चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 13
रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है। पहाड़ के एक सुनसान दर्रे में जहां किसी आदमी का जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव जान पड़ता है, सात आदमी बैठे हुए किसी के आने का इन्तजार कर रहे हैं और उन लोगों के पास ही एक लालटेन जल रही है। यह स्थान चुनारगढ़ के तिलिस्मी मकान से लगभग छः-सात कोस की दूरी पर होगा। यह दो पहाड़ों के बीच वाला दर्रा बहुत बड़ा, पेचीला, ऊंचा-नीचा और ऐसा भयानक था कि साधारण मनुष्य एक सायत के लिए भी यहां खड़ा रहकर अपने उछलते और कांपते हुए कलेजे को सम्हाल नहीं सकता था। इस दर्रे में बहुत-सी गुफाएं ऐसी हैं जिनमें सैकड़ों आदमी आराम से रहकर दुनियादारी की आंखों से बल्कि वहम और गुमान से भी अपने को छिपा सकते हैं। और इसी से समझ लेना चाहिए कि यहां ठहरने या बैठने वाला आदमी साधारण नहीं बल्कि बड़े जीवट और कड़े दिल का होगा।
ये सातों आदमी जिन्हें हम बेफिक्री के साथ बैठे देखते हैं भूतनाथ के साथी हैं और उसी की आज्ञानुसार ऐसे स्थान में अपना घर बनाये पड़े हुए हैं। इस समय भूतनाथ यहां आने वाला है, अस्तु ये लोग भी उसी का इन्तजार कर रहे हैं।
इसी समय भूतनाथ भी उन दोनों नकाबपोशों को जिन्हें आज ही धोखा देकर गिरफ्तार किया था लिए हुए आ पहुंचा। भूतनाथ को देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए और बेहोश नकाबपोशों की गठरी उतारने में सहायता दी।
दोनों बेहोश जमीन पर सुला दिये गए और इसके बाद भूतनाथ ने अपने एक साथी की तरफ देखकर कहा, “थोड़ा पानी ले आओ, मैं इन दोनों के चेहरे धोकर देखना चाहता हूं।”
इतना सुनते ही एक आदमी दौड़ता हुआ चला गया और थोड़ी ही दूर पर एक गुफा के अन्दर घुसकर पानी का भरा हुआ लोटा लेकर चला आया। भूतनाथ ने बड़ी होशियारी से (जिसमें उनका कपड़ा भीगने न पावे) दोनों नकाबपोशों का चेहरा धोकर लालटेन की रोशनी में गौर से देखा मगर किसी तरह का फर्क न पाकर धीरे से कहा, “इन लोगों का चेहरा रंगा हुआ नहीं है।”
इसके बाद भूतनाथ ने उन दोनों को लखलखा सुंघाया जिससे वे तुरत ही होश में आकर उठ बैठे और घबराहट के साथ चारों तरफ देखने लगे। लालटेन की रोशनी में भूतनाथ के चेहरे पर निगाह पड़ते ही उन दोनों ने भूतनाथ को पहिचान लिया और हंसकर उससे कहा, “बहुत खासे! तो ये सब जाल आप ही के रचे हुए थे'
भूत - जी हां, मगर आप इस बात का खयाल भी अपने दिल में न लाइयेगा कि मैं आपको दुश्मनी की नीयत से पकड़ लाया हूं।
एक नकाबपोश - (हंसकर) नहीं-नहीं, यह बात हम लोगों के दिल में नहीं आ सकती और न तुम हमें किसी तरह का नुकसान पहुंचा ही सकते हो, मगर मैं यह पूछता हूं कि तुम्हें इस कार्रवाई के करने से फायदा क्या होगा?
