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चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 9

दिन का समय है और दोपहर ढल चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह अभी-अभी भोजन करके आये हैं और अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए पान चबाते हुए अपने दोस्तों तथा लड़कों से हंसी-खुशी की बातें कर रहे हैं जो कि महाराज से घंटे भर पहले ही भोजन इत्यादि से छुट्टी पा चुके हैं।

महाराज के अतिरिक्त इस समय इस कमरे में राजा वीरेन्द्रसिंह, कुंअर इंद्रजीतसिंह, आनंदसिंह, राजा गोपालसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पन्नालाल, रामनारायण, पंडित बद्रीनाथ, चुन्नीलाल, जगन्नाथ ज्योतिषी, भैरोसिंह, इंद्रदेव और गोपालसिंह के दोस्त भरतसिंह भी बैठे हुए हैं।

वीरेन्द्र - इसमें कोई संदेह नहीं कि जो तिलिस्म मैंने तोड़ा था वह इस तिलिस्म के सामने रुपये में एक पैसा भी नहीं है, साथ ही इसके जमानिया राज्य में जैसे-जैसे महापुरुष (दारोगा की तरह) रह चुके हैं तथा वहां जैसी-जैसी घटनाएं हो गई हैं उनकी नजीर भी कभी सुनने में न आवेगी।

गोपाल - बखेड़ों का सबब भी उसी तिलिस्म को समझना चाहिए, उसी का आनंद लूटने के लिए लोगों ने ऐसे बखेड़े मचाए और उसी की बदौलत लोगों की ताकत और हैसियत भी बढ़ी।

जीत - बेशक यही बात है, जैसे-जैसे तिलिस्म के भेद खुलते गए तैसे-तैसे पाप और लोगों की बदकिस्मती का जमाना भी तरक्की करता गया।

सुरेन्द्र - हमें तो कम्बख्त दारोगा के कामों पर आश्चर्च होता है, न मालूम किस सुख के लिए उस कम्बख्त ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किए!!

भरत - (हाथ जोड़कर) मैं तो समझता हूं कि दारोगा के कुकर्मों का हाल महाराज ने अभी बिल्कुल नहीं सुना, उसकी कुछ पूर्ति तब होगी जब हम लोग अपना किस्सा बयान कर चुकेंगे।

सुरेन्द्र - ठीक है, हमने भी आज आप ही का किस्सा सुनने की नीयत से आराम नहीं किया।

भरत - मैं अपनी दुर्दशा बयान करने के लिए तैयार हूं।

जीत - अच्छा तो अब आप शुरू करें।

भरत - जो आज्ञा।

इतना कहकर भरतसिंह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया –

भरत - मैं जमानिया का रहने वाला और एक जमींदार का लड़का हूं। मुझे इस बात का सौभाग्य प्राप्त था कि राजा गोपालसिंह मुझे अपना मित्र समझते थे, यहां तक कि भरी मजलिस में भी मित्र कहकर मुझे संबोधन करते थे, और घर में भी किसी तरह का पर्दा नहीं रखते थे। यही सबब था कि वहां के कर्मचारी लोग तथा अच्छे-अच्छे रईस मुझसे डरते और मेरी इज्जत करते थे परंतु दारोगा को यह बात पसंद न थी।

केवल राजा गोपालसिंह ही नहीं, इनके पिता भी मुझे अपने लड़के की तरह ही मानते और प्यार करते थे, विशेष करके इसलिए कि हम दोनों मित्रों की चाल-चलन में किसी तरह की बुराई दिखाई नहीं देती थी।

जमानिया में जो बेईमान और दुष्ट लोगों की एक गुप्त कमेटी थी उसका हाल आप लोग जान ही चुके हैं अतएव उसके विषय में विस्तार के साथ कुछ कहना वृथा ही है, हां, जरूरत पड़ने पर उसके विषय में इशारा मात्र कर देने से काम चला जायगा।

रियासतों में मामूली तौर पर तरह-तरह की घटनाएं हुआ ही करती हैं इसलिए राजा गोपालसिंह को गद्दी मिलने के पहले जो कुछ मुझ पर बीत चुकी है उसे मामूली समझकर मैं छोड़ देता हूं और उस समय से अपना हाल बयान करता हूं जब इनकी शादी हो चुकी थी। इस शादी में जो कुछ चालबाजी हुई थी उसका हाल आप सुन ही चुके हैं।

जमानिया की वह गुप्त कमेटी यद्यपि भूतनाथ की बदौलत टूट चुकी थी मगर उसकी जड़ नहीं कटी थी क्योंकि कम्बख्त दारोगा हर तरह से साफ बच रहा था और कमेटी का कमजोर दफ्तर अभी भी उसके कब्जे में था।

गोपालसिंह की शादी हो जाने के बहुत दिन बाद एक दिन मेरे एक नौकर ने रात के समय जबकि वह मेरे पैरों में तेल लगा रहा था मुझसे कहा कि 'राजा गोपालसिंह की शादी असली लक्ष्मीदेवी के साथ नहीं बल्कि किसी दूसरी ही औरत के साथ हुई है। यह काम दारोगा ने रिश्वत लेकर किया है और इस काम में सुबीता होने के लिए गोपालसिंहजी के पिता को भी उसी ने मारा है।'

सुनने के साथ मैं चौंक पड़ा, मेरे ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, मैंने उससे तरह-तरह के सवाल किये जिनका जवाब उसने ऐसा तो न दिया जिससे मेरी दिलजमई हो जाती मगर इस बात पर बहुत जोर दिया कि 'जो कुछ मैं कह चुका हूं वह बहुत ठीक है।'

मेरे जी में तो यही आया कि इसी समय उठकर राजा गोपालसिंह के पास जाऊं और हाल कह दूं, परंतु यह सोचकर कि किसी काम में जल्दी न करनी चाहिए मैं चुप रह गया और सोचने लगा कि यह कार्रवाई क्योंकर हुई और इसका ठीक-ठीक पता किस तरह लग सकता है?

