चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 6
सुबह की सफेदी आसमान पर फैला ही चाहती है और इस समय की दक्षिणी हवा जंगली पेड़ों और पौधों-लताओं और पत्तों से हाथापाई करती हुई मैदान की तरफ दौड़ी जाती है। ऐसे समय में भूतनाथ और देवीसिंह हाथ में हाथ दिए जंगल के किनारे-किनारे मैदान में टहल रहे हैं और धीरे-धीरे हंसी-दिल्लगी की बात करते जाते हैं।
देवी - भूतनाथ, लो इस समय एक नई और मजेदार बात तुम्हें सुनाते हैं।
भूत - वह क्या?
देवी - फायदे की बात है, अगर तुम कोशिश करोगे तो लाख-दो लाख रुपया मिल जायगा।
भूत - ऐसा कौन-सा उद्योग है जिसके करने से सहज ही इतनी बड़ी रकम हाथ लग जायगी और अगर इस बात को तुम जानते ही हो तो खुद क्यों नहीं उद्योग करते?
देवी - मैं भी उद्योग करूंगा मगर यह कोई जरूरी बात नहीं है कि जिसका जी चाहे उद्योग करके लाख-दो लाख पा जाय, हां जिसका जेहन लड़ जायगा और जिसकी अक्ल काम कर जाएगी वह बेशक अमीर हो जायगा। मैं जानता हूं कि हम लोगों में तुम्हारी तबीयत बड़ी तेज है और तुम्हें बहुत दूर की सूझा करती है इसलिए कहता हूं कि अगर तुम उद्योग करोगे तो लाख-दो लाख रुपया पा जाओगे। यद्यपि हम लोग सदा ही अमीर बने रहते हैं और रुपए-पैसे की कुछ परवाह नहीं करते मगर फिर भी यह रकम थोड़ी नहीं है, और तिस पर बाजी के ढंग पर जीतना ठहरा, इसलिए ऐसी रकम पाने की खुशी हौती है।
भूत - आखिर बात क्या है कुछ कहो भी तो सही?
देवी - बात यही है कि वह जो तिलिस्मी मकान बनाया गया है, जिसके अन्दर लोग हंसते-हंसते कूद पड़ते हैं, उसके विषय में महाराज ने रात को हुक्म दिया है कि तिलिस्मी मकान के ऊपर सर्वसाधारण लोग तो चढ़ चुके और किसी को कामयाबी नहीं हुई, अब कल हमारे ऐयार लोग उस पर चढ़कर अपनी अक्ल का नमूना दिखावें और इनके लिए इनाम भी दुगना कर दिया जाए, मगर इस काम में चार आदमी शरीक न किए जायें - एक जीतसिंह, दूसरे तेजसिंह, तीसरे भैरो, चौथे तारा।
भूत - बात तो बहुत अच्छी हुई, कई दिनों से मेरे दिल में गुदगुदी हो रही थी कि किसी तरह इस मकान के ऊपर चढ़ना चाहिए मगर महाराज की आज्ञा बिना ऐसा कब कर सकता था। मगर यह तो कहो कि उन चारों के लिए मनाही क्यों कर दी गई?
देवी - इसलिए कि उन्हें इसका भेद मालूम है।
भूत - यों तो तुमको भी कुछ-न-कुछ भेद मालूम ही होगा क्योंकि एक दफे तुम भी ऐसे ही मकान के अन्दर जा चुके हो जब शेरसिंह भी तुम्हारे साथ थे।
देवी - ठीक है मगर इससे क्या असल भेद का पता लग सकता है अगर ऐसा ही हो तो इस जलसे में हजारों आदमी उस मकान के अन्दर गए होंगे, किसी को दोहराकर जाने की मनाही तो थी नहीं, कोई पुनः जाकर जरूर बाजी जीत ही लेता।
भूत - आखिर उसमें क्या है?
देवी - सो मुझे नहीं मालूम हां, दो दिन के बाद वह भी मालूम हो जायगा।
भूत - पहले दफे जब तुम ऐसे ही मकान के अन्दर कूदे थे तो उसमें क्या देखा था और हंसने की क्या जरूरत पड़ी थी?
