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चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 2

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए जीतसिंह से धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं जो चारपाई के नीचे उनके पास ही बैठे हैं। केवल जीतसिंह ही नहीं बल्कि उनके पास वे दो नकाबपोश भी बैठे हुए हैं जो दरबार में आकर लोगों को ताज्जुब में डाला करते हैं और जिनका नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह है। हम नहीं कह सकते कि ये लोग कब से इस कमरे में बैठे हुए हैं या इसके पहले इन लोगों में क्या-क्या बातें हो चुकी हैं, मगर इस समय तो ये लोग कई ऐसे मामलों पर बातचीत कर रहे हैं जिनका पूरा होना बहुत जरूरी समझा जाता है। बात करते-करते एक दफे कुछ रुककर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह से कहा, “इस राय में गोपालसिंह का भी शरीक होना उचित जान पड़ता है, किसी को भेजकर उन्हें बुलाना चाहिए।”

“जो आज्ञा” कहकर जीतसिंह उठे और कमरे के बाहर जाकर राजा गोपालसिंह को बुलाने के लिए चोबदार को हुक्म देने के बाद पुनः अपने ठिकाने पर बैठकर बातचीत करने लगे।

जीतसिंह - इसमें तो कोई शक नहीं कि भूतनाथ आदमी चालाक और पूरे दर्जे का ऐयार है मगर उसके दुश्मन लोग उस पर बेतरह टूट पड़े हैं और चाहते हैं कि जिस तरह बने उसे बर्बाद कर दें और इसलिए उसके पुराने ऐबों को उधेड़कर उसे तरह-तरह की तकलीफ दे रहे हैं।

सुरेन्द्र - ठीक है मगर हमारे साथ भूतनाथ ने सिवाय एक दफे चोरी करने के और कौन-सी बुराई की है जिसके लिए उसे हम सजा दें या बुरा कहें?

जीत - कुछ भी नहीं, और वह चोरी भी उसने किसी बुरी नीयत से नहीं की थी, इस विषय में नानक ने जो कुछ कहा था महाराज सुन ही चुके हैं।

सुरेन्द्र - हां मुझे याद है, और उसने हम लोगों पर अहसान भी बहुत किये हैं बल्कि यों कहना चाहिए कि उसी की बदौलत कमलिनी, किशोरी, लक्ष्मीदेवी और इंदिरा वगैरह की जानें बचीं और गोपालसिंह को भी उसकी मदद से बहुत फायदा पहुंचा है। इन्हीं सब बातों को सोच के तो देवीसिंह ने उसे अपना दोस्त बना लिया था मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ रखना चाहिए कि जब तक भूतनाथ का मामला तै नहीं हो जायगा तब तक लोग उसके ऐबों को खोद-खोदकर निकाला ही करेंगे और तरह-तरह की बातें गढ़ते रहेंगे।

एक नकाबपोश - सो तो ठीक है, मगर सच पूछिए तो भूतनाथ का मुकदमा ही कैसा और मामला ही क्या मुकदमा तो असल में नकली बलभद्रसिंह का है जिसने इतना बड़ा कसूर करने पर भी भूतनाथ पर इल्जाम लगाया है। उस पीतल वाली संदूकड़ी से तो हम लोगों को कोई मतलब ही नहीं, हां बाकी रह गया चीठियों वाला मुट्ठा जिसके पढ़ने से भूतनाथ लक्ष्मीदेवी का कसूरवार मालूम होता है, सो उसका जवाब भूतनाथ काफी तौर पर दे देगा और साबित कर देगा कि वे चीठियां उसके हाथ की लिखी हुई होने पर भी यह कसूरवार नहीं है और वास्तव में वह बलभद्रसिंह का दोस्त है दुश्मन नहीं।

सुरेन्द्र - (लंबी सांस लेकर) ओफओह! इस थोड़े से जमाने में कैसे-कैसे उलटफेर हो गए! बेचारे गोपालसिंह के साथ कैसी धोखेबाजियां की गईं! इन बातों पर जब हमारा ध्यान जाता है तो मारे क्रोध के बुरा हाल हो जाता है।

जीत - ठीक है, मगर खैर अब इन बातों पर क्रोध करने की जगह नहीं रही क्योंकि जो कुछ होना था हो गया। ईश्वर की कृपा से गोपालसिंह भी मौत की तकलीफ उठाकर बच गए और अब हर तरह से प्रसन्न हैं, इसके अतिरिक्त उनके दुश्मन लोग भी गिरफ्तार होकर अपने पंजे में आये हुए हैं।

सुरेन्द्र - बेशक ऐसा ही है मगर हमें कोई ऐसी सजा नहीं सूझती जो उनके दुश्मनों को देकर कलेजा ठंडा किया जाय और समझा जाय कि अब गोपालसिंह के साथ बुराई करने का बदला ले लिया गया।

महाराज सुरेन्द्रसिंह इतना कह ही रहे थे कि राजा गोपालसिंह कमरे के अंदर आते हुए दिखाई पड़े क्योंकि उनका डेरा इस कमरे से बहुत दूर न था।

राजा गोपालसिंह सलाम करके पलंग के पास बैठ गए और इसके बाद दोनों नकाबपोशों से भी साहब-सलामत करके मुस्कराते हुए बोले –

“आप लोग कब से बैठे हैं?'

एक नकाबपोश - हम लोगों को आये बहुत देर हो गई।

सुरेन्द्र - ये बेचारे कई घंटे से बैठे हुए हमारी तबीयत बहला रहे हैं और कई जरूरी बातों पर विचार कर रहे हैं।

गोपाल - वे कौन-सी बातें हैं?

सुरेन्द्र - यही लड़कों की शादी, भूतनाथ का फैसला, कैदियों का मुकदमा, कमलिनी और लाडिली के साथ उचित बर्ताव इत्यादि विषयों पर बातचीत हो रही है और सोच रहे हैं कि किस तरह क्या किया जाय तथा पहले क्या काम हो?

गोपाल - इस समय मैं भी इसी उलझन में पड़ा हुआ था। मैं सोया नहीं था बल्कि जागता हुआ इन्हीं बातों को सोच रहा था कि आपका संदेशा पहुंचा और तुरंत उठकर इस तरफ चला आया। (नकाबपोशों की तरफ बताकर) आप लोग तो अब हमारे घर के व्यक्ति हो रहे हैं अस्तु ऐसे विचारों में आप लोगों को शरीक होना ही चाहिए।

सुरेन्द्र - जीतसिंह कहते हैं कि कैदियों का मुकदमा होने और उनको सजा देने के पहले ही दोनों लड़कों की शादी हो जानी चाहिए जिससे कैदी लोग भी इस उत्सव को देखकर अपना जी जला लें और समझ लें कि उनकी बेईमानी, हरामजदगी और दुश्मनी का नतीजा क्या निकला। साथ ही इसके एक बात का फायदा और भी होगा, अर्थात् कैदियों के पक्षपाती लोग भी, जो ताज्जुब नहीं कि इस समय भी कहीं इधर-उधर छिपे मन के लड्डू बना रहे हों, समझ जायेंगे कि अब उन्हें दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं रही और न ऐसा करने से कोई फायदा ही है।

गोपाल - ठीक है, जब तक दोनों कुमारों की शादी न हो जाएगी तब तक तरह-तरह के खुटके बने ही रहेंगे। हो जाने के बाद मेहमानों के सामने ही कैदियों को जहन्नुम में पहुंचाकर दुनिया को दिखा दिया जाएगा कि बुरे कर्मों का नतीजा यह होता है।

सुरेन्द्र - खैर तो आपकी भी यही राय होती है?

गोपाल - बेशक!