रात भर मुझे नींद न आई और इन्हीं बातों को सोचता रह गया। सबेरा होने पर स्नान-संध्या इत्यादि से छुट्टी पाकर मैं राजा साहब से मिलने के लिए गया, मालूम हुआ कि राजा साहब अभी महल से बाहर नहीं निकले हैं। मैं सीधे महल में चला गया, उस समय गोपालसिंहजी संध्या कर रहे थे और इनसे थोड़ी दूर पर सामने बैठी मायारानी फूलों का गजरा तैयार कर रही थी। उसने मुझे देखते ही कहा, “अहा, आज क्या है! मालूम होता है मेरे लिए आप कोई अनूठी चीज लाए हैं।”

इसके जवाब में मैं हंसकर चुप हो गया और इशारा पाकर गोपालसिंहजी के पास एक आसन पर बैठ गया। जब वे संध्योपासना से छुट्टी पा चुके तब मुझसे बातचीत होने लगी। मैं चाहता था कि मायारानी वहां से उठ जाय तब मैं अपना मतलब बयान करूं पर वह वहां से उठती न थी और चाहती थी कि मैं जो कुछ कहूं उसे वह भी सुन ले। यह संभव था कि मैं मामूली बातें करके मौका टाल देता और वहां से उठ खड़ा होता मगर वह हो न सका क्योंकि उन दोनों ही को इस बात का विश्वास हो गया था कि मैं जरूर कोई अनूठी बात कहने के लिए आया हूं। लाचार गोपालसिंहजी से इशारे में कह देना पड़ा कि 'मैं एकांत में केवल आप ही से कुछ कहना चाहता हूं।' जब गोपालसिंह ने किसी काम के बहाने से उसे अपने सामने से उठाया तब वह भी मेरा मतलब समझ गई और कुछ मुंह बनाकर उठ खड़ी हुई।

हम दोनों यही समझते थे कि मायारानी वहां से चली गई मगर उस कम्बख्त ने हम दोनों की बातें सुन लीं क्योंकि उसी दिन से मेरी कम्बख्ती का जमाना शुरू हो गया। मैं ठीक नहीं कह सकता कि किस ढंग से उसने हमारी बातें सुनीं। जिस जगह हम दोनों बैठे थे उसके पास ही दीवार में एक छोटी-सी खिड़की पड़ती थी, शायद उसी जगह पिछवाड़े की तरफ खड़ी होकर उसने मेरी बातें सुन ली हों तो कोई ताज्जुब नहीं।

मैंने जो कुछ अपने नौकर से सुना था सब तो नहीं कहा केवल इतना कहा कि 'आपके पिता को दारोगा ही ने मारा है और लक्ष्मीदेवी की इस शादी में भी उसने कुछ गड़बड़ किया है, गुप्त रीति पर इसकी जांच करनी चाहिए।' मगर अपने नौकर का नाम नहीं बताया क्योंकि मैं उसे बहुत चाहता था और वैसा ही उसकी हिफाजत का भी खयाल रखता था। इसमें कोई शक नहीं कि मेरा वह नौकर बहुत ही होशियार और बुद्धिमान था बल्कि इस योग्य था कि राज्य का कोई भारी काम उसके सुपुर्द किया जाता, परंतु वह जाति का कहार था इसलिए किसी बड़े मर्तबे पर न पहुंच सका।

गोपालसिंहजी ने मेरी बातें ध्यान से सुनीं मगर उन्हें उन बातों का विश्वास न हुआ क्योंकि ये मायारानी को पतिव्रताओं की नाक और दारोगा को सच्चाई तथा ईमानदारी का पुतला समझते थे। मैंने उन्हें अपनी तरफ से बहुत कुछ समझाया और कहा कि 'यह बात चाहे झूठ हो मगर आप दारोगा से हरदम होशियार रहा कीजिए और उसके कामों को जांच की निगाह से देखा कीजिए' मगर अफसोस, इन्होंने मेरी बातों पर कुछ ध्यान न दिया और इसी से मेरे साथ ही अपने को भी बर्बाद कर लिया।

इसके बाद भी कई दिनों तक मैं उन्हें समझाता रहा और ये भी हां में हां मिला देते रहे जिससे विश्वास होता था कि कुछ उद्योग करने से ये समझ जायेंगे मगर ऐसा कुछ न हुआ। एक दिन मेरे उसी नौकर ने जिसका नाम हरदीन था मुझसे फिर एकांत में कहा कि 'अब आप राजा साहब को समझाना-बुझाना छोड़ दीजिए, मुझे निश्चय हो गया कि उनकी बदकिस्मती के दिन आ गये हैं और वे आपकी बातों पर कुछ भी ध्यान न देंगे। उन्होंने बहुत बुरा किया कि आपकी बातें मारायानी और दारोगा पर प्रकट कर दीं। अब उनको समझाने के बदले आप अपनी जान बचाने की फिक्र कीजिए और अपने को हर वक्त आफत से घिरा हुआ समझिए। शुक्र है कि आपने सब बातें नहीं कह दीं, नहीं तो और भी गजब हो जाता...।'

औरों को चाहे कैसा ही कुछ खयाल हो मगर मैं अपने खिदमतगार हरदीन की बातों पर विश्वास करता था और उसे अपना खैरख्वाह समझता था। उसकी बातें सुनकर मुझे गोपालसिंह पर बेहिसाब क्रोध चढ़ आया और उसी दिन से मैंने इन्हें समझाना-बुझाना छोड़ दिया मगर इनकी मुहब्बत ने मेरा साथ न छोड़ा।

मैंने हरदीन से पूछा कि 'ये सब बातें तुझे क्योंकर मालूम हुर्ईं और होती हैं मगर उसने ठीक-ठीक न बताया, बहुत जिद करने पर कहा कि कुछ दिन और सब्र कीजिए मैं इसका भेद भी आपको बता दूंगा।