भूत - आप लोगों से किसी तरह का फायदा उठाने की भी मेरी नीयत नहीं है। मैं तो केवल दो-चार बातों का जवाब पाकर ही अपनी दिलजमई कर लूंगा और इसके बाद आप लोगों को उसी ठिकाने पहुंचा दूंगा जहां से ले आया हूं।
नकाब - मगर तुम्हारा यह खयाल भी ठीक नहीं है क्योंकि तुम खुद समझ गये होगे कि हम लोग थोड़े ही दिनों के लिए अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए हैं और अपना भेद प्रकट होने नहीं देते। इसके बाद हम लोगों का भेद छिपा नहीं रहेगा, अस्तु इस बात को जानकर भी तुम्हें इतनी जल्दी क्यों पड़ी है और क्यों तुम्हारे पेट में चूहे कूद रहे हैं क्या तुम नहीं जानते कि स्वयं महाराज सुरेन्द्रसिंह और राजा वीरेन्द्रसिंह हम लोगों का भेद जानने के लिए बेताब हो रहे थे मगर कई बातों पर ध्यान देकर हम लोगों ने अपना भेद खोलने से इनकार कर दिया और कह दिया कि कुछ दिन सब्र कीजिए फिर आपसे आप हम लोग अपना भेद खोल देंगे।
नकाबपोश की कुरुखी मिली हुई बातें सुनकर यद्यपि भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया मगर क्रोध करने का मौका न देख वह चुप रह गया और नरमी के साथ फिर बातचीत करने लगा।
भूत - आपका कहना ठीक है, मैं इस बात को खूब जानता हूं, मगर मैं उन भेदों को खुलवाना नहीं चाहता जिन्हें हमारे महाराज जानना चाहते हैं, मैं तो केवल दो-चार मामूली बातें आप लोगों से पूछना चाहता हूं जिनका उत्तर देने में न तो आप लोगों का भेद ही खुलता है और न आप लोगों का कोई हर्ज ही होगा। इसके अतिरिक्त मैं वादा करता हूं कि मेरी बातों का जो कुछ आप जवाब देंगे उसे मैं किसी दूसरे पर तब तक प्रकट न करूंगा जब तक आप लोग अपना भेद न खोलेंगे।
नकाब - (कुछ सोचकर) अच्छा पूछो क्या पूछते हो?
भूत - पहिली बात तो यह पूछता हूं कि देवीसिंह के साथ मैं आप लोगों के मकान में गया था, यह बात आपको मालूम है या नहीं?
नकाब - हां मालूम है।
भूत - खैर और दूसरी बात यह है कि यहां मैंने अपने लड़के हरनामसिंह को देखा, क्या वह वास्तव में हरनामसिंह ही था?
नकाब - (कुछ क्रोध की निगाह से भूतनाथ को देखकर) हां था तो सही, फिर?
भूत - (लापरवाही के साथ) कुछ नहीं, मैं केवल अपना शक मिटाना चाहता था। अच्छा अब तीसरी बात ये जानना चाहता हूं कि वहां देवीसिंह ने अपनी स्त्री को और मैंने अपनी स्त्री को देखा था, क्या वे दोनों वास्तव में हम दोनों की स्त्रियां थीं या कोई और?
नकाब - चम्पा के बारे में पूछने वाले तुम कौन हो हां, अपनी स्त्री के बारे में पूछ सकते हो, सो मैं साफ कह देता हूं कि वह बेशक तुम्हारी स्त्री 'रामदेई' थी।
यह जवाब सुनते ही भूतनाथ चौंका और उसके चेहरे पर क्रोध और ताज्जुब की निशानी दिखाई देने लगी। भूतनाथ को निश्चय था कि उसकी स्त्री का असली नाम 'रामदेई' किसी को मालूम नहीं है मगर इस समय एक अनजान आदमी के मुंह से उसका नाम सुनकर भूतनाथ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और इस बात पर उसे क्रोध भी चढ़ आया कि मेरी स्त्री इन लोगों के पास क्यों आई, क्योंकि वह एक ऐसे स्थान पर थी जहां उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई जा नहीं सकता था, ऐसी अवस्था में निश्चय है कि वह अपनी खुशी से बाहर निकली और इन लोगों के पास आई। केवल इतना ही नहीं उसे इस बात के खयाल से और भी रंज हुआ कि मुलाकात होने पर भी उसकी स्त्री ने उससे अपने को छिपाया बल्कि एक तौर पर धोखा देकर बेवकूफ बनाया - आदि इसी तरह की बातों को परेशानी और रंज के साथ भूतनाथ सोचने लगा।
नकाब - अब जो कुछ पूछना था पूछ चुके या अभी कुछ बाकी है?