सुरेन्द्र - (जीतसिंह की तरफ देखकर) तो अब हमें और किसी से राय मिलाने की जरूरत नहीं रही, आप हर तरह का बंदोबस्त शुरू कर दें और जहां-जहां न्यौता भेजना हो भेजवा दें।

जीत - जो आज्ञा। अब भूतनाथ के विषय में कुछ तै हो जाना चाहिए।

गोपाल - हम लोगों में से कौन-सा आदमी ऐसा है जो भूतनाथ के एहसान के बोझ से दबा हुआ न हो बाकी रही यह बात कि जैपाल ने भूतनाथ के हाथ की चीठियां कमलिनी और लक्ष्मीदेवी को दिखाकर भूतनाथ को दोषी ठहराया है, सो वास्तव में भूतनाथ दोषी नहीं है और इस बात का सबूत भी वह दे देगा।

सुरेन्द्र - हां तुमको तो इन सब बातों का सच्चा हाल जरूर ही मालूम होगा क्योंकि तुम्हीं ने कृष्णाजिन्न बनकर उसकी सहायता की थी, अगर वास्तव में वह दोषी होता तो तुम ऐसा करते ही क्यों?

गोपाल - बेशक यही बात है, इंदिरा का किस्सा आपको मालूम ही है क्योंकि मैंने आपको लिख भेजा था और आशा है कि आपको वे बातें याद होंगी?

सुरेन्द्र - हां मुझे बखूबी याद है, बेशक उस जमाने में भूतनाथ ने तुम लोगों की बड़ी सहायता की थी बल्कि इसी सबब से उससे और दारोगा से दुश्मनी हो गई थी, अस्तु कब हो सकता है कि भूतनाथ लक्ष्मीदेवी के साथ दगा करता जो कि दारोगा से दोस्ती और बलभद्रसिंह से दुश्मनी किए बिना हो ही नहीं सकता था! लेकिन आखिर बात क्या है, वे चीठियां भूतनाथ की लिखी हें या नहीं फिर इस जगह एक बात का और भी खयाल होता है वो यह कि उस मुट्ठे में दोनों तरफ की चीठियां मिली हुई हैं, अर्थात् जो रघुबीरसिंह ने भेजी वे भी हैं और जो रघुबर के नाम आई थीं वे भी हैं।

गोपाल - जी हां और यह बात भी बहुत से शकों को दूर करती है। असल यह है कि वे सब चीठियां भूतनाथ के हाथ की नकल की हुई हैं! वह रघुबरसिंह जो दारोगा का दोस्त था और जमानिया में रहता था उसी की यह सब कार्रवाई है और यह सब विष उसी के बोये हुए हैं। वह बहुत जगह इशारे के तौर पर अपना नाम 'भूत' लिखा करता था। आपने इंदिरा के हाल में पढ़ा होगा कि भूतनाथ बेनीसिंह बनकर बहुत दिनों तक रघुबरसिंह के यहां रह चुका है और उन दिनों यही भूतनाथ हेलासिंह के यहां रघुबरसिंह का खत लेकर आया-जाया करता था...।

सुरेन्द्र - ठीक है, मुझे याद है।

गोपाल - बस ये सब चीठियां उन्हीं चीठियों की नकलें हैं। भूतनाथ ने मौके पर दुश्मनों को कायल करने के लिए उन चीठियों की नकल कर ली थी और कुछ उनके घर से भी चुराई थीं। बस भूतनाथ की गलती या बेईमानी जो कुछ समझिये यही हुई कि उस समय कुछ नकदी फायदे के लिए उसने इस मामले को दबा रखा और उसी वक्त मुझ पर प्रकट न कर दिया। रिश्वत के लिए दारोगा को छोड़ देना और कलमदान के भेद को छिपा रखना भी भूतनाथ के ऊपर धब्बा लगाता है क्योंकि अगर ऐसा न होता तो मुझे यह बुरा दिन देखना नसीब न होता और इन्हीं भूलों पर आज भूतनाथ पछताता और अफसोस करता है। मगर आखिर में भूतनाथ ने इन बातों का बदला भी ऐसा अदा किया कि वे सब कसूर माफ कर देने के लायक हो गये।

सुरेन्द - उस कलमदान में क्या चीज थी?

गोपाल - उस कलमदान को दारोगा की उस गुप्त सभा का दफ्तर समझिये, सब सभासदों के नाम और सभा के मुख्य-मुख्य भेद उसी में बंद रहते थे, इसके अतिरिक्त दामोदरसिंह ने जो वसीयतनामा इंदिरा के नाम लिखा था वह भी उसी में बंद था।

सुरेन्द्र - ठीक है ठीक है, इंदिरा के किस्से में यह बात भी तुमने लिखी थी, हमें याद आया। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि उन दिनों लालच में पड़कर भूतनाथ ने बहुत बुरा किया और उसी सबब से तुम लोगों को तकलीफ उठानी पड़ी।

एक नकाबपोश - शायद भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि इस लालच का नतीजा कहां तक बुरा निकलेगा।

सुरेन्द्र - जो हो मगर उस समय की बातों पर ध्यान देने से यह भी कहना पड़ता है कि उन दिनों भूतनाथ एक हाथ से भलाई कर रहा था और दूसरे हाथ से बुराई।

गोपाल - ठीक है, बेशक ऐसी ही बात थी।

सुरेन्द्र - (जीतसिंह की तरफ देख के) भूतनाथ और इंद्रदेव को भी इसी समय यहां बुलाकर इस मामले को तै ही कर देना चाहिए।

“जो आज्ञा” कहकर जीतसिंह उठे और कमरे के बाहर जाकर चोबदार को हुक्म देने के बाद लौट आए। इसके बाद कुछ देर तक सन्नाटा रहा तब फिर गोपालसिंह ने कहा –

गोपाल - अपने खयाल में तो भूतनाथ ने कोई बुराई नहीं की थी क्योंकि बीस हजार अशर्फी दारोगा से वसूल करके उसे छोड़ देने पर भी उसने एक इकरारनामा लिखा लिया था कि 'वह (दारोगा) ऐसे किसी काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा कोई काम करेगा जिससे इंद्रदेव, सर्यू, इंदिरा और मुझ (गोपालसिंह) को किसी तरह का नुकसान पहुंचे'1 मगर दारोगा फिर भी बेईमानी कर ही गया और भूतनाथ इकरारनामे के भरोसे बैठा रह गया। इससे खयाल होता है कि शायद भूतनाथ को भी इन मामलों की ठीक खबर न हो अर्थात मुंदर का हाल मालूम न हुआ हो, और वह लक्ष्मीदेवी के बारे में धोखा खा गया हो तो भी ताज्जुब नहीं।

सुरेन्द्र - हो सकता है। (कुछ देर तक चुप रहने के बाद) मगर यह तो बताओ कि इन सब मामलों की खबर तुम्हें कब और क्योंकर लगी?

गोपाल - इन सब बातों का पता मुझे भूतनाथ के गुरुभाई शेरसिंह की जुबानी लगा जो भूतनाथ को भाई की तरह प्यार करता है मगर उसकी इन सब लालच-भरी कार्रवाइयों के बुरे नतीजे को सोच और उसे पूरा कसूरवार समझकर उससे डरता और नफरत करता है। जिन दिनों रोहतासगढ़ का राजा दिग्विजयसिंह किशोरी को अपने किले में ले गया था इस सबब से शेरसिंह

1. इंदिरा का किस्सा, चंद्रकान्ता संतति, पंद्रहवां भाग, पहला बयान।

ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी उन दिनों भूतनाथ छिपा-छिपा फिरता था। मगर जब शेरसिंह ने उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर डेरा डाला1 और छिपे-छिपे कमला और कामिनी की मदद करने लगा तो उन्हीं दिनों उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर भूतनाथ ने शेरसिंह से एक तौर पर (बहुत दिनों तक गायब रहने के बाद) नई मुलाकात की, मगर धर्मात्मा शेरसिंह को यह बात बहुत बुरी मालूम हुई...।

गोपालसिंह इतना कह ही रहे थे कि भूतनाथ और इंद्रदेव कमरे के अंदर आ पहुंचे और सलाम करके आज्ञानुसार जीतसिंह के पास बैठ गये।

जीत - (भूतनाथ और इंद्रदेव से) आप लोग बहुत जल्द आ गये।

इंद्रदेव - हम दोनों इसी जगह बरामदे के नीचे बाग में टहल रहे थे इसलिए चोबदार नीचे उतरने के साथ ही हम लोगों से जा मिला।

जीत - खैर, (गोपालसिंह से) हां तब?

