चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 3
दूसरे दिन मामूली ढंग पर दरबार लगा और दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया –
“कई दिन बीत गये मगर मुझे गिरिजाकुमार का कुछ पता न लगा और न इस बात का ही खयाल हुआ कि वह भूतनाथ के कब्जे में चला गया होगा। हां जब मैं गिरिजाकुमार की खोज में सूरत बदलकर घूम रहा था तब इस बात का पता जरूर लग गया कि भूतनाथ मेरे पीछे पड़ा हुआ है और दारोगा से मिलकर मुझे गिरफ्तार करा देने का बंदोबस्त कर रहा है।
उस मामले के कई सप्ताह बाद एक दिन आधी रात के समय भूतनाथ पागलों की-सी हालत में मेरे घर आया और उसने मेरा लड़का समझकर अपने हाथ से खुद अपने लड़के का खून कर दिया जिसका रंज इस जिंदगी में उसके दिल से नहीं निकल सकता और जिसका खुलासा हाल वह स्वयं अपनी जीवनी में बयान करेगा। इसी के थोड़े दिन बाद भूतनाथ की बदौलत मैं दारोगा के कब्जे में जा फंसा।
जब तक मैं स्वतंत्र रहा मुझे गिरिजाकुमार का हाल कुछ भी मालूम न हुआ, जब मैं पराधीन होकर कैदखाने में गया और वहां गिरिजाकुमार से जिसे भूतनाथ ने दारोगा के सुपुर्द कर दिया था मुलाकात हुई तब गिरिजाकुमार की जुबानी सब हाल मालूम हुआ।
भूतनाथ के कब्जे में पड़ जाने के बाद जब गिरिजाकुमार होश में आया तो उसने अपने को एक पत्थर के खंभे के साथ बंधा हुआ पाया जो किसी सुंदर सजे हुए कमरे के बाहरी दालान में था। वह चौकन्ना होकर चारों तरफ देखने और गौर करने लगा मगर इस बात का निश्चय न कर सका कि यह मकान किसका है, हां शक होता था कि यह दारोगा का मकान होगा क्योंकि अपने सामने भूतनाथ के साथ ही साथ बिहारीसिंह और दारोगा साहब को भी बैठे हुए देखा।
गिरिजाकुमार, दारोगा, बिहारीसिंह और भूतनाथ में देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं और गिरिजाकुमार ने भी बातों की उलझन में उन्हें ऐसा फंसाया कि किसी तरह असल भेद का वे लोग पता न लगा सके मगर फिर भी गिरिजाकुमार को उनके हाथों छुट्टी न मिली और वह तिलिस्म के अंदर वाले कैदखाने में ठूंस दिया गया, हां उसे इस बात का विश्वास हो गया कि वास्तव में राजा गोपालसिंह मरे नहीं बल्कि कैद कर लिए गए हैं।
राजा गोपालसिंह के जीते रहने का हाल यद्यपि गिरिजाकुमार को मालूम हो गया मगर इसका नतीजा कुछ भी न निकला क्योंकि इस बात का पता लगाने के साथ ही वह गिरफ्तार हो गया और यह हाल किसी से भी बयान न कर सका। अगर हम लोगों में से किसी को भी मालूम हो जाता कि वास्तव में राजा गोपालसिंह जीते हैं और कैद में हैं तो हम लोग उन्हें किसी-न-किसी तरह जरूर छुड़ा ही लेते मगर अफसोस!!