भूत - हां अभी कुछ और पूछना है।
नकाब - तो जल्दी से पूछते क्यों नहीं, सोचने क्या लग गये?
भूत - अब यह पूछना है कि मेरी स्त्री आप लोगों के पास कैसे आई और वह खुद आप लोगों के पास आई या उसके साथ जबर्दस्ती की गई?
नकाब - अब तुम दूसरी राह चले, इस बात का जवाब हम लोग नहीं दे सकते।
भूत - आखिर इसका जवाब देने में हर्ज ही क्या है?
नकाब - हो या न हो मगर हमारी खुशी भी तो कोई चीज है।
भूत - (क्रोध में आकर) ऐसी खुशी से काम नहीं चलेगा, आपको मेरी बातों का जवाब देना ही पड़ेगा।
नकाब - (हंसकर) मानो आप हम लोगों पर हुकूमत कर रहे हैं और जबर्दस्ती पूछ लेने का दावा रखते हैं?
भूत - क्यों नहीं, आखिर आप लोग इस समय मेरे कब्जे में हैं।
इतना सुनते ही नकाबपोश को भी क्रोध चढ़ आया और उसने तीखी आवाज में कहा, “इस भरोसे न रहना कि हम लोग तुम्हारे कब्जे में हैं, अगर अब तक नहीं समझते थे तो अब समझ रक्खो कि उस आदमी का तुम कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो अपने हाथों से तुम्हारे छिपे हुए ऐबों की तस्वीर बनाने वाला है। हां-हां, बेशक तुमने वह तस्वीर भी हमारे मकान में देखी होगी अगर सचमुच अपने लड़के हरनामसिंह को उस दिन देख लिया है तो।”
यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ के होशहवास दुरुस्त कर दिये। अब तक जिस जोश और दिमाग के साथ वह बैठा बातें कर रहा था वह बिल्कुल जाता रहा और घबराहट तथा परेशानी ने उसे अपना शिकार बना लिया। वह उठकर खड़ा हो गया और बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। बड़ी मुश्किल से कुछ देर में उसने अपने को सम्हाला और तब नकाबपोश की तरफ देखकर पूछा, “क्या वह तस्वीर आपके हाथ की बनाई हुई थी?'
नकाब - बेशक!
भूत - तो आप ही ने उस आदमी को वह तस्वीर दी भी होगी जो मुझ पर उस तस्वीर की बाबत दावा करने के लिये कहता था।
नकाब - इस बात का जवाब नहीं दिया जायगा।
भूत - तो क्या आप मेरे उन भेदों को दरबार में खोला चाहते हैं?
नकाब - अभी तक तो ऐसा करने का इरादा नहीं था मगर अब जैसा मुनासिब समझा जायगा वैसा किया जायगा।
भूत - उन भेदों को आपके अतिरिक्त आपकी मण्डली में और भी कोई जानता है?
नकाब - इसका जवाब देना भी उचित नहीं जान पड़ता।
भूत - आप बड़ी जबर्दस्ती करते हैं!
नकाब - जबर्दस्ती करने वाले तो तुम थे मगर अब क्या हो गया?
भूत - (तेजी के साथ) मुमकिन है कि मैं अब भी जबर्दस्ती का बर्ताव करूं। कोई क्या जान सकता है कि तुम लोगों को कौन उठा ले गया?
नकाब - (हंसकर) ठीक है, तुम समझते हो कि यह बात किसी को मालूम न होगी कि हम लोगों को भूतनाथ उठा ले गया है।
भूत - (जोर देकर) ऐसा ही है, इसके विपरीत भी क्या कोई समझा सकता है?