गोपाल - अपनी नेकनामी में धब्बा लगने और बदनाम होने के डर से भूतनाथ की सूरत देखना भी शेरसिंह पसंद नहीं करता था बल्कि उसका तो यही बयान है कि 'मुझे भूतनाथ से मिलने की आशा ही न थी और मैं समझे हुए था कि अपने दोषों से लज्जित होकर भूतनाथ ने जान दे दी'। मगर जिस दिन उसने उस तहखाने में भूतनाथ की सूरत देखी, कांप उठा। उसने भूतनाथ की बहुत लानत-मलामत करने के बाद कहा कि 'अब तुम हम लोगों को अपना मुंह मत दिखाओ और हमारी जान और आबरू पर दया करके किसी दूसरे देश में चले जाओ'। मगर भूतनाथ ने इस बात को मंजूर न किया और यह कहकर अपने भाई से बिदा हुआ कि 'चुपचाप बैठे देखते रहो कि मैं किस तरह अपने पुराने परिचितों में प्रकट होकर खास राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार बनता हूं'। बस इसके बाद भूतनाथ कमलिनी से जा मिला और जी जान से उसकी मदद करने लगा। मगर शेरसिंह को यह बात पसंद न आई। यद्यपि कुछ दिनों तक शेरसिंह ने कमलिनी तथा हम लोगों का साथ दिया, मगर डरते-डरते। आखिर एक दिन शेरसिंह ने एकांत में मुझसे मुलाकात की और अपने दिल का हाल तथा मेरे विषय में जो कुछ जानता था कहने के बाद बोला, 'यह सब हाल कुछ तो मुझे अपने भाई भूतनाथ की जुबानी मालूम हुआ और कुछ रोहतासगढ़ को इस्तीफा देने के बाद तहकीकात करने से मालूम हुआ मगर इस बात की खबर हम दोनों भाइयों में से किसी को भी न थी कि आपको मायारानी ने कैद कर रखा है। खैर अब ईश्वर की कृपा से आप छूट गये हैं इसलिए आपके संबंध में जो कुछ मुझे मालूम है आपसे कह दिया, जिससे आप दुश्मनों से अच्छी तरह बदला ले सकें। अब मैं अपना मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता क्योंकि मेरा भाई भूतनाथ जिसे मैं मरा हुआ समझता था प्रकट हो गया और न मालूम क्या-क्या किया चाहता है। कहीं ऐसा न हो कि गेहूं के साथ घुन भी पिस जाए, अस्तु अब मैं जहां भागते बनेगा भाग जाऊंगा। हां राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार बन गया तो पुनः प्रकट

1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, तीसरा भाग, तेरहवां बयान।

हो जाऊंगा।' इतना कहकर शेरसिंह न मालूम कहां चला गया, मैंने बहुत कुछ समझाया मगर उसने एक न मानी। (कुछ रुककर) यही सबब है कि मुझे इन सब बातों से आगाही हो गई और भूतनाथ के भी बहुत से भेदों को जान गया।

जीत - ठीक है। (भूतनाथ की तरफ देख के) भूतनाथ, इस समय तुम्हारा ही मामला पेश है! इस जगह जितने आदमी हैं सभी कोई तुमसे हमदर्दी रखते हैं, महाराज भी तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। ताज्जुब नहीं वह दिन आज ही हो कि तुम्हारे कसूर माफ किए जायें और तुम महाराज के ऐयार बन जाओ, मगर तुम्हें अपना हाल या जो कुछ तुमसे पूछा जाय उसका जवाब सच-सच कहना और देना चाहिए। इस समय तुम्हारा ही किस्सा हो रहा है।

भूतनाथ - (खड़े होकर सलाम करने के बाद) आज्ञा के विरुद्ध कदापि न करूंगा और कोई बात छिपा न रखूंगा।

जीत - तुम्हें यह तो मालूम हो गया कि सर्यू और इंदिरा भी यहां आ गई हैं जो जमानिया के तिलिस्म में फंस गई थीं और उन्होंने अपना अनूठा किस्सा बड़े दर्द के साथ बयान किया था।

भूतनाथ - (हाथ जोड़ के) जी हां, मुझ कम्बख्त की बदौलत उन्हें उस कैद की तकलीफ भोगनी पड़ी। उन दिनों बदकिस्मती ने मुझे हद से ज्यादे लालची बना दिया था। अगर मैं लालच में पड़कर दारोगा को न छोड़ देता तो यह बात न होती। आपने सुना ही होगा कि उन दिनों हथेली पर जान लेकर मैंने कैसे-कैसे काम किये थे। मगर दौलत के लालच ने मेरे सब कामों पर मिट्टी डाल दी। अफसोस, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न हुई कि दारोगा ने अपनी प्रतिज्ञा के विरुद्ध काम किया, अगर खबर लग जाती तो उससे समझ लेता।

जीत - अच्छा यह बताओ कि तुम्हारा भाई शेरसिंह कहां है?

भूत - मेरे होने के सबब से न मालूम वह कहां जाकर छिपा बैठा है। उसे विश्वास है कि भूतनाथ जिसने बड़े-बड़े कसूर किए हैं कभी निर्दोष छूट नहीं सकता बल्कि ताज्जुब नहीं कि उसके सबब से मुझ पर भी किसी तरह का इल्जाम लगे। हां अगर वह मुझे बेकसूर छूटा हुआ देखेगा या सुनेगा तो तुरंत ही प्रकट हो जायेगा।

जीत - वह चीठियों वाला मुट्ठा तुम्हारे ही हाथ का लिखा हुआ है या नहीं?

भूत - जी वे चीठियां हैं तो मेरे ही हाथ की लिखी हुई मगर वे असल नहीं बल्कि असली चीठियों की नकल है जो कि मैंने जैपाल (रघुबरसिंह) के यहां से चोरी की थीं। असल में इन चीठियों का लिखने वाला मैं नहीं बल्कि जैपाल है।

जीत - खैर तो जब तुमने जैपाल के यहां से असल चीठियों की नकल की थी तो तुम्हें उसी समय मालूम हुआ होगा कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह पर क्या आफत आने वाली है?

भूत - क्यों न मालूम होता! परंतु रुपए के लालच में पड़कर अर्थात् कुछ लेकर मैंने जैपाल को छोड़ दिया। मगर बलभद्रसिंह से मैंने इस होनहार के बारे में इशारा जरूर कर दिया था, हां जैपाल का नाम नहीं बताया क्योंकि उससे रुपया वसूल कर चुका था। हां और यह कहना तो मैं भूल ही गया कि रुपये वसूल करने के साथ ही मैंने जैपाल से इस बात की कसम भी खिला ली थी कि अब वह लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह से किसी तरह की बुराई न करेगा। मगर अफसोस, उसने (जैपाल ने) मेरे साथ दगा करके मुझे धोखे में डाल दिया और वह काम कर गुजरा जो किया चाहता था। इसी तरह मुझे बलभद्रसिंह के बारे में भी धोखा हुआ। दुश्मनों ने उन्हें कैद कर लिया और मुझे हर तरह से विश्वास दिला दिया कि बलभद्रसिंह मर गये। लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ चालाकी दारोगा ने की उसका मुझे कुछ भी पता न लगा और न मैं कई वर्षों तक लक्ष्मीदेवी की सूरत ही देख सका कि पहचान लेता। बहुत दिनों के बाद जब मेंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा भी तो मुझे किसी तरह का शक न हुआ क्योंकि लड़कपन की सूरत और अधेड़पन की सूरत में बहुत बड़ा फर्क पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त जिन दिनों मेंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा उस समय उनकी दोनों बहिनें अर्थात् श्यामा (कमलिनी) और लाडिली भी उसके साथ रहती थीं, जब वे ही दोनों उसकी बहिन होकर धोखे में पड़ गईं तो मेरी कौन गिनती है?