बहुत दिनों तक खोजने और पता लगाने पर भी जब गिरिजाकुमार का कुछ हाल मालूम न हुआ तब लाचार होकर मैं इंद्रदेव के पास गया और सब हाल बयान करने के बाद मैंने इनसे सलाह पूछी कि अब क्या करना चाहिए। बहुत गौर करने के बाद इंद्रदेव ने कहा कि मेरा दिल यही कहता है कि गिरिजाकुमार गिरफ्तार हो गया और इस समय दारोगा के कब्जे में है। इसका पता इस तरह लग सकता है कि तुम किसी तरह दारोगा को गिरफ्तार करके ले आओ और उसकी सूरत बनकर दस-पांच दिन उसके मकान में रहो, इस बीच में उसके नौकरों की जुबानी कुछ न कुछ हाल गिरिजाकुमार का जरूर मालूम हो जायगा, मगर इसमें कुछ शक नहीं कि दारोगा को गिरफ्तार करना जरा मुश्किल है।
इंद्रदेव की राय मुझे बहुत पसंद आई और मैं दारोगा को गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़ा। इंद्रदेव से बिदा होकर मैं अर्जुनसिंह के घर गया और जो कुछ सलाह हुई थी बयान किया। इन्होंने भी यह राय पसंद की और इस काम के लिए मेरे साथ जमानिया चलने को तैयार हो गये, अस्तु हम दोनों आदमी भेष बदलकर घर से निकले और जमानिया की तरफ रवाना हुए।
संध्या हुआ ही चाहती थी जब हम दोनों आदमी जमानिया शहर के पास पहुंचे, उस समय सामने से दारोगा का एक सिपाही आता हुआ दिखाई पड़ा। हम लोग बहुत खुश हुए और अर्जुनसिंह ने कहा - 'लो भाई सगुन तो बहुत अच्छा मिला कि शिकार सामने आ पहुंचा और चारों तरफ सन्नाटा भी छाया हुआ है। इस समय इसे जरूर गिरफ्तार करना चाहिए, इसके बाद इसी की सूरत बनाकर दारोगा के पास पहुंचना और उसे धोखा देना चाहिए।'
हम दो आदमी थे और सिपाही अकेला था, ऐसी अवस्था में किसी तरह की चालबाजी की जरूरत न थी, केवल तकरार कर लेना ही काफी था। हुज्जत और तकरार करने के लिए किसी मसाले की जरूरत नहीं पड़ी, जरा छेड़ देना ही काफी होता है। पास आने पर अर्जुनसिंह ने जान-बूझकर उसे धक्का दिया और वह भी दारोगा के घमंड पर फूला हुआ हम लोगों से उलझ पड़ा। आखिर हम लोगों ने उसे गिरफ्तार कर लिया और बेहोश करके वहां से दूर एक सन्नाटा जंगल में ले जाकर उसकी तलाशी लेने लगे। उसके पास से भूतनाथ के नाम की एक चिट्ठी निकली जो खास दारोगा के हाथ की लिखी हुई थी और जिसमें यह लिखा हुआ था –
'प्यारे भूतनाथ,
कई दिनों से हम तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। ठीक-ठीक बताओ कि कब मुलाकात होगी और कब तक काम हो जाने की उम्मीद है।'
इस चिट्ठी को पढ़कर हम दोनों ने सलाह की कि इस आदमी को छोड़ देना चाहिए और इसके पीछे चलकर देखना चाहिए कि भूतनाथ कहां रहता है। उसका पता लग जाने से बहुत काम निकलेगा।
हम दोनों ने वह चिट्ठी फिर उस आदमी की जेब में रख दी और उसे उठाकर पुनः सड़क पर लाकर डाल दिया जहां उसे गिरफ्तार किया था। इसके बाद लखलखा सुंघाकर हम दोनों दूर हटकर आड़ में खड़े हो गये और देखने लगे कि यह होश में आकर क्या करता है। उस समय रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी।