इतने ही में थोड़ी दूर पर से यह आवाज आई, “हां समझा सकता है और विश्वास दिला सकता है कि यह बात छिपी हुई नहीं है।” अब तो भूतनाथ की कुछ विचित्र ही हालत हो गई। वह घबड़ाकर उस तरफ देखने लगा जिधर से आवाज आई थी और फुर्ती के साथ अपने आदमियों से बोला, “पकड़ो, जाने न पाये!”
भूतनाथ के आदमी तेजी के साथ उस बोलने वाले की खोज में दौड़ गये मगर नतीजा कुछ भी न निकला अर्थात् वह आदमी गिरफ्तार न हुआ और भागकर निकल गया। यह हाल देख दोनों नकाबपोशों ने खिलखिलाकर हंस दिया और कहा, “क्यों अब तुम अपनी क्या राय कायम करते हो?'
भूत - हां मुझे विश्वास हो गया कि आपका यहां रहना छिपा नहीं रहा अथवा हमारे पीछे आपका कोई आदमी यहां तक जरूर आया है। इसमें कोई शक नहीं कि आप लोग अपने काम में पक्के हैं, कच्चे नहीं मगर ऐयारी के फन में मैंने आपको दबा लिया।
नकाब - यह दूसरी बात है, तुम ऐयार हो और हम लोग ऐयारी नहीं जानते, इतना होने पर भी तुम हमारे लिए दिन-रात परेशान रहते हो और कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता। मगर भूतनाथ, हम तुमसे फिर भी यही कहते हैं कि हम लोगों के फेर में न पड़ो और कुछ दिन सब्र करो, फिर आपसे आप हम लोगों का हाल मालूम हो जायगा। ताज्जुब है कि तुम इतने बड़े ऐयार होकर जल्दबाजी के साथ ऐसी ओछी कार्रवाई करके खुदबखुद अपना काम बिगाड़ने की कोशिश करते हो! उस दिन दरबार में तुम देख चुके हो और जान भी चुके हो कि हम लोग तुम्हारी तरफदारी करते हैं, तुम्हारे ऐबों को छिपाते हैं, और तुम्हें एक विचित्र ढंग से माफी दिलाकर खास महाराज का कृपापात्र बनाया चाहते हैं, फिर क्या सबब है कि तुम हम लोगों का पीछा करके खामखाह हमारा क्रोध बढ़ा रहे हो?
भूत - (गुस्से को दबाकर नर्मी के साथ) नहीं-नहीं, आप इस बात का गुमान भी न कीजिये कि मैं आप लोगों को दुःख दिया चाहता हूं औ...।
नकाब - (बात काटके लापरवाही के साथ) दुःख देने की बात मैं नहीं कहता, क्योंकि तुम हम लोगों को दुःख दे ही नहीं सकते।
भूत - खैर न सही मगर मैं अपने दिल की बात कहता हूं कि किसी बुरे इरादे से मैं आप लोगों का पीछा नहीं करता क्योंकि मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि आप लोग मेरे सहायक हैं। मगर क्या करूं अपनी स्त्री को आपके मकान में देखकर हैरान हूं और मेरे दिल के अन्दर तरह-तरह की बातें पैदा हो रही हैं। आज मैं इसी इरादे से आप लोगों को यहां ले आया था कि जिस तरह हो सके अपनी स्त्री का असल भेद मालूम कर लूं।
नकाब - जिस तरह हो सके के क्या मानी हम कह चुके हैं कि तुम हमें किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंचा सकते और न डरा-धमकाकर ही कुछ पूछ सकते हो क्योंकि हम लोग बड़े ही जबर्दस्त हैं।
भूत - अब इतनी ज्यादे शेखी न बघारिये, क्या आप ऐसे मजबूत हो गये कि हमारा हाथ कोई काम कर ही नहीं सकता!