दूसरे दिन जब कि सूरज अस्त होने में दो घंटे की देर थी मैं अकेला अपने नजरबाग में टहल रहा था और इस सोच में पड़ा हुआ था कि राजा गोपालसिंह का भ्रम मिटाने के लिए अब क्या बंदोबस्त करना चाहिए। उसी समय रघुबरसिंह मेरे पास आया और साहब-सलामत करने के बाद इधर-उधर की बातें करने लगा। बात ही बात में उसने कहा कि 'आज मैंने एक घोड़ा निहायत उम्दा खरीद किया है मगर अभी तक उसका दाम नहीं दिया है, आप उस पर सवारी करके देखिए, अगर आप भी पसंद करें तो मैं उसका दाम चुका दूं। इस समय मैं उसे अपने साथ लेता आया हूं, आप उस पर सवार हो लें और मैं अपने पुराने घोड़े पर सवार होकर आपके साथ चलता हूं, चलिए दो-चार कोस का चक्कर लगा आवें...।'

मुझे घोड़े का बहुत ही शौक था। रघुबरसिंह की बातें सुनकर मैं खुश हो गया और यह सोचकर कि अगर जानवर उम्दा होगा तो खुद उसका दाम देकर अपने यहां रख लूंगा, मैंने जवाब दिया कि 'चलो देखें कैसा घोड़ा है, एक घोड़े की जरूरत मुझे भी थी'। इसके जवाब में रघुबर ने कहा कि “अच्छी बात है, अगर आपको पसंद आवे तो आप ही रख लीजियेगा।'

उन दिनों मैं रघुबरसिंह को भला आदमी, अशराफ और अपना दोस्त समझता था, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह परले सिरे का बेईमान और शैतान का भाई है, उसी तरह दारोगा को भी मैं इतना बुरा नहीं समझता था और राजा गोपालसिंह की तरह मुझे भी विश्वास था कि जमानिया की उस गुप्त कमेटी से इन दोनों का कुछ भी संबंध नहीं है, मगर हरदीन ने मेरी आंखें खोल दीं और साबित कर दिया कि जो कुछ हम सोचे हुए थे वह हमारी भूल थी।

खैर, मैं रघुबर के साथ ही बाग के बाहर निकला और दरवाजे पर आया, कसे-कसाये दो घोड़े दिखे जिनमें एक तो खास रघुबरसिंह का था और दूसरा एक नया और बहुत ही शानदार वही घोड़ा था जिसकी रघुबरसिंह ने तारीफ की थी।

मैं उस घोड़े पर सवार होने वाला ही था कि हरदीन दौड़ा-दौड़ा बदहवास मेरे पास आया और बोला, “घर में बहूजी (मेरी स्त्री) को न मालूम क्या हो गया है कि गिरकर बेहोश हो गई हैं और मुंह से खून निकल रहा है, जरा चलकर देख लीजिए।”

हरदीन की बात सुनकर मैं तरद्दुद में पड़ गया और उसे साथ लेकर घर के अंदर गया, क्योंकि हरदीन बराबर जनाने में आया-जाया करता था और उसके लिए किसी तरह का पर्दा न था। जब घर की दूसरी ड्योढ़ी मैंने लांघी तब वहां एकांत देखकर हरदीन ने मुझे रोका और कहा, 'जो कुछ मैंने आपको खबर दी वह बिल्कुल झूठ थी, बहूजी बहुत अच्छी तरह हैं।'

मैं - तो तुमने ऐसा क्यों किया?

हरदीन - इसलिए कि रघुबरसिंह के साथ जाने से आपको रोकूं।

मैं - सो क्यों?

हरदीन - इसलिए कि वह आपको धोखा देकर ले जा रहा है और आपकी जान लिया चाहता है। मैं उसके सामने आपको रोक नहीं सकता था, अगर रोकता तो उसे मेरी तरफदारी मालूम हो जाती और मैं जान से मारा जाता और फिर आपको इन दुष्टों की चालबाजियों से बचाने वाला कोई न रहता। यद्यपि मुझे अपनी जान आपसे बढ़कर प्यारी नहीं है तथापि आपकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है और यह बात आपके आधीन है, यदि आप मेरा भेद खोल देंगे तो फिर मेरा इस दुनिया में रहना मुश्किल है।

मैं - (ताज्जुब के साथ) तुम यह क्या कह रहे हो रघुबर तो हमारा दोस्त है।

हरदीन - इस दोस्त पर आप भरोसा न करें और इस समय इस मौके को टाल जायं, रात को मैं सब बातें आपको अच्छी तरह समझा दूंगा या यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास न हो तो जाइए मगर एक तमंचा कमर में छिपाकर लेते जाइए और पश्चिम तरफ कदापि न जाकर पूरब तरफ जाइए - साथ ही हर तरह से होशियार रहिए। इतनी होशियारी करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मैं जो कुछ कह रहा हूं वह सच है या झूठ।

हरदीन की बातों ने मुझे चक्कर में डाल दिया। कुछ सोचने के बाद मैंने कहा, “शाबाश हरदीन, तुमने बेशक इस समय मेरी जान बचाई, मगर खैर तुम चिंता न करो और मुझे इस दुष्ट के साथ जाने दो, अब मैं इसके पंजे में न फंसूंगा और जैसा तुमने कहा है वैसा ही करूंगा।”

इसके बाद मैं चुपचाप अपने कमरे में चला गया और एक छोटा-सा दोनाली तमंचा भरकर अपनी कमर में छिपा लेने के बाद बाहर निकला। मुझे देखते ही रघुबरसिंह ने पूछा, 'कहिए क्या हाल है मैंने जवाब दिया, 'अब तो होश में आ गई हैं, वैद्यजी को बुला लाने के लिए कह दिया है, तब तक हम लोग भी घूम आवेंगे।'