होश में आने के बाद वह आदमी ताज्जुब और तरद्दुद में थोड़ी देर तक इधर-उधर घूमता रहा और इसके बाद आगे की तरफ चल पड़ा। हम लोग भी आड़ देते हुए उसके पीछे-पीछे चल पड़े।
आसमान पर सुबह की सफेदी फैला ही चाहती थी जब हम लोग एक घने और सुहावने जंगल में पहुंचे। थोड़ी देर तक चलकर वह आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया। मालूम होता था कि थक गया है और कुछ देर तक सुस्ताना चाहता है, मगर ऐसा न था। लाचार हम दोनों भी उसके पास ही आड़ देकर बैठ गये और उसी समय पेड़ों की आड़ से कई आदमियों ने निकलकर हम दोनों को घेर लिया। उन सभों के हाथ में नंगी तलवारें और चेहरे पर नकाबें पड़ी हुई थीं।
बिना लड़े-भिड़े यों ही गिरफ्तार होकर दुःख भोगना हम लोगों को मंजूर न था, अस्तु फुर्ती से तलवार खींचकर उन लोगों के मुकाबले में खड़े हो गये। उस समय एक ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और मेरे पास आकर खड़ा हो गया। असल में वह भूतनाथ था जिसका चेहरा सुबह की सफेदी में बहुत साफ दिखाई दे रहा था और मालूम हो रहा था कि वह हम दोनों को देखकर मुस्करा रहा है।
भूतनाथ की सूरत देखते ही हम दोनों चौंक पड़े और मेरे मुंह से निकल पड़ा 'भूतनाथ'। उसी समय मेरी निगाह उस आदमी पर जा पड़ी जिसके पीछे-पीछे हम लोग वहां तक पहुंचे थे, देखा कि दो आदमी खड़े-खड़े उससे बातें कर रहे हैं और हाथ के इशारे से मेरी तरफ कुछ बता रहे हैं।
मेरे मुंह से निकली हुई आवाज सुनकर भूतनाथ हंसा और बोला, 'हां, मैं वास्तव में भूतनाथ हूं, और आप लोग?
मैं - हम दोनों गरीब मुसाफिर हैं।
भूत - (हंसकर) यद्यपि आप लोगों की तरह भूतनाथ अपनी सूरत नहीं बदला करता मगर आप लोगों को पहचानने में किसी तरह की भूल भी नहीं कर सकता।
मैं - अगर ऐसा है तो आप ही बताइए हम लोग कौन हैं?
भूत - आप लोग दलीपशाह और अर्जुनसिंह हैं, जिन्हें मैं कई दिनों से खोज रहा हूं।
मैं - (ताज्जुब के साथ) ठीक है, जब आपने पहचान ही लिया तो मैं अपने को क्यों छिपाऊं मगर यह तो बताइये कि आप मुझे क्यों खोज रहे थे?
भूत - इसलिये कि मैं आपसे अपने कसूरों की माफी मांगूं, आरजू-मिन्नत और खुशामद के साथ अपने को आपके पैरों पर डाल दूं और कहूं कि अगर जी में आवे तो अपने हाथ से मेरा सिर काट लीजिये मगर एक दफे कह दीजिये कि मैंने तेरा कसूर माफ किया।
मैं - बड़े ताज्जुब की बात है कि तुम्हारे दिल में यह बात पैदा हुई क्या तुम्हारी आंखें खुल गईं और मालूम हो गया कि तुम बहुत बुरे रास्ते पर चल रहे हो
भूत - जी हां, मुझे मालूम हो गया और समझ गया कि मैं अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रहा हूं।
मैं - बड़ी खुशी की बात है अगर तुम सच्चे दिल से कह रहे हो।
भूत - बेशक मैं सच्चे दिल से कह रहा हूं और अपने किये पर मुझे बड़ा अफसोस है।
मैं - भला कह तो जाओ कि तुम्हें किन-किन बातों का अफसोस है।
भूत - सो न पूछिये, सिर से पैर तक मैं कसूरवार हो रहा हूं, एक-दो हों तो कहा जाय, कहां तक गिनाऊं?