बहुत दिनों के बाद जब यह कागज का मुट्ठा मेरे यहां से चोरी हो गया तब मैं घबड़ाया और डरा कि समय पर वह चोरी गया हुआ मुट्ठा मुझी को मुजरिम बना देगा, और आखिर ऐसा ही हुआ। दुष्टों ने यही कागजों का मुट्ठा कैदखाने में बलभद्रसिंह को दिखाकर मेरी तरफ से उनका दिल फेर दिया और तमाम दोष मेरे ही सिर पर थोपा। इसके बाद और भी कई वर्ष बीत जाने पर जब राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी और किसी को किसी तरह का शक न रहा तब धीरे-धीरे मुझे दारोगा और जैपाल की शैतानी का कुछ पता लगा, मगर फिर मैंने जान-बूझकर तरह दे दिया और सोचा कि अब उन बातों को खोदने से फायदा ही क्या जबकि खुद राजा गोपालसिंह ही इस दुनिया से उठ गये तो मैं किसके लिए इन बखेड़ों को उठाऊं (हाथ जोड़कर) बेशक यही मेरा कसूर है और इसलिए मेरा भाई भी रंज है। हां इधर जबकि मैंने देखा कि अब श्रीमान राजा वीरेन्द्रसिंह का दौरदौरा है और कमलिनी भी उस घर से निकल खड़ी हुई तब मैंने भी सिर उठाया और अबकी दफे नेकनामी के साथ नाम पैदा करने का इरादा कर लिया। इस बीच में मुझ पर बड़ी आफतें आर्ईं, मेरे मालिक रणधीरसिंह भी मुझसे बिगड़ गये और मैं अपना काला मुंह लेकर दुनिया से किनारे हो बैठा तथा अपने को मरा हुआ मशहूर कर दिया इत्यादि कहां तक बयान करूं, बात तो यह है कि मैं सिर से पैर तक अपने को कसूरवार समझकर भी महाराजा की शरण में आया हूं।

जीत - तुम्हारी पिछली कार्रवाई का बहुत-सा हाल महाराज को मालूम हो चुका है, उस जमाने में इंदिरा को बचाने के लिए जो कार्रवाइयां तुमने की थीं उनसे महाराज प्रसन्न हैं, खास करके इसलिए कि तुम्हारे हर एक काम में दबंगता का हिस्सा ज्यादे था और तुम सच्चे दिल से इंद्रदेव के साथ दोस्ती का हक अदा कर रहे थे, मगर इस जगह एक बात का बड़ा ताज्जुब है।

भूत - वह क्या?

जीत - इंदिरा के बारे में जो काम तुमने किये थे वे इंद्रदेव से तो तुमने जरूर ही कहे होंगे?

भूत - बेशक जो कुछ काम मैं करता था वह इंद्रदेव से पूरा-पूरा कह देता था।

जीत - तो फिर इंद्रदेव ने दारोगा को क्यों छोड़ दिया सजा देना तो दूर रहा इन्होंने गुरुभाई का नाता तक नहीं तोड़ा।

भूत - (एक लंबी सांस लेकर और उंगली से इंद्रदेव की तरफ इशारा करके) इनके जैसा भी बहादुर ओैर मुरौवत का आदमी मैंने दुनिया में नहीं देखा। इनके साथ जो कुछ सलूक मैंने किया था उसका बदला एक ही काम से इन्होंने ऐसा अदा किया कि जो इनके सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता था और जिससे मैं जन्म-भर इनके सामने सिर उठाने लायक न रहा, अर्थात् जब मैंने रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देने और कलमदान दे देने का हाल इनसे कहा तो सुनते ही इनकी आंखों में आंसू भर आये और एक लंबी सांस लेकर इन्होंने मुझसे कहा, 'भूतनाथ, तुमने यह काम बहुत ही बुरा किया। किसी दिन इसका नतीजा बहुत ही खराब निकलेगा! खैर, अब तो जो कुछ होना था हो गया, तुम मेरे दोस्त हो अस्तु जो कुछ तुम कर आये उसे मैं भी मंजूर करता हूं और दारोगा को एकदम भूल जाता हूं। अब मेरी लड़की और स्त्री पर चाहे कैसी आफत क्यों न आये और मुझे भी चाहे कितना ही कष्ट क्यों ना भोगना पड़े मगर आज से दारोगा का नाम भी न लूंगा और न अपनी स्त्री के विषय में ही किसी से कुछ जिक्र करूंगा। जो कुछ तुम्हें करना हो करो और उस कम्बख्त दारोगा से भले ही कह दो कि 'इन बातों की खबर इंद्रदेव को नहीं दी गई'। मैं भी अपने को ऐसा ही बनाऊंगा कि दारोगा को किसी तरह का खुटका न होगा और वह मुझे निरा उल्लू ही समझता रहेगा।' इंद्रदेव की यह बात मेरे कलेजे में तीर की तरह लगी और मैं यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि 'दोस्त, मुझे माफ करो, बेशक मुझसे बड़ी भूल हुई। अब मैं दारोगा को कभी न छोड़ूंगा और जो कुछ उससे लिया है उसे वापस कर दूंगा।' मगर इतना कहते ही इंद्रदेव ने मेरी कलाई पकड़ ली और जोर के साथ मुझे बैठाकर कहा, “भूतनाथ, मैंने यह बात तुमसे ताने के ढंग पर नहीं कही थी कि सुनने के साथ ही तुम उठ खड़े हुए। नहीं-नहीं, ऐसा कभी न होने पायेगा, हमने और तुमने जो कुछ किया सो किया और कहा, अब इसके विपरीत हम दोनों में से कोई भी न जा सकेगा।”

सुरेन्द्र - शाबाश!!

इतना कहकर सुरेन्द्रसिंह ने मुहब्बत की निगाह से इंद्रदेव की तरफ देखा और भूतनाथ ने फिर इस तरह कहना शुरू किया –

भूत - मैंने बहुत कुछ कहा मगर इंद्रदेव ने एक न मानी और बहुत बड़ी कसम देकर मेरा मुंह बंद कर दिया मगर इस बात का नतीजा यह निकला कि उसी दिन हम दोनों दोस्त दुनिया से उदासीन हो गये, मेरी उदासीनता में तो कुछ कसर रह गई मगर इंद्रदेव की उदासीनता में किसी तरह की कसर न रही। यही सबब था कि इंद्रदेव के हाथ से दारोगा बच गया और दारोगा इंद्रदेव की तरफ से (मेरे कहे मुताबिक) बेफिक्र रहा।

सुरेन्द्र - बेशक इंद्रदेव ने यह बड़े हौसले और सब्र का काम किया।

गोपाल - दोस्ती का हक अदा करना इसे कहते हैं, जितने एहसान भूतनाथ ने इन पर किये थे सभों का बदला एक ही बात से चुका दिया!!

भूत - (गोपालसिंह की तरफ देखकर) कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह से इंदिरा ने अपना हाल किस तरह पर बयान किया था सो मुझे मालूम न हुआ। अगर यह मालूम हो जाता तो अच्छा होता कि इंदिरा ने जो कुछ बयान किया था वह ठीक है अथवा उसने जो कुछ सुना था वह सच था?