इतना कहकर मैं उस घोड़े पर सवार हो गया, रघुबरसिंह भी अपने घोड़े पर सवार हुआ और मेरे साथ चला। शहर के बाहर निकलने के बाद मैंने पूरब तरफ घोड़े को घुमाया, इसी समय रघुबरसिंह ने टोका और कहा, 'उधर नहीं पश्चिम तरफ चलिए, इधर का मैदान बहुत अच्छा और सोहावना है।'

मैं - इधर पूरब तरफ भी तो कुछ बुरा नहीं है, मैं इधर ही चलूंगा।

रघु - नहीं-नहीं, आप पश्चिम ही की तरफ चलिए, उधर एक काम और निकलेगा। दारोगा साहब भी इस घोड़े की चाल देखा चाहते थे, मैंने कह दिया था कि आप अपने घोड़े पर सवार होकर जाइये और फलानी जगह ठहरियेगा, हम लोग घूमते हुए उसी तरफ आवेंगे, वह जरूर वहां गये होंगे और हम लोगों का इंतजार कर रहे होंगे।

मैं - ऐसा ही शौक था तो दारोगा साहब भी हमारे यहां आ जाते और हम लोगों के साथ चलते!

रघु - खैर अब तो जो हो गया सो हो गया अब उनका खयाल जरूर करना चाहिए।

मैं - मुझे भी पूरब तरफ जाना बहुत जरूरी है क्योंकि एक आदमी से मिलने का वादा कर चुका हूं।

इसी तौर पर मेरे और उसके बीच बहुत देर तक हुज्जत होती रही। मैं पूरब तरफ जाना चाहता था और वह पश्चिम तरफ जाने के लिए जोर देता रहा, नतीजा यह निकला कि न पूरब ही गये न पश्चिम बल्कि लौटकर सीधे घर चले आये और यह बात रघुबरसिंह को बहुत ही बुरी मालूम हुई, उसने मुझसे मुंह फुला लिया और कुढ़ा हुआ अपने घर चला गया।

मेरा रहा-सहा शक भी जाता रहा और हरदीन की बातों पर मुझे पूरा-पूरा विश्वास हो गया, मगर मेरे दिल में इस बात की उलझन हद से ज्यादे पैदा हुई कि हरदीन को इन सब बातों की खबर क्योंकर लग जाती है। आखिर रात के समय जब एकांत हुआ तब मुझसे और हरदीन से इस तरह की बातें होने लगीं –

मैं - हरदीन, तुम्हारी बात तो ठीक निकली, उसने पश्चिम तरफ ले जाने के लिए बहुत जोर मारा मगर मैंने उसकी एक न सुनी।

हरदीन - आपने बहुत अच्छा किया नहीं तो इस समय बड़ा अंधेर हो गया होता।

मैं - खैर, यह तो बताओ कि यकायक वह मेरी जान का दुश्मन क्यों बन बैठा वह तो मेरी दोस्ती का दम भरता था!

हर - इसका सबब वही लक्ष्मीदेवी वाला भेद है। मैं अपनी भूल पर अफसोस करता हूं, मुझसे चूक हो गई जो मैंने वह भेद आपसे खोल दिया। मैंने तो राजा गोपालसिंहजी का भला करना चाहा था मगर उन्होंने नादानी करके मामला ही बिगाड़ दिया। उन्होंने जो कुछ आपसे सुना था लक्ष्मीदेवी से कहकर दारोगा और रघुबर को आपका दुश्मन बना दिया, क्योंकि उन्हीं दोनों की बदौलत वह इस दर्जे को पहुंची, इन्हीं दोनों की बदौलत हमारे महाराज (गोपालसिंह के पिता) मारे गए और इन्हीं दोनों ने लक्ष्मीदेवी ही को नहीं बल्कि उसके घर भर को बर्बाद कर दिया।

मैं - इस समय तो तुम बड़े ही ताज्जुब की बातें सुना रहे हो!

हर - मगर इन बातों को आप अपने ही दिल में रखकर जमाने की चाल के साथ काम करें नहीं तो आपको पछताना पड़ेगा। यद्यपि मैं यह कदापि न कहूंगा कि आप राजा गोपालसिंह का ध्यान छोड़ दें और उन्हें डूबने दें क्योंकि वह आपके दोस्त हैं।

मैं - जैसा तुम चाहते हो मैं वैसा ही करूंगा। अच्छा तो यह बताओ कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह पर क्या बीती?

हर - उन दोनों को दारोगा ने अपने पंजे में फंसाकर कहीं कैद कर दिया था इतना तो मुझे मालूम है मगर इसके बाद का हाल मैं कुछ भी नहीं जानता, न मालूम वे मार डाले गये या अभी तक कहीं कैद हैं। हां, उस गदाधरसिंह को इसका हाल शायद मालूम होगा जो रणधीरसिंहजी का ऐयार है और जिसने नानक की मां को धोखा देने के लिए कुछ दिन तक अपना नाम रघुबरसिंह रख लिया था तथा जिसकी बदौलत यहां की गुप्त कमेटी का भंडा फूटा है। उसने इस रघुबरसिंह और दारोगा को खूब ही छकाया है। लक्ष्मीदेवी की जगह मुंदर की शादी कर देने की बाबत इनके और हेलासिंह के बीच में जो पत्र-व्यवहार हुआ उसकी नकल भी गदाधरसिंह (रणधीरसिंह के ऐयार) के पास मौजूद है जो कि उसने समय पर काम देने के लिए असल चीठियों से अपने हाथ से नकल की थी। अफसोस, उसने रुपये के लालच में पड़कर रघुबरसिंह और दारोगा को छोड़ दिया और इस बात को छिपा रखा कि यही दोनों उस गुप्त कमेटी के मुखिया हैं। इस पाप का फल गदाधरसिंह को जरूर भोगना पड़ेगा, ताज्जुब नहीं कि एक दिन चीठियों की नकल से उसी को दुःख उठाना पड़े और वे चिट्ठियां उसी के लिए काल बन जायं।