मैं - खैर न सही, अच्छा यह बताओ कि मुझसे किस कसूर की माफी चाहते हो मेरा तो तुमने कुछ नहीं बिगाड़ा।
भूत - यह आपका बड़प्पन है जो आप ऐसा कहते हैं, मगर वास्तव में मैंने आपका बहुत बड़ा कसूर किया है। और बातों के अतिरिक्त मैंने आपके सामने आपके लड़के को मार डाला है यह कहां का...।
मैं - (बात काटकर) नहीं-नहीं भूतनाथ! तुम भूलते हो, अथवा तुम्हें मालूम नहीं है कि तुमने मेरे लड़के का खून नहीं किया बल्कि अपने लड़के का खून किया है।
भूत - (चौंककर बेचैनी के साथ) यह आप क्या कह रहे हैं?
मैं - बेशक मैं सच कह रहा हूं। इस काम में तुमने धोखा खाया और अपने लड़के को अपने हाथ से मार डाला। उन दिनों तुम्हारी स्त्री बीमार होकर मेरे यहां आई और अपनी आंखों से तुम्हारी इस कार्रवाई को देख रही थी।
भूत - (घबराहट के साथ) तो क्या अब भी मेरी स्त्री आप ही के मकान में है?
मैं - नहीं, वह मर गई क्योंकि बीमारी में वह इस दुःख को बर्दाश्त न कर सकी।
भूत - (कुछ देर चुप रहने और सोचने के बाद) नहीं-नहीं, यह बात नहीं है। मालूम होता है कि तुमने खुद मेरे लड़के को मारकर अपने लड़के का बदला चुकाया!
अर्जुन - नहीं-नहीं, भूतनाथ, वास्तव में तुमने खुद अपने लड़के को मारा है और मैं इस बात को खूब जानता हूं।
भूत - (भारी आवाज में) खैर अगर मैंने अपने लड़के का खून किया है तब भी दलीपशाह का कसूरवार हूं। इसके अतिरिक्त और भी कई कसूर मुझसे हुए हैं, अच्छा हुआ कि मेरी स्त्री मर गई नहीं तो उसके सामने...।
मैं - मगर हरनामसिंह और कमला को ईश्वर कुशलपूर्वक रखें।
भूत - (लंबी सांस लेकर) बेशक भूतनाथ बड़ा ही बदनसीब है।
मैं - अब भी सम्हल जाओ तो कोई चिंता नहीं।
भूत - बेशक मैं अपने को सम्हालूंगा और जो कुछ आप कहेंगे वही करूंगा। अच्छा मुझे थोड़ी देर के लिए आज्ञा दीजिये तो मैं उस आदमी से दो-दो बातें कर आऊं जिसके पीछे आप यहां तक आए हैं।
इतना कहकर भूतनाथ उस आदमी के पास चला गया मगर उसके साथी लोग हमें घेरे खड़े ही रहे। इस समय मेरे दिल का विचित्र ही हाल था। मैं निश्चय नहीं कह सकता था कि भूतनाथ की बातें किस ढंग पर जा रही हैं और इसका नतीजा क्या होगा, तथापि मैं इस बात के लिए तैयार था कि जिस तरह हो सकेगा मेहनत करके भूतनाथ को अच्छे ढर्रे पर ले आऊंगा। मगर में वास्तव में ठगा गया और जो कुछ सोचता था वह मेरी नादानी थी।
उस आदमी से बातचीत करने में भूतनाथ ने बहुत देर नहीं की और उसे झटपट बिदा करके वह पुनः मेरे पास आकर बोला, 'कम्बख्त दारोगा मुझसे चालबाजी करता है और मेरे ही हाथों से मेरे दोस्त को गिरफ्तार कराना चाहता है।'
मैं - दारोगा बड़ा ही शैतान है और उसके फेर में पड़कर तुम बर्बाद हो जाओगे। अच्छा अब हम लोग भी बिदा होना चाहते हैं, यह बताओ कि तुमसे किस तरह की उम्मीद अपने साथ लेते जायं?
भूत - मुझसे आप हर तरह की उम्मीद कर सकते हैं, जो आप कहेंगे मैं वही करूंगा बल्कि आपके साथ ही साथ आपके घर चलूंगा।
मैं - अगर ऐसा करो तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहे।
भूत - बेशक मैं ऐसा ही करूंगा मगर पहले आप यह बता दें कि आपने मेरा कसूर माफ किया या नहीं?