गोपाल - जहां तक मेरा खयाल है मैं कह सकता हूं कि इंदिरा ने अपने विषय में कोई बात ज्यादे नहीं कही, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह कई बात मालूम न होने के कारण छोड़ गई हो। मैंने उसका पूरा-पूरा किस्सा महाराज को लिख भेजा था। (जीतसिंह की तरफ देख के) अगर मेरी वह चिट्ठी यहां मौजूद हो तो भूतनाथ को दे दें, उसमें से इंदिरा का किस्सा पढ़कर ये अपना शक मिटा लें।

“हां वह चिट्ठी मौजूद है” इतना कहकर जीतसिंह उठे और अलमारी से वह किताबनुमा चिट्ठी निकालकर और इंदिरा का किस्सा बताकर भूतनाथ को दे दी। भूतनाथ उसे तेजी के साथ पढ़ गया और अंत में बोला, “हां ठीक है, करीब-करीब सभी बातें उसे मालूम हो गई थीं और आज मुझे भी एक बात नई मालूम हुई अर्थात् आखिरी मर्तबे जब मैं इंदिरा को दारोगा के कब्जे से निकालकर ले गया था और अपने एक अड्डे पर हिफाजत के साथ रख गया था तो वहां से एकाएक उसका गायब हो जाना मुझे बड़ा ही दुःखदायी हुआ। मैं ताज्जुब करता था कि इंदिरा वहां से क्योंकर चली गई। जब मैंने अपने आदमियों से पूछा तो उन्होंने कहा कि 'हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम कि वह कब निकलकर भाग गई, क्योंकि हम लोग कैदियों की तरह उस पर निगाह नहीं रखते थे बल्कि घर का आदमी समझकर कुछ बेफिक्र थे'। परंतु मुझे अपने आदमियों की बात पसंद न आई और मैंने उन लोगों को सख्त सजा दी। आज मालूम हुआ कि वह कांटा मायाप्रसाद का बोया हुआ था। मैं उसे अपना दोस्त समझता था मगर अफसोस, उसने मेरे साथ बड़ी दगा की!”

गोपाल - इंदिरा की जुबानी यह किस्सा सुनकर मुझे भी निश्चय हो गया कि मायाप्रसाद दारोगा का हितू है अस्तु मैंने उसे तिलिस्म में कैद कर दिया है। अच्छा यह तो बताओ कि उस समय जब तुम आखिरी मर्तबे इंदिरा को दारोगा के यहां से निकालकर अपने अड्डे पर रख आये और लौटकर पुनः जमानिया गये तो फिर क्या हुआ, दारोगा से कैसी निपटी, और सर्यू का पता क्यों न लगा सके?

भूत - इंदिरा को उस ठिकाने रखकर जब मैं लौटा तो पुनः जमानिया गया परंतु अपनी हिफाजत के लिए पांच आदमियों को अपने साथ लेता गया और उन्हें (अपने आदमियों को) कब क्या करना चाहिए इस बात को भी अच्छी तरह समझा दिया क्योंकि वे पांचों आदमी मेरे शागिर्द थे और कुछ ऐयारी भी जानते थे। मुझे सर्यू के लिए दारोगा से फिर मुलाकात करने की जरूरत थी मगर उसके घर में जाकर मुलाकात करने का इरादा न था क्योंकि मैं खूब समझता था कि यह 'दूध का जला छाछ फूंक के पीता होगा' और मेरे लिए अपने घर में कुछ न कुछ बंदोबस्त जरूर कर रखा होगा! अगर अबकी दिलेरी के साथ उसके घर में जाऊंगा, तो बेशक फंस जाऊंगा, इसलिए बाहर ही उससे मुलाकात करने का बंदोबस्त करने लगा। खैर, इस फेर में दस-बारह दिन बीत गये और इस बीच में मुलाकात करने का कोई अच्छा मौका न मिला। पता लगाने से मालूम हुआ कि वह बीमार है और घर से बाहर नहीं निकलता। यह बात मुझे मायाप्रसाद ने कही थी मगर मैंने मायाप्रसाद से इंदिरा के बारे में कुछ भी नहीं कहा और न राजा साहब (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) ही से कुछ कहा क्योंकि दारोगा को बेदाग छोड़ देने के लिए मेरे दोस्त इंद्रदेव ने पहले ही से तै कर लिया था, अब अगर राजा साहब से मैं कुछ कहता तो दारोगा जरूर सजा पा जाता। लेकिन मैं यह नहीं कह सकता कि मायाप्रसाद और दारोगा को इस बात का पता क्योंकर लग गया कि इंदिरा फलानी जगह है। खैर मुख्तसर यह है कि एक दिन स्वयम् मायाप्रसाद ने मुझसे कहा कि गदाधरसिंह, 'मैं तुम्हें इसकी इत्तिला देता हूं कि सर्यू निःसंदेह दारोगा की कैद में है, मगर बीमार है, अगर तुम किसी तरह दारोगा के मकान में चले जाओ तो उसे जरूर अपनी आंखों से देख सकोगे। मेरी इस बात में तुम किसी तरह शक न करो, मैं बहुत पक्की बात तुमसे कह रहा हूं।' मायाप्रसाद की बात सुनकर मुझे एक दफे जोश चढ़ आया और मैं दारोगा के मकान में जाने के लिए तैयार हो गया। मैं क्या जानता था कि मायाप्रसाद दारोगा से मिला हुआ है। खैर मैं अपनी हिफाजत के लिए कई तरह का बंदोबस्त करके आधी रात के समय कमंद के जरिये दारोगा के लंबे-चौड़े और शैतान की आंत की सूरत वाले मकान में घुस गया और चोरों की तरह टोह लगाता हुआ उस कमरे में जा पहुंचा जिसमें दारोगा एक गद्दी के ऊपर उदास बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उस समय उसके बदन पर कई जगह पट्टी बंधी हुई थी जिससे वह चुटीला मालूम पड़ता था और उसके सिर का भी यही हाल था। दारोगा मुझे देखते ही चौंक उठा और आंखें चार होने के साथ ही मैंने उससे कहा, 'दारोगा साहब, मैं आपके मकान में कैद होने के लिए नहीं आया हूं बल्कि सर्यू को देखने के लिए आया हूं जिसके इस मकान में होने का पता मुझे लग चुका है। अस्तु इस समय मुझसे किसी तरह की बुराई करने की उम्मीद न रखिये क्योंकि मैं अगर आधे घंटे के अंदर इस मकान के बाहर होकर अपने साथियों के पास न चला जाऊंगा तो उन्हें विश्वास हो जायगा कि गदाधरसिंह फंस गया और तब वे लोग आपको हर तरह से बर्बाद कर डालेंगे जिसका कि मैं पूरा-पूरा बंदोबस्त कर आया हूं।'

इतना सुनते ही दारोगा खड़ा हो गया और उसने हंसकर जवाब दिया, 'मेरे लिए आपको इस कड़े प्रबंध की कोई आवश्यकता न थी और न मुझमें इतनी सामर्थ्य ही है कि आप जैसे ऐयार का मुकाबला करूं, मैं तो खुद आपकी तलाश में था कि किसी तरह आपको पाऊं और अपना कसूर माफ कराऊं। मुझे विश्वास है कि अब आप मेरा एक बड़ा कसूर माफ कर चुके हैं तो इसको भी माफ कर देंगे। गुस्से को दूर कीजिए, मैं फिर भी आपके लिए हाजिर हूं।'

मैं - (बैठकर और दारोगा को बैठाकर) कसूर माफ कर देने के लिए तो कोई हर्ज नहीं है मगर आइंदे के लिए कसूर न करने का वादा करके भी आपने मेरे साथ दगा की इसका मुझे जरूर बड़ा रंज है!

दारोगा - (हाथ जोड़कर) खैर जो हो गया सो हो गया, अब अगर फिर कोई कसूर मुझसे हो तो जो चाहे सजा दीजिएगा, मैं ओफ भी न करूंगा।

मैं - खेर एक दफे और सही, मगर कसूर के लिए आपको कुछ जुर्माना जरूर देना पड़ेगा।

दारोगा - यद्यपि आप मुझे कंगाल कर चुके हैं मगर फिर भी मैं आपकी आज्ञा-पालन के लिए हाजिर हूं।

मैं - दो हजार अशर्फी।

दारोगा - (अलमारी में से एक थैली निकालकर और मेरे सामने रखकर) बस एक हजार अशर्फी को कबूल कीजिए और...।

मैं - (मुस्कराकर) मैं कबूल करता हूं और अपनी तरफ से यह थैली आपको देकर इसके बदले में सर्यू को मांगता हूं जो इस समय आपके घर में है।

दारोगा - बेशक सर्यू मेरे घर में है और मैं उसे आपके हवाले करूंगा मगर इस थैली को आप कबूल कर लीजिए नहीं तो मैं समझूंगा कि आपने मेरा कसूर माफ नहीं किया।