देवी - अच्छा उस समय जो कुछ हुआ था सो मैं तुमसे बयान करता हूं क्योंकि अब उसका हाल कहने में कोई हर्ज नहीं है। जब मैं कमन्द लगाकर दीवार के ऊपर चढ़ गया तो ऊपर से दीवार बहुत चौड़ी मालूम हुई और इस सबब से बिना दीवार पर गए भीतर की कोई चीज दिखाई नहीं देती थी, अस्तु मैं लाचार होकर दीवार पर चढ़ गया और अन्दर झांकने लगा। अन्दर की जमीन पांच या चार हाथ नीची थी जो कि मकान की छत मालूम होती थी, मगर इस समस मैं अन्दाज से कह सकता हूं कि वह वास्तव में छत न थी, बल्कि कपड़े का चन्दवा तना हुआ या किसी शामियाने की छत थी, मगर उसमें से एक प्रकार की ऐसी भाप (वाष्प) निकल रही थी कि जिससे दिमाग में नशे की-सी हालत पैदा होती थी और खूब हंसने को जी चाहता था मगर पैरों में कमजोरी मालूम होती थी और वह बढ़ती जाती थी...।
भूत - (बात काटकर) अच्छा यह तो बताओ कि अन्दर झांकने से पहले ही कुछ नशा-सा चढ़ आया था या नहीं?
देवी - कब दीवार पर चढ़ने के बाद?
भूत - हां, दीवार पर चढ़ने के बाद और अन्दर झांकने के पहले।
देवी - (कुछ सोचकर) नशा तो नहीं मगर कुछ शिथिलता जरूर मालूम हुई थी।
भूत - खैर अच्छा, तब?
देवी - अन्दर की तरफ जो छत थी उस पर मैंने देखा कि किशोरी हाथ में एक चाबुक लिए खड़ी है और उसके सामने की तरफ कुछ दूर हटकर कई मोटे ताजे आदमी खड़े हैं जो किशोरी को पकड़कर बांधना चाहते हैं मगर वह किसी के काबू में नहीं आती। ताल ठोंक-ठोंककर लोग उसकी तरफ बढ़ते हैं मगर वह कोड़ा मार-मारकर हटा देती है। ऐसी अवस्था में उन आदमियों की मुद्रा (जो किशोरी को पकड़ना चाहते थे) ऐसी खराब होती थी कि हंसी रोके नहीं रुकती थी, तथा उस भाप की बदौलत आया हुआ नशा हंसी को और भी बढ़ा देता था। पैरों में पीछे हटने की ताकत न थी मगर भीतर की तरफ कूद पड़ने में किसी तरह का हर्ज भी नहीं मालूम था क्योंकि जमीन ज्यादा नीची न थी, अस्तु मैं अन्दर की तरफ कूद पड़ा बल्कि यों कहो कि ढुलक पड़ा और उसके बाद तनोबदन की सुध न रही। मैं नहीं जानता कि उसके बाद क्या हुआ और क्योंकर हुआ, हां, जब मैं होश में आया तो अपने को कैद में पाया।
भूत - अच्छा तो इससे तुमने क्या नतीजा निकाला?
देवी - कुछ भी नहीं, केवल इतना ही खयाल किया कि किसी दवा के नशे से दिमाग खराब हो जाता है।
भूत - केवल इतना ही नहीं है, मैंने इससे कुछ ज्यादे खयाल किया है, खैर कोई चिन्ता नहीं कल देखा जाएगा, सौ में नब्बे दर्जे तो मैं जरूर बाहरी रास्ते ही से लौट जाऊंगा। यहां उस तिलिस्मी मकान के अन्दर लोगों ने जो कुछ देखा है वह भी करीब-करीब वैसा ही है जैसा तुमने देखा था, तुमने किशोरी को देखा और इन लोगों ने किसी दूसरी औरत को देखा, बात एक ही है।
इसी तरह की बातें करते हुए दोनों ऐयार कुछ देर तक सुबह की हवा खाते रहे और इसके बाद मकान की तरफ लौटे। जब महाराज के पास गये तो पुनः सुनने में आया कि ऐयारों को तिलिस्मी मकान पर चढ़ने की आज्ञा हुई है।