नकाब - हमारे कहने का मतलब यह नहीं है बल्कि यह है कि ऐसा करने से तुम्हें कोई फायदा नहीं हो सकता, क्योंकि हमारे संगी-साथी सभी कोई तुम्हारे भेदों को जानते हैं मगर तुम्हें नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते। हमारी ही तरफ ध्यान देकर देख लो कि तुम्हारे हाथों दुःखी होकर भी तुम्हें दुःख देना नहीं चाहते और जो कुछ तुम कर चुके हो उसे सहकर बैठे हैं।
भूत - हमने आपको क्या दुःख दिया है?
नकाब - अगर हम इस बात का जवाब देंगे तो तुम औरों को तो नहीं मगर हमें पहिचान जाओगे।
भूत - अगर आपको पहिचान भी जाऊंगा तो क्या हर्ज है मैं फिर प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि जब तक आप स्वयं अपना भेद न खोलेंगे तब तक मैं अपने मुंह से कुछ भी किसी के सामने न कहूंगा, आप इसका निश्चय रखिये।
नकाब - (कुछ सोचकर) मगर हमारा जवाब सुनकर तुम्हें गुस्सा चढ़ आवेगा और ताज्जुब नहीं कि खंजर का वार कर बैठो।
भूत - नहीं-नहीं, कदापि नहीं, क्योंकि मुझे अब निश्चय हो गया कि आपका यहां आना छिपा नहीं है, अगर मैं आपके साथ कोई बुरा बर्ताव करूंगा तो किसी लायक न रहूंगा।
नकाब - हां ठीक है और बेशक बात भी ऐसी ही है। (फिर कुछ सोचकर) अच्छा तो अब तुम्हारी उस बात का जवाब देते हैं, सुनो और अपने कलेजे को अच्छी तरह सम्हालो।
भूत - कहिये मैं हर तरह से सुनने के लिये तैयार हूं।
नकाब - उस पीतल वाली सन्दूकड़ी में जिसके खुलने से तुम डरते हो, जो कुछ है वह हमारे ही शरीर का खून है, उसे तुम हमारे ही सामने से उठा ले गये थे और हमारा ही नाम 'दलीपशाह' है।
यह एक ऐसी बात थी कि जिसके सुनने की उम्मीद भूतनाथ को नहीं हो सकती थी और न भूतनाथ में इतनी ताकत थी कि ये बातें सुनकर भी अपने को सम्हाले रहता। उसका चेहरा एकदम जर्द पड़ गया, कलेजा भड़कने लगा, हाथ-पैर में कंपकंपी होने लगी, और वह सकते की-सी हालत में ताज्जुब के साथ नकाबपोश के चेहरे पर गौर करने लगा।
नकाब - तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास हुआ या नहीं?
भूत - नहीं तुम दलीपशाह कदापि नहीं हो सकते, यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है मगर मैं उसके पहिचानने में गलती नहीं कर सकता और न इसी बात की उम्मीद हो सकती है कि दलीपशाह मुझे माफ कर देगा या मेरे साथ दोस्ती का बर्ताव करेगा।
नकाब - तो मुझे दलीपशाह होने के लिए कुछ और भी सबूत देना पड़ेगा। और उस भयानक रात की ओर इशारा करना पड़ेगा जिस रात को तुमने वह कार्रवाई की थी, जिस रात को घटाटोप अंधेरी छाई हुई थी, बादल गरज रहे थे, बार-बार बिजली चमककर औरतों के कलेजों को दहला रही थी, बल्कि उसी समय एक दफे बिजली तेजी के साथ चमककर पास ही वाले खजूर के पेड़ पर गिरी थी, और तुम स्याह कम्बल की धोंधी लगाये आम की बारी में घुसकर यकायक गायब हो गये थे! कहो कुछ और भी परिचय दूं या बस!