इस समय मुझे हरदीन की वे बातें अच्छी तरह याद पड़ रही हैं। मैं देखता हूं कि जो कुछ उसने कहा था सच उतरा। उन चीठियों की नकल ने खुद भूतनाथ का गला दबा दिया जो उन दिनों गदाधरसिंह के नाम से मशहूर हो रहा था! भूतनाथ का हाल मुझे अच्छी तरह मालूम है और इधर जो कुछ हो चुका है वह सब भी मैं सुन चुका हूं मगर इतना मैं जरूर कहूंगा कि भूतनाथ के मुकदमे में तेजसिंहजी ने बहुत बड़ी गलती की। गलती तो सभों ने की मगर तेजसिंह को ऐयारों का सिरताज मानकर मैं सबके पहले इन्हीं का नाम लूंगा। इन्होंने जब लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली इत्यादि के सामने वह कागज का मुट्ठा खोला था और चीठियों को पढ़कर भूतनाथ पर इलजाम लगाया था कि 'बेशक ये चीठियां भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई हैं' तो इतना क्यों नहीं सोचा कि भूतनाथ की चीठियों के जवाब में हेलासिंह ने जो भी चीठियां भेजी हैं वे भी तो भूतनाथ ही के हाथों की लिखी हुई मालूम पड़ती हैं, तो क्या अपनी चिट्ठी का जवाब भी भूतनाथ अपने ही हाथ से लिखा करता था?

यहां तक कहकर भरतसिंह चुप हो रहे और तेजसिंह की तरफ देखने लगे। तेजसिंह ने कहा, “आपका कहना बहुत ही ठीक है, बेशक उस समय मुझसे बड़ी भूल हो गई। उनमें की एक ही चिट्ठी पढ़कर क्रोध के मारे हम लोग ऐसे पागल हो गए कि इस बात पर कुछ भी ध्यान न दे सके। बहुत दिनों के बाद जब देवीसिंह ने यह बात सुझाई तब हम लोगों को बहुत अफसोस हुआ और तब से हम लोगों का खयाल भी बदल गया।”

भरतसिंह ने कहा, “तेजसिंहजी, इस दुनिया में बड़े-बड़े चालाकों और होशियारों से यहां तक कि स्वयं विधाता ही से भूल हो गई है तो फिर हम लोगों की क्या बात है मगर मजा तो यह है कि बड़ों की भूल कहने-सुनने में नहीं आती इसीलिए आपकी भूल पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी कवि ने ठीक ही कहा है –

को कहि सके बड़ेन सों लखे बड़े ही भूल।

दीन्हें दई गुलाब के इन डारन ये फूल।।

अस्तु अब मैं पुनः अपनी कहानी शुरू करता हूं।”

इसके बाद भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया –

भरत - मैंने हरदीन से कहा कि 'अगर यह बात है तो गदाधरसिंह से मुलाकात करनी चाहिए, मगर वह मुझसे अपने भेद की बातें क्यों कहने लगा इसके अतिरिक्त वह यहां रहता भी नहीं है, कभी-कभी आ जाता है। साथ ही इसके यह जानना भी कठिन है कि वह कब आया और कब चला गया।'

हर - ठीक है, मगर मैं आपसे उनकी मुलाकात करा सकता हूं, आशा है कि वे मेरी बात मान लेंगे और आपको असल हाल भी बता देंगे। कल वह जमानिया में आने वाले हैं।

मैं - मगर मुझसे और उससे तो किसी तरह की मुलाकात नहीं है, वह मुझ पर क्यों भरोसा करेगा?

हर - कोई चिंता नहीं, मैं आपकी-उनकी मुलाकात करा दूंगा।

हरदीन की इस बात ने मुझे और भी ताज्जुब में डाल दिया, मैं सोचने लगा कि इससे और गदाधरसिंह (भूतनाथ) से ऐसी गहरी जान-पहचान क्योंकर हो गई और वह इस पर क्यों भरोसा करता है?

भरतसिंह ने अपना किस्सा यहां तक बयान किया था कि उनके काम में विघ्न पड़ गया अर्थात् उसी समय एक चोबदार ने आकर इत्तिला दी कि “भूतनाथ हाजिर हैं।” इस खबर को सुनते ही सब कोई खुश हो गये और भरतसिंह ने भी कहा, “अब मेरे किस्से में विशेष आनंद आवेगा।”

महाराज ने भूतनाथ को हाजिर करने की आज्ञा दी और भूतनाथ ने कमरे के अंदर पहुंचकर सभों को सलाम किया।

तेज - (भूतनाथ से) कहो भूतनाथ, कुशल तो है आज कई दिनों पर तुम्हारी सूरत दिखाई दी!

भूत - जी हां ईश्वर की कृपा से सब कुशल है, जितने दिन की छुट्टी लेकर गया था उसके पहले ही हाजिर हो गया हूं।

तेज - सो तो ठीक है मगर अपने सपूत लड़के का तो कुछ हाल कहो, कैसी निपटी?

भूत - निपटी क्या आपकी आज्ञा पालन की, नानक को मैंने किसी तरह की तकलीफ नहीं दी मगर सजा बहुत ही मजेदार और चटपटी दे दी गई!

देवी - (हंसते हुए) सो क्या?