मैं - हां मैंने माफ किया।
भूत - अच्छा तो अब मेरे डेरे पर चलिये।
मैं - तुम्हारा डेरा कहां पर है?
भूत - यहां से थोड़ी ही दूर पर।
मैं - खैर चलो मैं तैयार हूं, मगर इस बात का वादा करो कि लौटते समय मेरे साथ चलोगे।
भूत - जरूर चलूंगा।
इतना कहकर भूतनाथ चल पड़ा और हम दोनों भी उसके पीछे-पीछे रवाना हुए।
आप लोग खयाल करते होंगे कि भूतनाथ ने हम दोनों को उसी जगह क्यों नहीं गिरफ्तार कर लिया मगर यह बात भूतनाथ के किये नहीं हो सकती थी। यद्यपि उसके साथ कई सिपाही या नौकर भी मौजूद थे मगर फिर भी वह इस बात को खूब जानता था कि इस खुले मैदान में दलीपशाह और अर्जुनसिंह को एक साथ गिरफ्तार कर लेना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। साथ ही इसके यह भी कह देना जरूरी है कि उस समय तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि उसके बटुए को चुरा लेने वाला यही अर्जुनसिंह है। उस समय तक क्या बल्कि अब तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी। उस दिन जब स्वयं अर्जुनसिंह ने अपनी जुबान से कहा तब मालूम हुआ!
कोस-भर से ज्यादे हम लोग भूतनाथ के पीछे-पीछे चले गये और इसके बाद एक भयानक सुनसान और उजाड़ घाटी में पहुंचे जो दो पहाड़ियों के बीच में थी। वहां से कुछ दूर तक घूमघुमौवे रास्ते पर चलकर भूतनाथ के डेरे पर पहुंचे। वह ऐसा स्थान था जहां किसी मुसाफिर का पहुंचना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव था। जिस खोह में भूतनाथ का डेरा था वह बहुत बड़ी और बीस-पचीस आदमियों के रहने लायक थी और वास्तव में इतने ही आदमियों के साथ वह वहां रहता भी था।
वहां भूतनाथ ने हम दोनों की बड़ी खातिर की और बार-बार आजिजी करता और माफी मांगता रहा। खाने-पीने का सब सामान वहां मौजूद था अस्तु इशारा पाकर भूतनाथ के आदमियों ने तरह-तरह का खाना बनाना आरंभ कर दिया और कई आदमी नहाने-धोने का सामान दुरुस्त करने लगे।
हम दोनों बहुत प्रसन्न थे और समझते थे कि अब भूतनाथ ठीक रास्ते पर आ जायेगा, अस्तु हम लोग जब तक संध्या-पूजन से निश्चिंत हुए तब तक भोजन भी तैयार हुआ और बेफिक्री के साथ हम तीनों आदमियों ने एक साथ भोजन किया। इसके बाद निश्चिंती से बैठकर बातचीत करने लगे।
भूत - दलीपशाह, मुझे इस बात का बड़ा दुःख है कि मेरी स्त्री का देहांत हो गया और मेरे हाथ से एक बहुत ही बुरा काम हो गया।
मैं - बेशक अफसोस की जगह है, मगर खैर जो कुछ होना था हो गया, अब तुम घर पर चलो और नेकनीयती के साथ दुनिया में काम करो।
भूत - ठीक है, मगर मैं यह सोचता हूं कि अब घर पर जाने का फायदा ही क्या है मेरी स्त्री मर गई और अब दूसरी शादी मैं कर ही नहीं सकता, फिर किस सुख के लिए शहर में चलकर बसूं।
मैं - हरनामसिंह और कमला का भी तो कुछ खयाल करना चाहिये। इसके अतिरिक्त क्या विधुर लोग शहर में रहकर नेकनीयती के साथ रोजगार नहीं करते?