भूत - (कांपती हुई आवाज में) बस-बस, मैं ऐसी बातें सुना नहीं चाहता। (कुछ रुककर) मगर मेरा दिल यही कह रहा है कि तुम दलीपशाह नहीं हो।
नकाब - हां! तब तो मुझे कुछ और भी कहना पड़ेगा। जिस समय तुम घर के अन्दर घुसे थे तुम्हारे हाथ में स्याह कपड़े का एक बहुत बड़ा लिफाफा था। जब मैंने तुम पर खंजर का वार किया तब वह लिफाफा तुम्हारे हाथ से गिर पड़ा और मैंने उठा लिया जो अभी तक मेरे पास मौजूद है, अगर तुम चाहो तो मैं दिखा सकता हूं।
भूत - (जिसका बदन डर के मारे कांप रहा था) बस-बस-बस, मैं तुम्हें कह चुका हूं और फिर कहता हूं कि ऐसी बातें सुना नहीं चाहता और न इसके सुनने से मुझे विश्वास ही हो सकता है कि तुम दलीपशाह हो। मुझ पर दया करो और अपनी चलती-फिरती जुबान रोको!
नकाब - अगर विश्वास नहीं हो सकता तो मैं कुछ और भी कहूंगा और अगर तुम न सुनोगे तो अपने साथी को सुनाऊंगा। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देख के) मैं उस समय अपनी चारपाई के पास बैठा कुछ लिख रहा था जब यह भूतनाथ मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। कम्बल की धोंधी एक क्षण के लिए इसके आगे की तरफ से हट गई थी और इसके कपड़े पर पड़े खून के छींटे दिखाई दे रहे थे। यद्यपि मेरी तरह इसके चेहरे पर भी नकाब पड़ी हुई थी मगर मैं खूब समझता था कि यह भूतनाथ है। मैं उठ खड़ा हुआ और फुरती के साथ इसके चेहरे पर से नकाब हटाकर इसकी सूरत देख ली। उस समय इसके चेहरे पर भी खून के छींटे पड़े हुए दिखाई दिये। भूतनाथ ने मुझे डांटकर कहा कि 'तुम हट जाओ और मुझे अपना काम करने दो।' तब मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह मेरे पास क्यों आया है और क्या चाहता है। जब मैंने पूछा कि 'तुम क्या किया चाहते हो और मैं यहां से क्यों हट जाऊं' तब इसने मुझ पर खंजर का वार किया क्योंकि यह उस समय बिल्कुल पागल हो रहा था और मालूम होता था कि उस समय अपने-पराये को पहिचान नहीं सकता...।
भूत - (बात काटकर) ओफ, बस करो, वास्तव में उस समय मुझमें अपने-पराये को पहिचानने की ताकत न थी, मैं अपनी गरज में मतवाला और साथ ही इसके अन्धा भी हो रहा था!
नकाब - हां-हां, सो तो मैं खुद ही कह रहा हूं क्योंकि तुमने उस समय अपने प्यारे लड़के को कुछ भी नहीं पहिचाना और रुपये की लालच ने तुम्हें मायारानी के तिलिस्मी दारोगा का हुक्म मानने पर मजबूर किया। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देखकर) उस समय इसकी स्त्री अर्थात् कमला की मां इससे रंज होकर मेरे घर में आई और छिपी हुई थी और जिस चारपाई के पास मैं बैठा हुआ लिख रहा था उसी पर उसका छोटा बच्चा अर्थात् कमला का छोटा भाई सो रहा था। उसकी मां अन्दर के दालान में भोजन कर रही थी और उसके पास उसकी बहिन अर्थात् भूतनाथ की साली भी बैठी हुई अपने दुःख-दर्द की कहानी के साथ ही इसकी शिकायत भी कर रही थी, उसका छोटा बच्चा उसकी गोद में था, मगर भूतनाथ...।
भूत - (बात काटता हुआ) ओफ-ओफ! बस करो, मैं सुनना नहीं चाहता, तु तु तु तुम में...।
इतना कहता हुआ भूतनाथ पागलों की तरह इधर-उधर घूमने लगा और फिर एक चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।