भूत - मैंने उससे एक ऐसी दिल्लगी की कि वह भी खुश हो गया होगा... अगर बिल्कुल जानवर न होगा तो अब हम लोगों की तरफ कभी मुंह भी न करेगा। बात बिल्कुल मामूली थी, जब वह यहां आकर मेरी फिक्र में डूबा तो घर की हिफाजत का बंदोबस्त करने के बाद कुछ शागिर्दों को साथ लेकर उसके मकान पर पहुंच उसकी मां को उड़ा लाया मगर उसकी जगह अपने एक शागिर्द को रामदेई बनाकर छोड़ आया। यहां उसे शांता बनाकर अपने खेमे में जो इसी काम के लिए खड़ा किया था एक लौंडी के साथ सुला दिया और खुद तमाशा देखने लगा। आखिर नानक उसी को शांता समझ के उठा ले गया और खुशी-खुशी अपनी नकली मां के सामने पहुंचकर डींग हांकने लगा बल्कि उसकी आज्ञानुसार नकली शांता को खंभे के साथ बांधकर जूते से पूजा करने लगा। जब खूब दुर्गति कर चुका तब नकली रामदेई उसके सामने एक पुर्जा फेंककर घर के बाहर निकल गई। उस पुर्जे के पढ़ने से जब उसे मालूम हुआ कि मैंने जो कुछ किया अपनी ही मां के साथ किया तब वह बहुत ही शर्मिन्दा हुआ। उस समय उन दोनों की जैसी कैफियत हुई मैं क्या बयान करूं, आप लोग खुद सोच-समझ लीजिये।

भूतनाथ की बात सुनकर सब लोग हंस पड़े। महाराज ने उसे अपने पास बुलाकर बैठाया और कहा, “भूतनाथ, जरा एक दफे तुम इस किस्से को फिर बयान कर जाओ मगर जरा खुलासे तौर पर कहो।”

भूतनाथ ने हाल को विस्तार के साथ ऐसे ढंग पर दोहराया कि हंसते-हंसते सभों का दम घुटने लगा। इसके बाद जब भूतनाथ को मालूम हुआ कि भरतसिंह अपना किस्सा बयान कर रहे हैं तब उसने भरतसिंह की तरफ देखा और कहा, “मुझे भी तो आपके किस्से से कुछ संबंध है।”

भरत - बेशक! और वही हाल मैं इस समय बयान कर रहा था।

भूतनाथ - (गोपालसिंह से) क्षमा कीजियेगा, मैंने आपसे उस समय जब आप कृष्णाजिन्न बने हुए थे यह झूठ बयान किया था कि 'राजा गोपालसिंह के छूटने के बाद मैंने उन कागजों का पता लगाया है जो इस समय मेरे ही साथ दुश्मनी कर रहे हैं' इत्यादि। असल में वे कागज मेरे पास उसी जमाने में मौजूद थे, जब जमानिया में मुझसे और भरतसिंह से मुलाकात हुई थी। आप यह हाल इनकी जुबानी सुन चुके होंगे।

भरत - हां भूतनाथ, इस समय मैं वही हाल बयान कर रहा हूं, अभी कह नहीं चुका।

भूत - खैर तो अभी श्रीगणेश है। अच्छा आप बयान कीजिये।

भरतसिंह ने फिर इस तरह बयान किया –

भरत - दूसरे दिन आधी रात के समय जब मैं गहरी नींद में सोया हुआ था हरदीन ने आकर मुझे जगाया और कहा, 'लीजिये मैं गदाधरसिंहजी को ले आया हूं, उठिये और इनसे मुलाकात कीजिये, ये बड़े ही लायक और बात के धनी आदमी हैं!' मैं खुशी-खुशी उठ बैठा और बड़ी नर्मी के साथ भूतनाथ से मिला। इसके बाद मुझसे और भूतनाथ (गदाधर) से इस तरह बातचीत होने लगी –

भूत - साहब, आपका हरदीन बड़ा ही नेक और दिलावर है, ऐसे जीवट का आदमी दुनिया में कम दिखाई देगा। मैं तो इसे अपना परम हितैषी और मित्र समझता हूं, इसने मेरे साथ जो भलाइयां की हैं उनका बदला मैं किसी तरह चुका ही नहीं सकता, मुझसे आपसे कभी की जान-पहचान नहीं, मुलाकात नहीं, ऐसी अवस्था में मैं पहले-पहल बिना मतलब के आपके घर कदापि न आता परंतु इनकी इच्छा के विरुद्ध मैं नहीं चल सका, इन्होंने यहां आने के लिए कहा और मैं बेधड़क चला आया। इनकी जुबानी मैं सुन भी चुका हूं कि आजकल आप किस फेर में पड़े हुए हैं और मुझसे मिलने की जरूरत आपको क्यों पड़ी अस्तु हरदीन की आज्ञानुसार मैं वह कागज का मुट्ठा भी आपको दिखाने के लिए लेता आया हूं जिससे आपको दारोगा और रघुबरसिंह की हरामजदगी और राजा गोपालसिंह की शादी का पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायेगा, मगर खूब याद रखिये कि इस कागज को पढ़कर आप बेताब हो जायेंगे, आपको बेहिसाब गुस्सा चढ़ आवेगा और आपका दिल बेचैनी के साथ तमाम भंडा फोड़ देने के लिए तैयार हो जायगा मगर नहीं, आपको बहुत बर्दाश्त करना पड़ेगा, दिल को सम्हालना और इन बातों को हर तरह से छिपाना पड़ेगा। मुझे हरदीन ने आपका बहुत ज्यादे विश्वास दिलाया है तभी मैं यहां आया हूं और यह अनूठी चीज भी दिखाने के लिए तैयार हूं, नहीं तो कदापि न आता।

मैं - आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझ पर भरोसा किया और यहां तक चले आये, मेरी जबान से आपका रत्ती भर भेद भी किसी को नहीं मालूम हो सकता, इसका आप विश्वास रखिये। यद्यपि मैं इस बात का निश्चय कर चुका हूं कि गोपालसिंह के मामले में मैं अब कुछ भी दखल न दूंगा मगर इस बात का अफसोस जरूर है कि वह मेरे मित्र हैं और दुष्टों ने उन्हें बेतरह फंसा रखा है।

भूत - केवल आप ही को नहीं, इस बात का अफसोस मुझको भी है और मैं खुद गोपालसिंह को इस आफत से छुड़ाने का इरादा कर रहा हूं, मगर लाचार हूं कि बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी का कुछ भी पता नहीं लगता और जब तक उन दोनों का पता न लग जाय तब तक इस मामले को उठाना बड़ी भूल है।

