे उतर जाने के लिए रास्ता मौजूद ही है, चलो हम दोनों आदमी नीचे पहुंचकर गदाधरसिंह के सामने खड़े हो जायं।” अन्ना ने जवाब दिया कि “मैं भी यही सोच रही हूं, मगर इस बात का खयाल है कि अकेला गदाधरसिंह हम लोगों को किस तरह छुड़ा सकेगा, कहीं ऐसा न हो कि हम लोगों को अपने सामने देखकर दारोगा गदाधरसिंह को भी गिरफ्तार कर ले, फिर हमारा छुड़ाने वाला कोई भी न रहेगा!” अन्ना नीचे उतरने से हिचकती थी मगर मैंने उसकी बात न मानी, आखिर लाचार होकर मेरा हाथ पकड़े हुए वह नीचे उतरी और गदाधरसिंह के पास खड़ी होकर बोली, “दारोगा झूठा है, इस लड़की को इसी ने कैद कर रक्खा है और इसकी मां को भी न मालूम कहां छिपाये हुए है।”

मेरी सूरत देखते ही दारोगा का चेहरा पीला पड़ गया और गदाधरसिंह की आंखें मारे क्रोध के लाल हो गईं। गदाधरसिंह ने दारोगा से कहा, “क्यों बे हरामजादे के बच्चे! क्या अब भी तू अपनी कसमों पर भरोसा करने के लिए मुझसे कहेगा!”

गदाधरसिंह की बातों का जवाब दारोगा ने कुछ भी न दिया और इधर-उधर झांकने लगा। इत्तिफाक से वह कलमदान भी उसी जगह पड़ा हुआ था जिसके ऊपर मेरी तस्वीर थी और जो गदाधरसिंह ने रिश्वत लेकर दारोगा को दे दिया था। दारोगा असल में यह देख रहा था कि गदाधरसिंह की निगाह उस कलमदान पर तो नहीं पड़ी मगर वह कलमदान गदाधरसिंह की नजरों से दूर न था, अस्तु उसने दारोगा की अवस्था देखकर फुर्ती के साथ वह कलमदान उठा लिया और दूसरे हाथ से तलवार खींचकर सामने खड़ा हो गया। उस समय दारोगा को विश्वास हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती। यद्यपि रघुबरसिंह उसके पास बैठा हुआ था मगर वह इस बात को खूब जानता था कि हमारे ऐसे दस आदमी भी गदाधरसिंह को काबू में नहीं कर सकते, इसलिए उसने मुकाबला करने की हिम्मत न की और अपनी जगह से उठकर भागने लगा परन्तु जा न सका, गदाधरसिंह ने उसे एक लात ऐसी जमाई कि वह धम्म से जमीन पर गिर पड़ा और बोला, “मुझे क्यों मारते हो, मैंने क्या बिगाड़ा है मैं तो खुद यहां से चले जाने को तैयार हूं!”

गदाधरसिंह ने कलमदान कमरबन्द में खोंसकर कहा, “मैं तेरे भागने को खूब समझता हूं, तू अपनी जान बचाने की नीयत से नहीं भागता बल्कि बाहर पहरे वाले सिपाहियों को होशियार करने के लिए भागता है। खबरदार अपनी जगह से हिलेगा तो अभी भुट्टे की तरह तेरा सिर उड़ा दूंगा, (दारोगा से) बस अब तुम भी अगर अपनी जान बचाया चाहते हो तो चुपचाप बैठे रहो!”

गदाधरसिंह की डपट से दोनों हरामखोर जहां के तहां रह गए, अपनी जगह से हिलने या मुकाबला करने की हिम्मत न पड़ी। हम दोनों को साथ लिये हुए गदाधरसिंह उस मकान के बाहर निकल आया। दरवाजे पर कई पहरेदार सिपाही मौजूद थे मगर किसी ने रोक-टोक न की और हम लोग तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए उस गली के बाहर निकल गये। उस समय मालूम हुआ कि हम लोग जमानिया के बाहर नहीं हैं।

गली के बाहर निकलकर जब हम लोग सड़क पर पहुंचे तो घोड़ों का एक रथ और दो सवार दिखाई पड़े। गदाधरसिंह ने मुझको और अन्ना को रथ पर सवार कराया और आप भी उसी रथ पर बैठ गया। 'हूं' करने के साथ ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ और पीछे-पीछे दोनों सवार भी घोड़ा फेंकते हुए जाने लगे।

उस समय मेरे दिल में दो बातें पैदा हुईं, एक तो यह कि गदाधरसिंह ने दारोगा को जीता क्यों छोड़ दिया, दूसरी यह कि हम लोगों को राजा गोपालसिंह के पास न ले जाकर कहीं और क्यों लिए जाता है! मगर मुझे इस विषय में कुछ पूछने की आवश्यकता न पड़ी क्योंकि शहर के बाहर निकल जाने पर गदाधरसिंह ने स्वयं मुझसे कहा, “बेटी इन्दिरा, निःसन्देह कम्बख्त दारोगा ने तुझे बड़ा ही कष्ट दिया होगा और तू सोचती होगी कि मैंने दारोगा को जीता क्यों छोड़ दिया तथा तुझे राजा गोपालसिंह के पास न ले जाकर अपने घर क्यों लिये जाता हूं, अस्तु मैं इसका जवाब इसी समय दे देना उचित समझता हूं। दारोगा को मैंने यह सोचकर छोड़ दिया कि अभी तेरी मां का पता लगाना है और निःसन्देह वह भी दारोगा ही के कब्जे में है जिसका पता मुझे लग चुका है, तथा राजा साहब के पास मैं तुझे इसलिये नहीं ले गया कि महल में बहुत-से आदमी ऐसे हैं जो दारोगा के मेली हैं, राजा गोपालसिंह तथा मैं भी उन्हें नहीं जानता। ताज्जुब नहीं कि वहां पहुंचने पर तू फिर किसी मुसीबत में पड़ जाय।”

मैं - आपका सोचना बहुत ठीक है, मेरी मां भी महल ही में से गायब हो गई थी। तो क्या आप इस बात की खबर भी राजा गोपालसिंह को न करेंगे?