मैं - नहीं-नहीं, मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैंने आपका कसूर माफ कर दिया और खुशी से यह थैली आपको वापस करता हूं, अब मुझे सिवाय सर्यू के और कुछ नहीं चाहिए।

हम दोनों में देर तक इसी तरह की बातें हुईं और इसके बाद मेरी आखिरी बात सुनकर दारोगा उठ खड़ा हुआ और मेरा हाथ पकड़कर दूसरे कमरे की तरफ यह कहता हुआ ले चला कि 'आओ मैं तुमको सर्यू के पास ले चलूं, मगर अफसोस की बात है कि इस समय वह हद दर्जे की बीमार हो रही है!' खैर वह मुझे घुमाता-फिराता एक दूसरे कमरे में ले गया और वहां मैंने एक पलंग पर सर्यू को बीमार पड़े देखा। एक मामूली चिराग उससे थोड़ी ही दूर पर जल रहा था (लंबी सांस लेकर) अफसोस, मैंने देखा कि बीमारी ने उसे आखिरी मंजिल के करीब पहुंचा दिया है और वह इतनी कमजोर हो रही है कि बात करना भी उसके लिए कठिन हो रहा है। मुझे देखते ही उसकी आंखें डबडबा आईं और मुझे भी रुलाई आने लगी। उस समय मैं उसके पास बैठ गया और अफसोस के साथ उसका मुंह देखने लगा। उस वक्त दो लौंडियां उसकी खिदमत के लिए हाजिर थीं जिनमें से एक ने आगे बढ़कर रूमाल से उसके आंसू पोंछे और पीछे हट गई। मेंने अफसोस के साथ पूछा कि 'सर्यू यह तेरा क्या हाल है?

इसके जवाब में सर्यू ने बहुत बारीक आवाज में रुककर कहा, 'भैया, (क्योंकि वह प्रायः मुझे भैया कहकर ही पुकारा करती थी) मेरी बुरी अवस्था हो रही है। अब मेरे बचने की आशा न करनी चाहिए। यद्यपि दारोगा साहब ने मुझे कैद किया था मगर मैं इनका एहसान मानती हूं कि इन्होंने मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं दी बल्कि इस बीमारी में मेरी बड़ी हिफाजत की, दवा इत्यादि का भी पूरा प्रबंध रखा, मगर यह न बताया कि मुझे कैद क्यों किया था। खैर जो हो, इस समय तो मैं आखिरी दम का इंतजार कर रही हूं और सब तरफ से मोहमाया को छोड़ ईश्वर से लौ लगाने का उद्योग कर रही हूं। मैं समझ गई हूं कि तुम मुझे लेने के लिए आए हो मगर दया करके मुझे इसी जगह रहने दो और इधर-उधर कहीं मत ले जाओ, क्योंकि इस समय मैं किसी अपने को देख मायामोह में आत्मा को फंसाना नहीं चाहती और न गंगाजी का संबंध छोड़कर दूसरी किसी जगह मरना ही पसंद करती हूं। यहां यों भी अगर गंगाजी में फेंक दी जाऊंगी तो मेरी सद्गति हो जाएगी, बस यही आखिरी प्रार्थना है। एक बात और भी है कि मेरे लिए दारोगा साहब को किसी तरह की तकलीफ न देना और ऐसा करना जिससे इनकी जरा बेइज्जती न हो, यह मेरी वसीयत है और यही मेरी आरजू। अब श्रीगंगाजी को छुड़ाकर मुझे नर्क में मत डालो' इतना कह सर्यू कुछ देर के लिए चुप हो गई और मुझे उसकी अवस्था पर रुलाई आने लगी। मैं और भी कुछ देर तक उसके पास बैठा रहा और धीरे-धीरे बातें भी होती रहीं मगर जो कुछ उसने कहा उसका तत्त्व यही था कि मुझे यहां से मत हटाओ और दारोगा को कुछ तकलीफ मत दो। उस समय मेरे दिल में यही बात आई कि इंद्रदेव को इस बात की इत्तिला दे देनी चाहिए, वह जैसी आज्ञा देंगे किया जाएगा। मगर अपना यह विचार मैंने दारोगा से नहीं कहा क्योंकि उसे मैं इंद्रदेव की तरफ से बेफिक्र कर चुका था और कह चुका था कि सर्यू और इंदिरा के साथ जो कुछ बर्ताव तुमने किया है उसकी इत्तिला मैं इंद्रदेव को न दूंगा, दूसरे को कसूरवार ठहराकर तुम्हारा नाम बचा जाऊंगा। अस्तु मैं सर्यू से दूसरे दिन मिलने का वादा करके वहां से उठा और अपने डेरे पर चला आया। यद्यपि रात बहुत कम बाकी रह गई थी परंतु मैंने उसी समय अपने एक आदमी को पत्र देकर इंद्रदेव के पास रवाना कर दिया और ताकीद कर दी कि एक घोड़ा किराए का लेकर दौड़ादौड़ चला जाय और जहां तक जल्द हो सके पत्र का जवाब लेकर लौट आवे। दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते वह आदमी लौट आया और उसने इंद्रदेव का पत्र मेरे हाथ में दिया। लिफाफा खोलकर मैंने पढ़ा, उसमें यह लिखा हुआ था –

'तुम्हारा पत्र पढ़ने से कलेजा हिल गया। सच तो यह है कि दुनिया में मुझ-सा बदनसीब भी कोई न होगा! खैर परमेश्वर की मर्जी ही ऐसी है तो मैं क्या कर सकता हूं। दारोगा के बारे में मैंने जो प्रतिज्ञा तुमसे की है उसे झूठा न होने दूंगा। मैं अपने कलेजे पर पत्थर रखकर सब-कुछ सहूंगा मगर वहां जाकर बेचारी सर्यू को अपना मुंह न दिखाऊंगा। और न दारोगा से मिलकर उसके दिल में किसी तरह का शक ही आने दूंगा, हां अगर सर्यू की जान बचती नजर आवे या इस बीमारी से बच जाय तो उसे जिस तरह मुनासिब समझना मेरे पास पहुंचा देना और अगर वह मर जाय तो मेरी जगह तुम बैठे ही हो, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया अपनी हिम्मत के मुताबिक करके मेरे पास आना। मेरी तबीयत अब दुनिया से हट गई, बस इससे ज्यादे मैं कुछ नहीं कहा चाहता, हां यदि कुछ कहना होगा तो तुमसे मुलाकात होने पर कहूंगा, आगे जो ईश्वर की मर्जी।

तुम्हारा वही - इंद्रदेव!'