मैं - मगर यह तो आपको निश्चय है न कि इसका कर्ताधर्ता कम्बख्त दारोगा ही है।

भूत - भला इसमें भी कुछ शक है! लीजिये इस कागज के मुट्ठे को पढ़ जाइये तब आपको भी विश्वास हो जायगा।

इतना कहकर भूतनाथ ने कागज का एक मुट्ठा निकाला और मेरे आगे रख दिया तथा मैंने भी उसे पढ़ना शुरू किया। मैं आपसे नहीं कह सकता कि उन कागजों को पढ़कर मेरे दिल की कैसी अवस्था हो गई और दारोगा तथा रघुबरसिंह पर मुझे कितना क्रोध चढ़ आया। आप लोग तो उसे पढ़-सुन चुके हैं अतएव इस बात को खुद समझ सकते हैं। मैंने भूतनाथ से कहा कि 'यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं आज ही दारोगा और रघुबरसिंह को इस दुनिया से उठा दूं।'

भूत - इससे फायदा ही क्या होगा और यह काम ही कितना बड़ा है मुझे खुद इस बात का खयाल है और मैं लक्ष्मीदेवी का पता लगाने के लिए दिल से कोशिश कर रहा हूं, तथा आपका हरदीन भी पता लगा रहा है। इस तरह समय के पहले छेड़छाड़ करने से खुद अपने को झूठा बनाना पड़ेगा और लक्ष्मीदेवी भी जहां की तहां पड़ी सड़ेगी या मर जायगी।

मैं - हां ठीक है, अच्छा यह तो बताइये कि आप हरदीन की इतनी इज्जत क्यों करते हैं।

भूत - इसलिए कि यह सब कुछ इन्हीं की बदौलत है, इन्होंने मुझे उस कमेटी का पता बताया और उसका भेद समझाया और इन्हीं की मदद से मैंने उस कमेटी का सत्यानाश किया।

मैं - (हरदीन से) और तुम्हें उस कमेटी का भेद क्योंकर मालूम हुआ

हर - (हाथ जोड़ के) माफ कीजिएगा, मैं उस कमेटी का मेम्बर था और अभी तक उन लोगों के खयाल से उन सभों का पक्षपाती बना हुआ हूं, मगर मैं ईमानदार मेंबर था इसलिए ऐसी बातें मुझे पसंद न आर्ईं और मैं गुप्त रीति से उन लोगों का दुश्मन बन बैठा, मगर इतना करने पर भी अभी तक मेरी जान इसलिए बची हुई है कि आपके घर में मेरे सिवाय और कोई इन लोगों का साथी नहीं है।

मैं - तो क्या अभी तक तुम उन लोगों के साथी बने हुए हो और वे लोग अपने दिल का हाल तुमसे कहते हैं।

हर - जी हां, तभी तो मैंने आपको रघुबरसिंह के पंजे से बचाया था जब वह आपको घोड़े पर सवार कराके ले चला था!

मैं - अगर ऐसा है तो तुम्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि उस दिन घात न लगने के कारण रघुबरसिंह ने अब कौन-सी कार्रवाई सोची है।

हर - जी हां, पहले तो उसने मुझसे पूछा था कि 'भरतसिंह ने ऐसा क्यों किया, क्या उसको मेरी नीयत का कुछ पता लग गया' जिसके जवाब में मैंने कहा कि 'नहीं, दूसरे सबब से ऐसा हुआ होगा'। इसके बाद दारोगा साहब ने मुझ पर हुक्म लगाया कि 'तू भरतसिंह को जिस तरह हो सके जहर दे दे'। मैंने कहा, 'बहुत अच्छा ऐसा ही करूंगा, मगर इस काम में पांच-सात दिन जरूर लग जायेंगे।'

इतना कह हरदीन ने भूतनाथ से पूछा कि 'कहिए अब क्या करना चाहिए' इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा कि 'अब पांच-सात दिन के बाद भरतसिंह को झूठ-मूठ हल्ला मचा देना चाहिए कि मुझको किसी ने जहर दे दिया, बल्कि कुछ बीमारी की-सी नकल भी करके दिखा देनी चाहिए।'

इसके बाद थोड़ी देर तक और भी भूतनाथ से बातचीत होती रही और किसी दिन फिर मिलने का वादा करके भूतनाथ बिदा हुआ।

इस घटना के बाद कई दफे भूतनाथ से मुलाकात हुई बल्कि कहना चाहिए कि इनके और मेरे बीच में एक प्रकार की मित्रता-सी हो गई और इन्होंने कई कामों में मेरी सहायता भी की।

जैसा कि आपस में सलाह हो चुकी थी मुझे यह मशहूर करना पड़ा कि 'मुझे किसी ने जहर दे दिया'। साथ ही इसके कुछ बीमारी की नकल भी की गई जिससे मेरे नौकर पर कम्बख्त दारोगा को शक न हो जाय मगर इसका कोई अच्छा नतीजा न निकला अर्थात् दारोगा को मालूम हो गया कि हरदीन उसका सच्चा साथी और भेदिया नहीं है।