भूत - कमला और हरनामसिंह होशियार हैं और एक अच्छे रईस के यहां परवरिश पा रहे हैं, इसके अतिरिक्त किशोरी उन दोनों ही की सहायक है, अतएव उनके लिए मुझे किसी तरह की चिंता नहीं है। बाकी रही आपकी दूसरी बात, उसका जवाब यह हो सकता है कि शहर में नेकनीयती के साथ अब मैं कर ही क्या सकता हूं क्योंकि मैं तो किसी को मुंह दिखलाने के लायक ही नहीं रहा। एक दयाराम वाली वारदात ने मुझे बेकाम कर ही दिया था, दूसरे इस लड़के के खून ने मुझे और भी बर्बाद और बेकाम कर दिया। अब मैं कौन-सा मुंह लेकर भले आदमियों में बैठूंगा?
मैं - ठीक है, मगर इन दोनों मामलों की खबर हम लोग दो-तीन खास-खास आदमियों के सिवाय और किसी को नहीं है और हम लोग तुम्हारे साथ कदापि बुराई नहीं कर सकते।
भूत - तुम्हारी इन बातों पर मुझे विश्वास नहीं हो सकता क्योंकि मैं इस बात को खूब जानता हूं कि आजकल तुम मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव कर रहे हो और मुझे दारोगा के हाथ में फंसाना चाहते हो, ऐसी अवस्था में तुमने मेरा भेद जरूर कई आदमियों से कह दिया होगा।
मैं - नहीं भूतनाथ, यह तुम्हारी भूल है कि तुम ऐसा सोच रहे हो मैंने तुम्हारा भेद किसी को नहीं कहा और न मैं तुम्हें दारोगा के हवाले किया चाहता हूं। बेशक दारोगा ने मुझे इस काम के लिए लिखा था मगर मैंने इस बारे में उसे धोखा दिया। दारोगा के हाथ की लिखी चीठियां मेरे पास मौजूद हैं, घर चलकर मैं तुम्हें दिखाऊंगा और उनसे तुम्हें मेरी बातों का पूरा सबूत मिल जायगा।
इसी समय बात करते-करते मुझे कुछ नशा मालूम हुआ और मेरे दिल में एक प्रकार का खुटका हो गया। मैंने घूमकर अर्जुनसिंह की तरफ देखा तो उनकी भी आंखें लाल अंगारे की तरह दिखाई पड़ीं। उसी समय भूतनाथ मेरे पास से उठकर दूर जा बैठा और बोला –
भूत - जब मैं तुम्हारे घर जाऊंगा तब मुझे इस बात का सबूत मिलेगा मगर मैं इसी समय तुम्हें इस बात का सबूत दे सकता हूं कि तुम मेरे साथ दुश्मनी कर रहे हो।
इतना कह के भूतनाथ ने अपनी जेब से निकालकर मेरे हाथ की लिखी वे चीठियां मेरे सामने फेंक दीं जो मैंने दारोगा को लिखी थीं और जिनमें भूतनाथ के गिरफ्तार करा देने का वादा किया था।
मैं सरकार से बयान कर चुका हूं कि उस समय दारोगा से इस ढंग का पत्र-व्यवहार करने से मेरा मतलब क्या था, और मैंने भूतनाथ को दिखाने के लिए दारोगा के हाथ की चीठियां बटोरकर किस तरह दारोगा से साफ इंकार कर दिया था, मगर उस मौके पर मेरे पास वे चीठियां मौजूद न थीं कि मैं उन्हें भूतनाथ को दिखाता और भूतनाथ के पास वे चीठियां मौजूद थीं जो दारोगा ने उसे दी थीं और जिनके सबब से दारोगा का मंत्र चल गया था। अस्तु उन चीठियों को देखकर मैंने भूतनाथ से कहा –