इस चिट्ठी को पढ़कर मैं बहुत देर तक रोता और अफसोस करता रहा, इसके बाद उठकर दारोगा के मकान की तरफ रवाना हुआ मगर आज भी अपने बचाव का पूरा-पूरा इंतजाम करता गया। मुलाकात होने पर दारोगा ने कल से ज्यादा खातिरदारी के साथ मुझे बैठाया और देर तक बातचीत करता रहा, मगर जब मैं सर्यू के पास गया तो उसकी हालत कल से आज बहुत ज्यादे खराब देखने में आई, अर्थात् आज उसमें बोलने की भी ताकत न थी। मुख्तसर यह कि तीसरे दिन बेहोश और चौथे दिन आधी रात के समय मैंने सर्यू को मुर्दा पाया। उस समय मेरी क्या हालत थी सो मैं बयान नहीं कर सकता। अस्तु उस समय जो कुछ करना उचित था और मैं कर सकता था उसे सबेरा होने के पहले ही करके छुट्टी किया। अपने खयाल से सर्यू के शरीर की दाह क्रिया इत्यादि करके पंचतत्त्व में मिला दिया और इस बात की इत्तिला इंद्रदेव को दे दी। इसके बाद इंदिरा के लिए अपने अड्डे पर गया और वहां उसे न पाकर बड़ा ही ताज्जुब हुआ। पूछने पर मेरे आदमियों ने जवाब दिया कि 'हम लोगों को कुछ भी खबर नहीं कि कब और कहां भाग गई'। इस बात से मुझे संतोष न हुआ। मैंने आदमियों को सख्त सजा दी और बराबर इंदिरा का पता लगाता रहा। अब सर्यू के मिल जाने से मालूम हुआ कि उन दिनों मेरी कम्बख्त आंखों ने मेरे साथ दगा की और दारोगा के मकान में बीमार सर्यू को मैं पहचान न सका। मेरी आंखों के सामने सर्यू मर चुकी थी और मैंने खुद अपने हाथ से इंद्रदेव को यह समाचार लिखा था इसलिए उन्हें किसी तरह का शक न हुआ और सर्यू तथा इंदिरा के गम में ये दीवाने से हो गये, हर तरह के चैन और आराम को इन्होंने इस्तीफा दे दिया और उदासीन हो एक प्रकार से साधू ही बन बैठे। मुझसे भी मुहब्बत कम कर दी और शहर का रहना छोड़ अपने तिलिस्म के अंदर चले गये और उसी में रहने लगे, मगर न मालूम क्या सोचकर इन्होंने मुझे वहां का रास्ता न बताया। मुझ पर भी इस मामले का बड़ा असर पड़ा क्योंकि ये सब बातें मेरी ही नालायकी के सबब से हुई थीं अतएव मैंने उदासीन हो रणधीरसिंहजी की नौकरी छोड़ दी और अपने बाल-बच्चों और स्त्री को भी उन्हीं के यहां छोड़ बिना किसी को कुछ कहे जंगल और पहाड़ों का रास्ता लिया। उधर एक स्त्री से मैंने शादी कर ली थी जिससे नानक पैदा हुआ है। उधर भी कई ऐसे मामले हो गए जिनसे मैं बहुत उदास और परेशान हो रहा था, उसका हाल नानक की जुबानी तेजसिंह को मालूम ही हो चुका है बल्कि आप लोगों ने भी सुना होगा। अस्तु हर तरह से अपने को नालायक समझकर मैं निकल भागा और फिर मुद्दत तक अपना मुंह किसी को नहीं दिखाया। इधर जब जमाने ने पलटा खाया तब मैं कमलिनीजी से जा मिला। उन दिनों मेरे दिल में विश्वास हो गया था कि इंद्रदेव मुझसे रंज हैं अतः मैंने इनसे भी मिलना-जुलना छोड़ दिया बल्कि यों कहना चाहिए कि हमारी पुरानी दोस्ती का उन दिनों अंत हो गया था।

इंद्र - बेशक यही बात थी। स्त्री के मरने की खबर सुनकर मुझे बड़ा ही रंज हुआ। मुझे कुछ तो भूतनाथ की जुबानी और कुछ तहकीकात करने पर मालूम हो ही चुका था कि मेरी लड़की और स्त्री इसी की बदौलत जहन्नुम में मिल गईं, अस्तु मैंने भूतनाथ की दोस्ती को तिलांजलि दे दी और मिलना-जुलना बिल्कुल बंद कर दिया मगर इससे कहा कुछ भी नहीं। क्योंकि मैं अपनी जुबान से दारोगा को माफ कर चुका था, इसके अतिरिक्त इसने मुझ पर कुछ एहसान भी जरूर ही किए थे, उनका भी खयाल था अस्तु मैंने कुछ कहा तो नहीं मगर इसकी तरफ से दिल हटा लिया और फिर अपना कोई भेद भी इसे नहीं बताया। कभी-कभी इससे मुझसे इधर-उधर मुलाकात हो जाती थी क्योंकि इसे मैंने अपने मकान का तिलिस्मी रास्ता नहीं दिखाया था। अगर यह कभी मेरे मकान पर आया भी तो आंखों में पट्टी बांधकर। यही सबब था कि इसे लक्ष्मीदेवी का हाल मालूम न था। लक्ष्मीदेवी के बारे में भी मैं इसे कसूरवार समझता था और मुझे यह भी विश्वास था कि यह अपना बहुत-सा भेद मुझसे छिपाता है और वास्तव में छिपाता था भी।

भूत - (इंद्रदेव से) नहीं सो बात तो नहीं है मेरे कृपालु मित्र।

इंद्र - अगर यह बात नहीं है तो वह कलमदान जिसे तुम आखिरी मर्तबे इंदिरा के साथ दारोगा के यहां से उठा लाये और मुझे दे गये थे मेरे यहां से गायब क्यों हो गया?

भूत - (मुस्कराकर) आपके किस मकान में से वह कलमदान गायब हो गया था?

इंद्र - काशीजी वाले मकान में से। उसी दिन तुम मुझसे मिलने के लिए वहां आये थे और उसी दिन वह कलमदान गायब हो गया।

भूत - ठीक है, तो उस कलमदान को चुराने वाला मैं नहीं हूं बल्कि मेरा लड़का नानक है, मैं तो यों भी अगर जरूरत पड़ती तो तुमसे वह कलमदान मांग सकता था। दारोगा की आज्ञानुसार लाडिली ने रामभोली बनकर नानक को धोखा दिया और आपके यहां से कलमदान चुरवा मंगवाया।1

गोपाल - हां ठीक है। इस बात को तो मैं भी स्वीकार करूंगा क्योंकि मुझे इसका असल हाल मालूम है। बेशक इसी ढंग से वह कलमदान वहां पहुंचा था और अंत में बड़ी मुश्किल से उस समय मेरे हाथ लगा, जब मैं कृष्णाजिन्न बनकर रोहतासगढ़ पहुंचा था। नानक को विश्वास है कि लाडिली ने रामभोली बनकर उसे धोखा दिया था मगर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। वह एक दूसरी ही ऐयारा थी जो रामभोली बनी थी, लाडिली ने तो केवल एक या दो दिन रामभोली का रूप धरा था।

जीत - (राजा गोपालसिंह से) वह कलमदान आपको कहां से मिल गया, दारोगा ने तो उसे बड़ी ही हिफाजत से रखा होगा!

1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, चौथा भाग, छठवां बयान।

गोपाल - बेशक ऐसा ही है मगर भूतनाथ की बदौलत वह मुझे सहज ही में मिल गया। ऐसी-ऐसी चीजों को दारोगा बहुत गुप्त रीति से अपने अजायबघर में रखता था जिसकी ताली मायारानी से लेकर भूतनाथ ने मुझे दी थी। उस अजायबघर का भेद मेरे पिता और उस दारोगा के सिवाय कोई नहीं जानता था। मेरे पिता ही ने दारोगा को वहां का मालिक बना दिया था। जब भूतनाथ ने उसकी ताली मुझे ला दी तब मुझे वहां का पूरा-पूरा हाल मालूम हुआ।

जीत - (भूतनाथ से) खैर यह बताओ कि मनोरमा और नागर से तुमसे क्या संबंध था?

यह सवाल सुनकर भूतनाथ सन्न हो गया और सिर झुकाकर कुछ सोचने लगा। उस समय गोपालसिंह ने उसकी मदद की और जीतसिंह की तरफ देखकर कहा, “इस सवाल को छोड़ दीजिए क्योंकि वह जमाना भूतनाथ का बहुत ही बुरा तथा ऐयाशी का था। इसके अतिरिक्त जिस तरह राजा वीरेन्द्रसिंह ने रोहतासगढ़ के तहखाने में भूतनाथ का कसूर माफ किया था उसी तरह कमलिनी ने भी इसका वह कसूर कसम खाकर माफ कर दिया और साथ ही इसके उन ऐबों को छिपाने का बंदोबस्त कर दिया है।” उसके जवाब में जीतसिंह ने कहा, “खैर जाने दो देखा जायगा।”

गोपाल - जब से भूतनाथ ने कमलिनी का साथ किया है तब से इसने (भूतनाथ ने) जो-जो काम किये हैं उन पर ध्यान देने से आश्चर्य होता है। वास्तव में इसने वह काम किये हैं जिनकी ऐसे समय में सख्त जरूरत थी, मगर इसका लड़का नानक तो बिल्कुल ही बोदा और खुदगर्ज निकला। न तो कमलिनी के साथ मिलकर उसने कोई तारीफ का काम किया और न अपने बाप ही को किसी तरह की मदद पहुंचाई।