गदा - राजा साहब को इस मामले की खबर जरूर की जायगी मगर अभी नहीं।

मैं - तब कब?

गदाधर - जब तेरी मां को भी कैद से छुड़ा लूंगा तब। हां अब तू अपना हाल कह कि दारोगा ने तुझे कैसे गिरफ्तार कर लिया और यह दाई तेरे पास कैसे पहुंची?

मैं अपना और अपनी अन्ना का किस्सा शुरू से आखीर तक पूरा-पूरा कह गई जिसे सुनकर गदाधरसिंह का बचा-बचाया शक भी जाता रहा और उसे निश्चय हो गया कि मेरी मां भी दारोगा ही के कब्जे में है।

सबेरा हो जाने पर हम लोग सुस्ताने और घोड़ों को आराम देने के लिए एक जगह कुछ देर तक ठहरे और फिर उसी तरह रथ पर सवार हो रवाना हुए। दोपहर होते-होते हम लोग एक ऐसी जगह पहुंचे जहां दो पहाड़ियों की तलहटी (उपत्यका) एक साथ मिली थी। वहां सभों को सवारी छोड़कर पैदल चलना पड़ा। मैं यह नहीं जानती कि सवारी, साथ वाले और घोड़े किधर रवाना किये गये या उनके लिए अस्तबल कहां बना हुआ था, मुझे और अन्ना को घुमाता और चक्कर देता हुआ गदाधरसिंह पहाड़ के दर्रे में ले गया जहां एक छोटा-सा मकान अनगढ़ पत्थर के ढोकों से बना हुआ था, कदाचित् वह गदाधरसिंह का अड्डा हो। वहां उसके कई आदमी थे जिनकी सूरत आज तक मुझे याद है। अब जो मैं विचार करती हूं तो यही कहने की इच्छा होती है कि वे लोग बदमाशी, बेरहमी और डकैती के सांचे में ढले हुए थे तथा उनकी सूरत-शक्ल और पोशाक की तरफ ध्यान देने से डर मालूम होता था।

वहां पहुंचकर गदाधरसिंह ने मुझसे और अन्ना से कहा कि तुम दोनों बेखौफ होकर कुछ दिन तक आराम करो, मैं सर्यू को छुड़ाने की फिक्र में जाता हूं, जहां तक होगा बहुत जल्द लौट आऊंगा। तुम दोनों को किसी तरह की तकलीफ न होगी, खाने-पीने का सामान यहां मौजूद ही है और जितने आदमी यहां हैं सब तुम्हारी खिदमत करने के लिए तैयार हैं इत्यादि, बहुत-सी बातें गदाधरसिंह ने हम दोनों को समझाई और अपने आदमियों से भी बहुत देर तक बातें करता रहा। दो पहर दिन और तमाम रात गदाधरसिंह वहां रहा तथा सुबह के वक्त फिर हम दोनों को समझाकर जमानिया की तरफ रवाना हो गया।

मैं तो समझती थी कि अब मुझे पुनः मुसीबत का सामना न करना पड़ेगा और मैं गदाधरसिंह की बदौलत अपनी मां तथा लक्ष्मीदेवी से भी मिलकर सदैव के लिए सुखी हो जाऊंगी, मगर अफसोस मेरी मुराद पूरी न हुई और उस दिन के बाद फिर मैंने गदाधरसिंह की सूरत भी न देखी। मैं नहीं कह सकती कि वह किसी आफत में फंस गया या रुपये के लालच ने उसे हम लोगों का भी दुश्मन बना दिया। इसका असल हाल उसी की जुबानी मालूम हो सकता है - यदि वह अपना हाल ठीक-ठीक कह देते, अस्तु अब मैं ये बयान करती हूं कि उस दिन के बाद मुझ पर क्या मुसीबतें गुजरीं और मैं अपनी मां के पास तक क्योंकर पहुंची।

गदाधरसिंह के चले जाने के बाद आठ दिन तक तो मैं बेखौफ बैठी रही, पर नौवें दिन से मेरी मुसीबत की घड़ी फिर शुरू हो गई। आधी रात का समय था, मैं और अन्ना एक कोठरी में सोई हुई थीं, यकायक किसी की आवाज सुनकर हम दोनों की आंखें खुल गई और तब मालूम हुआ कि कोई दरवाजे के बाहर किवाड़ खटखटा रहा है। अन्ना ने उठकर दरवाजा खोला तो पंडित मायाप्रसाद पर निगाह पड़ी, कोठरी के अन्दर चिराग जल रहा था और मैं पंडित मायाप्रसाद को अच्छी तरह पहिचानती थी।

चंद्रकांता संतति

देवकीनन्दन खत्री
Chapters
चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 16 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 17 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 8