मैं - हां-हां, इन चीठियों को मैं जानता हूं और बेशक ये मेरे हाथ की लिखी हुई हैं, मगर मेरे इस लिखने का मतलब क्या था और इन चीठियों से मैंने क्या काम निकाला सो तुम्हें नहीं मालूम हो सकता जब तक कि दारोगा के हाथ की लिखी हुई चीठियां तुम न पढ़ लो जो मेरे पास मौजूद हैं।
भूत - (मुस्कराकर) बस बस बस, ये सब धोखेबाजी के ढर्रे रहने दीजिए। भूतनाथ से यह चालाकी न चलेगी, सच तो यों है कि मैं खुद कई दिनों से तुम्हारी खोज में हूं। इत्तिफाक से तुम स्वयं मेरे पंजे में आ गए और अब किसी तरह नहीं निकल सकते। उस जंगल में मैं तुम दोनों को काबू में नहीं कर सकता था इसलिए सब्जबाग दिखाता हुआ यहां ले आया और भोजन में बेहोशी की दवा खिलाकर बेकार कर दिया। अब तुम लोग मेरा कुछ नहीं कर सकते। समझ लो कि तुम दोनों जहन्नुम में भेजे जाओगे जहां से लौटकर आना मुश्किल है।
भूतनाथ की ऐसी बातें सुनकर हम दोनों को क्रोध चढ़ आया मगर उठने की कोशिश करने पर भी कुछ न कर सके, क्योंकि नशे का पूरा-पूरा असर हो गया था और पूरे बदन में कमजोरी आ गई थी।
थोड़ी ही देर बाद हम लोग बेहोश हो गये और तनोबदन की सुध न रही। जब आंखें खुलीं तो अपने को दारोगा के मकान में कैद पाया और सामने दारोगा, जैपाल, हरनामसिंह और बिहारीसिंह को बैठे हुए देखा। रात का समय था और मेरे हाथ-पैर एक खंभे के साथ बंधे हुए थे, अर्जुनसिंह न मालूम कहां थे और उन पर न जाने क्या बीत रही थी।
दारोगा ने मुझसे कहा, 'कहो दलीपशाह, तुमने तो मुझ पर बड़ा जाल फैलाया था मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।'
मैं - मैंने क्या जाल फैलाया था?
दारोगा - क्या इसके कहने की भी जरूरत है नहीं, बस इस समय हम इतना ही कहेंगे कि तुम्हारा शागिर्द हमारी कैद में है और तुमने मेरे लिए जो कुछ किया है उसका हाल हम उसकी जुबानी सुन चुके हैं। अब अगर वह चिट्ठी मुझे दे दो जो गोपालसिंह के बारे में मनोरमा का नाम लेकर जबर्दस्ती मुझसे लिखवाई गई थी तो मैं तुम्हारा सब कसूर माफ कर दूं।
मैं - मेरी समझ में नहीं आता कि आप किस चिट्ठी के बारे में मुझसे कह रहे हैं।
दारोगा - (चिढ़कर) ठीक है, यह तो मैं पहले ही समझे हुए था कि तुम बिना लात खाये नाक पर मक्खी नहीं बैठने दोगे, खैर देखो मैं तुम्हारी क्या दुर्दशा करता हूं।
इतना कहकर दारोगा ने मुझे सताना शुरू किया। मैं नहीं कह सकता कि इसने मुझे किस-किस तरह की तकलीफें दीं और सो भी एक-दो दिन तक नहीं बल्कि महीने भर तक। इसके बाद बेहोश करके मुझे तिलिस्म के अंदर पहुंचा दिया। जब मैं होश में आया तो अपने सामने अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार को बैठे हुए पाया। बस यही तो मेरा किस्सा है और यही मेरा बयान!
दलीपशाह का हाल सुनकर सभों को बड़ा दुःख हुआ और सभी कोई लाल-लाल आंखें करके दारोगा तथा जैपाल वगैरह की तरफ देखने लगे। दरबार बर्खास्त करने का इशारा करके महाराज उठ खड़े हुए, कैदी जेलखाने भेज दिये गये और बाकी सब अपने डेरों की तरफ रवाना हुए।