भूत - बेशक ऐसा ही हे, मैंने कई दफा उसे समझाया मगर...।

सुरेन्द्र - (गोपाल से) अच्छा अजायबघर में क्या बात है जिससे ऐसा अनूठा नाम उसका रखा गया। अब तो तुम्हें उसका पूरा-पूरा हाल मालूम हो ही गया होगा।

गोपाल - जी हां। एक किताब है जिसे 'ताली' के नाम से संबोधन करते हैं, उसके पढ़ने से वहां का कुल हाल मालूम होता है। वह बड़े हिफाजत और तमाशे की जगह थी और कुछ है भी क्योंकि अब उसका काफी हिस्सा मायारानी की बदौलत बर्बाद हो गया।

जीत - उस किताब (ताली) की बदौलत मायारानी को भी वहां का हाल मालूम हो गया होगा।

गोपाल - कुछ-कुछ। क्योंकि वह उस किताब की भाषा अच्छी तरह समझ नहीं सकती थी। इसके अतिरिक्त उस अजायबघर का जमानिया के तिलिस्म से भी संबंध है इसलिए कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह को वहां का हाल मुझसे भी ज्यादे मालूम हुआ होगा।

जीत - ठीक है, (सुरेन्द्रसिंह की तरफ देख के) आज यद्यपि बहुत-सी नई बातें मालूम हुई हैं परंतु फिर भी जब तक दोनों कुमार यहां न आ जायंगे तब तक बहुत-सी बातों का पता न लगेगा।

सुरेन्द्र - सो तो हई है, परंतु इस समय हम केवल भूतनाथ के मामले को तय किया चाहते हैं। जहां तक मालूम हुआ हे भूतनाथ ने हम लोगों के साथ सिवाय भलाई के बुराई कुछ भी नहीं की। अगर उसने बुराई की तो इंद्रदेव के साथ या कुछ गोपालसिंह के साथ, तो भी उस जमाने में जब इनसे और हमसे कुछ संबंध नहीं था। आज ईश्वर की कृपा से ये लोग हमारे साथ हैं बल्कि हमारे अंग हैं इससे कहा भी जा सकता है कि भूतनाथ हमारा ही कसूरवार है मगर फिर भी हम इसके कसूरों की माफी का अख्तियार इन्हीं दोनों अर्थात् गोपालसिंह और इंद्रदेव को देते हैं। ये दोनों अगर भूतनाथ का कसूर माफ कर दें तो हम इस बात को खुशी से मंजूर कर लेंगे। हां लोग यह कह सकते हैं कि इस माफी देने में बलभद्रसिंह को भी शरीक करना चाहिए था। मगर हम इस बात को जरूरी नहीं समझते क्योंकि इस समय बलभद्रसिंह को कैद से छुड़ाकर भूतनाथ ने उन पर बल्कि सच तो ये है कि हम लोगों पर भी बहुत बड़ा अहसान किया है। इसलिए अगर बलभद्रसिंह को इससे कुछ रंज हो तो भी माफी देने में वे कुछ उज्र नहीं कर सकते।

गोपाल - इसी तरह हम दोनों को भी माफी देने में किसी तरह का उज्र न होना चाहिए। इस समय भूतनाथ ने मेरी बहुत बड़ी मदद की है और मेरे साथ मिलकर ऐसे अनूठे काम किये हैं कि जिनकी तारीफ सहज में नहीं हो सकती। इस हमदर्दी और मदद के सामने उन कसूरों की कुछ भी हकीकत नहीं अस्तु मैं इससे बहुत प्रसन्न हूं और सच्चे दिल से इसे माफी देता हूं।

इंद्रदेव - माफी देनी ही चाहिए और जब आप माफी दे चुके तो मैं भी दे चुका, ईश्वर भूतनाथ पर कृपा करे जिससे अपनी नेकनामी बढ़ाने का शौक इसके दिल में दिन-दिन तरक्की करता रहे। सच तो यह है कि कमलिनी की बदौलत इस समय हम लोगों को यह शुभ दिन देखने में आया और जब कमलिनी ने इससे प्रसन्न हो इसके कसूर माफ कर दिए तो हम लोगों को बाल बराबर भी उज्र नहीं हो सकता।

जीत - बेशक, बेशक!

सुरेन्द्र - इसमें कुछ भी शक नहीं! (भूतनाथ की तरफ देख के) अच्छा भूतनाथ, तुम्हारा सब कसूर माफ किया जाता है और इन दिनों हम लोगों के साथ तुमने जो-जो नेकियां की हैं उनके बदले में हम तुम पर भरोसा करके तुम्हें अपना ऐयार बनाते हैं।

इतना कहकर सुरेन्द्रसिंह उठ बैठे और अपने सिरहाने के नीचे से अपना खास बेशकीमती खंजर निकालकर भूतनाथ की तरफ बढ़ाया। भूतनाथ खड़ा हो गया और झुककर सलाम करने के बाद खंजर ले लिया और इसके बाद जीतसिंह, गोपालसिंह और इंद्रदेव को भी सलाम किया। जीतसिंह ने अपना खास ऐयारी का बटुआ भूतनाथ को दे दिया। गोपालसिंह ने वह तिलिस्मी तमंचा जिससे आखिरी वक्त मायारानी ने काम लिया था और जो इस समय उनके पास था, गोली बनाने की तरकीब सहित भूतनाथ को दिया और इंद्रदेव ने यह कहकर उसे गले से लगा लिया कि “मुझ फकीर के पास इससे बढ़कर और कोई चीज नहीं है कि मैं फिर तुम्हें अपना भाई बनाकर ईश्वर से प्रार्थना करूं कि अब इस नाते में किसी तरह का फर्क न पड़ने पावे।”

इसके बाद दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गये और भूतनाथ ने हाथ जोड़कर सुरेन्द्रसिंह से कहा, “आज मैं समझता हूं कि मुझ-सा खुशनसीब इस दुनिया में दूसरा कोई भी नहीं है। बदनसीबी के चक्कर में पड़कर मैं वर्षों परेशान रहा, तरह-तरह की तकलीफें उठाईं, पहाड़-पहाड़ और जंगल-जंगल मारा फिरा, साथ ही इसके पैदा भी बहुत ही किया, और बिगाड़ा भी बहुत परंतु सच्चा सुख नाममात्र के लिए एक दिन भी न मिला और न किसी को मुंह दिखाने की अभिलाषा ही रह गई। अंत में न मालूम किस जन्म का पुण्य सहायक हुआ जिसने मेरे रास्ते को बदल दिया और जिसकी बदौलत आज मैं इस दर्जे को पहुंचा। अब मुझे किसी बात की परवाह नहीं रही। आज तक जो मुझसे दुश्मनी रखते थे कल से वे मेरी खुशामद करेंगे, क्योंकि दुनिया का कायदा ही ऐसा है। महाराज इस बात का भी निश्चय रखें कि उस पीतल की सन्दूकड़ी से महाराज या महाराज के पक्षपातियों का कुछ भी संबंध नहीं है, जो नकली बलभद्रसिंह की गठरी में से निकली है और जिसके ध्यान ही से मेरे रोंगटे खड़े होते हैं। मैं उस भेद को भी महाराज से छिपाया नहीं चाहता, हां यह इच्छा है कि सर्वसाधारण में वह भेद फैलने न पावे। मैंने उसका कुछ हाल देवीसिंह से कह दिया है, आशा है कि वे महाराज से जरूर अर्ज करेंगे।

जीत - खैर उसके लिए तुम चिंता न करो, जैसा होगा देखा जायगा। अब अपने डेरे पर जाकर आराम करो, महाराज भी आज रात भर जागते ही रहे हैं।

गोपाल - जी हां, अब तो नाममात्र को रात बच गई होगी।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह उठ खड़े हुए और सभों को साथ लिए हुए कमरे के बाहर चले गए।

चंद्रकांता संतति

देवकीनन्दन खत्री
Chapters
चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 16 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 17 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 8