एक दिन रात के समय एकांत में हरदीन ने मुझसे कहा, 'लीजिए अब दारोगा साहब को निश्चय हो गया कि मैं उनका सच्चा साथी नहीं हूं। आज उसने मुझे अपने पास बुलाया था मगर मैं गया नहीं क्योंकि मुझे यह निश्चय हो गया कि जाने के साथ ही मैं उसके कब्जे में आ जाऊंगा और फिर किसी तरह जान न बचेगी, यों तो छिटके रहने पर लड़ते-झगड़ते जैसा होगा देखा जायगा। अस्तु इस समय मुझे आपसे यह कहना है कि आज से मैं आपके यहां रहना छोड़ दूंगा और तब तक आपके पास न आऊंगा जब तक मैं दारोगा की तरफ से बेफिक्र न हो जाऊंगा, देखा चाहिए मेरी उससे क्योंकर निपटती है। वह मुझे मारकर निश्चिंत होता है या मैं उसे जहन्नुम में पहुंचाकर कलेजा ठंडा करता हूं। मुझे अपने मरने का रंज कुछ भी नहीं है मगर इस बात का अफसोस जरूर है कि मेरे जाने के बाद आपका मददगार यहां कोई भी नहीं है और कम्बख्त दारोगा आपको फंसाने में किसी तरह की कसर न करेगा, खैर लाचारी है क्योंकि मेरे यहां रहने से भी आपका कोई कल्याण नहीं हो सकता। यों तो मैं छिपे-छिपे कुछ-न-कुछ मदद जरूर करूंगा परंतु आप जहां तक हो सके खूब होशियारी के साथ काम कीजियेगा।'

मैं - अगर यही बात है तो तुम्हारे भागने की कोई जरूरत नहीं हम लोग दारोगा के भेदों को खोलकर खुल्लमखुल्ला उसका मुकाबला कर सकते हैं।

हर - इससे कोई फायदा नहीं हो सकता, क्योंकि हम लोगों के पास दारोगा के खिलाफ कोई सबूत नहीं है और न उसके बराबर ताकत ही है।

मैं - क्या इन भेदों को हम गोपालसिंह से नहीं खोल सकते और ऐसा करने से भी कोई काम नहीं चलेगा

हर - नहीं, ऐसा करने से जो कुछ बरस-दो बरस गोपालसिंहजी की जिंदगी है वह भी न रहेगी अर्थात् हम लोगों के साथ ही साथ वे भी मार डाले जायेंगे। आप नहीं समझ सकते और नहीं जानते कि दारोगा की असली सूरत क्या है, उसकी ताकत कैसी है, और उसके मजबूत जाल किस कारीगरी के साथ फैले हुए हैं। गोपालसिंह अपने को राजा और शक्तिमान समझते होंगे मगर में सच कहता हूं कि दारोगा के सामने उनकी कुछ भी हकीकत नहीं है, हां, यदि राजा गोपालसिंह किसी को किसी तरह की खबर किए बिना एकाएक दारोगा को गिरफ्तार करके मार डालें तो बेशक वे राजा कहला सकते हैं, मगर ऐसी अवस्था में मायारानी उन्हें जीता न छोड़ेगी और लक्ष्मीदेवी वाला भेद भी ज्यों-का-त्यों बंद रह जायगा, वह भी किसी तहखाने में पड़ी-पड़ी भूखी-प्यासी मर जाएगी।

इसी तरह पर हमारे और हरदीन के बीच में देर तक बातें होती रहीं और वह मेरी हर एक बात का जवाब देता रहा। अंत में वह मुझे समझा-बुझाकर घर से बाहर निकल गया और उसका पता न लगा।

रात भर मुझे नींद न आई और मैं तरह-तरह की बातें सोचता रह गया। सुबह को चारपाई से उठा, हाथ-मुंह धोने के बाद दरबारी कपड़े पहिरे, हरबे लगाए और राजा साहब की तरफ रवाना हुआ। जब मैं उस तिरमुहानी पर पहुंचा जहां से एक रास्ता राजा साहब के दीवानखाने की तरफ और दूसरा खास बाग की तरफ गया है तब उस जगह पर दारोगा साहब से मुलाकात हुई जो दीवानखाने की तरफ से लौटे हुए चले आ रहे थे।

प्रकट में मुझसे और दारोगा साहब से बहुत अच्छी तरह साहब-सलामत हुई और उन्होंने उदासीनता के साथ मुझसे कहा, 'आप दीवानखाने की तरफ कहां जा रहे हैं, राजा साहब तो खास बाग में चले गये, मेरे साथ चलिए मैं भी उन्हीं से मिलने के लिए जा रहा हूं, सुना है कि रात से उनकी तबीयत खराब हो रही है।'

मैं - (ताज्जुब के साथ) क्यों-क्यों, कुशल तो है?

दारोगा - अभी-अभी पता लगा है कि आधी रात के बाद से उन्हें बेहिसाब दस्त और कै आ रहे हैं। आप कृपा करके यदि मोहनजी वैद्य को अपने साथ लेते आवें तो बड़ा काम हो, मैं खुद उनकी तरफ जाने का इरादा कर रहा था।

दारोगा की बातें सुनकर मैं घबड़ा गया, राजा साहब की बीमारी का हाल सुनते ही मेरी तबीयत उदास हो गई और मैं 'बहुत अच्छा' कह उल्टे पैर लौटा और मोहनजी वैद्य की तरफ रवाना हुआ।

यहां तक अपना हाल कह कुछ देर के लिए भरतसिंह चुप हो गये और दम लेने लगे। इस समय जीतसिंह ने महाराज की तरफ देखा और कहा, “भरतसिंहजी का किस्सा दरबारे-आम में कैदियों के सामने ही सुनने लायक है।”

महाराज - बेशक ऐसा ही है। (गोपालसिंह से) तुम्हारी क्या राय है?

गोपाल - महाराज की इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ बोल न सका नहीं तो मैं भी यही सोचता था कि और नकाबपोशों की तरह इनका किस्सा भी कैदियों के सामने सुना जाय।

और सभों ने भी यही राय दी, आखिर महाराज ने हुक्म दिया कि “कल दरबारे-आम किया जाय और कैदी लोग दरबार में लाए जायं।”

दिन पहर भर से कुछ कम बाकी था जब यह छोटा-सा दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने ठिकाने चले गए। कुंअर आनंदसिंह शिकारी कपड़े पहनकर तारासिंह को साथ लिए महल के बाहर आये और दोनों दोस्त घोड़ों पर सवार हो जंगल की तरफ रवाना हो गये।

चंद्रकांता संतति

देवकीनन्दन खत्री
Chapters
चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 16 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 17 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 8