Get it on Google Play
Download on the App Store

चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 6

जिस राह से कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को राजा गोपालसिंह इस बाग में लाये थे उसी राह से जाकर ये दोनों भाई उस कमरे में पहुंचे जो कि बाजे वाले कमरे में जाने के पहिले पड़ता था और जिसमें महराबदार चार खम्भों के सहारे एक बनावटी आदमी फांसी लटक रहा था। इस कमरे का खुलासा हाल एक दफे लिखा जा चुका है इसलिए यहां पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। पाठकों को यह भी याद होगा कि इन्दिरा का किस्सा सुनने के पहिले ही कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह उस तिलिस्मी बाजे की आवाज ताली देकर अच्छी तरह सुन-समझ चुके हैं। यदि याद न हो तो तिलिस्म सम्बन्धी पिछला किस्सा पुनः पढ़ जाना चाहिए क्योंकि अब ये दोनों भाई तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाते हैं।

कमरे में पहुंचने के बाद दोनों भाइयों ने देखा कि फांसी लटकते हुए आदमी के नीचे जो मूरत (इन्दिरा के ढंग की) खड़ी थी वह इस समय तेजी के साथ नाच रही है। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर का एक वार करके उस मूरत को दो टुकड़े कर दिया, अर्थात् कमर से ऊपर वाला हिस्सा काटकर गिरा दिया। उसी समय उस मूरत का नाचना बन्द हो गया और वह भयानक आवाज भी जो बड़ी देर से तमाम बाग में और इस कमरे में भी गूंज रही थी एकदम बन्द हो गई। इसके बाद दोनों भाइयों ने उस बची हुई आधी मूरत को भी जोर करके जमीन से उखाड़ डाला। उस समय मालूम हुआ कि उसके दाहिने पैर के तलवे में लोहे की जंजीर जड़ी है, इसके खींचने से दाहिनी तरफ वाली दीवार में एक नया दरवाजा निकल आया।

तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद और एक खुला हुआ दरवाजा लांघकर एक छोटी-सी कोठरी में पहुंचे जिसके ऊपर चढ़ जाने के लिए दस-बारह सीढ़ियां बनी हुई थीं। दोनों भाई सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर के कमरे में पहुंचे जिसकी लम्बाई पचास हाथ और चौड़ाई चालीस हाथ से कम न होगी। यह कमरा काहे को था, एक छोटा-सा बनावटी बागीचा मन मोहने वाला था। यद्यपि इसमें फूल-बूटों के जितने पेड़ लगे हुए थे सब बनावटी थे मगर फिर भी जान पड़ता था कि फूलों की खुशबू से वह कमरा अच्छी तरह बसा हुआ है। इस कमरे की छत में बहुत मोटे-मोटे शीशे लगे हुए थे जिनमें से बे रोक-टोक पहुंचने वाली रोशनी के कारण कमरे भर में उजाला हो रहा था। वे शीशे चौड़े या चपटे न थे बल्कि गोल गुम्बज की तरह बने हुए थे।

इस छोटे बनावटी बागीचे में छोटी-छोटी मगर बहुत खूबसूरत क्यारियां बनी हुई थीं और उन क्यारियों के चारों तरफ की जमीन पत्थर के छोटे-छोटे रंग-बिरंगे टुकड़ों से बनी हुई थी। बीच में एक गोलाम्बर (चबूतरा) बना हुआ था उसके ऊपर एक औरत खड़ी हुई मालूम पड़ती थी जिसके बाएं हाथ में एक तलवार और दाहिने में हाथ-भर लम्बी एक ताली थी।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द करके आनन्दसिंह की तरफ देखा और कहा, “यह औरत निःसन्देह लोहे या पीतल की बनी हुई होगी और यह ताली भी वही होगी जिसकी हम लोगों को जरूरत है, मगर तिलिस्मी बाजे ने तो यह कहा था कि 'ताली किसी चलती-फिरती से प्राप्त करोगे', यह औरत तो चलती-फिरती नहीं है, खड़ी है!”

आनन्द - उसके पास तो चलिए, देखें वह ताली कैसी है।

इन्द्रजीत - चलो।

दोनों भाई उस गोलाम्बर की तरफ बढ़े मगर उसके पास न जा सके। तीन-चार हाथ इधर ही थे कि एक प्रकार की आवाज के साथ वहां की जमीन हिली और गोलाम्बर (जिस पर पुतली थी) तेजी से चक्कर खाने लगा और उसी के साथ वह नकली औरत (पुतली) भी घूमने लगी जिसके हाथ में तलवार और ताली थी। घूमने के समय उसका ताली वाला हाथ ऊंचा हो गया और तलवार वाला हाथा आगे की तरफ बढ़ गया जो उसके चक्कर की तेजी में चक्र का काम कर रहा था।

आनन्द - कहिए भाईजी, अब यह औरत या पुतली चलती-फिरती हो गई या नहीं?

इन्द्रजीत - हां, हो तो गई।

आनन्द - अब जिस तरह हो सके इसके हाथ से ताली ले लेनी चाहिए, गोलाम्बर पर जाने वाला तो तुरन्त दो टुकड़े हो जायगा।

इन्द्रजीत - (पीछे हटते हुए) देखें हट जाने पर इसका घूमना बन्द होता है या नहीं।

आनन्द - (पीछे हटकर) देखिये गोलाम्बर का घूमना बन्द हो गया! बस यही काला पत्थर चार हाथ के लगभग चौड़ा जो इस गोलाम्बर के चारों तरफ लगा है असल करामात है, इस पर पैर रखने ही से गोलाम्बर घूमने लगाता है। (काले पत्थर के ऊपर जाकर) देखिये घूमने लग गया। (हटकर) अब बन्द हो गया। अब समझ गया, इस पुतली के हाथ से ताली और तलवार ले लेना कोई बड़ी बात नहीं।

इतना कहकर आनन्दसिंह ने एक छलांग मारी और काले पत्थर पर पैर रक्खे बिना ही कूदकर गोलाम्बर के ऊपर चले गये। गोलाम्बर ज्यों-का-त्यों अपने ठिकाने जमा रहा और आनन्दसिंह पुतली के हाथ से ताली तथा तलवार लेकर जिस तरह वहां गए थे उसी तरह कूदकर अपने भाई के पास चले आये और बोले - “कहिये क्या मजे में ताली ले आए!”

इन्द्रजीत - बेशक! (ताली हाथ में लेकर) यह अजब ढंग की बनी हुई है। (गौर से देखकर) इस पर कुछ अक्षर भी खुदे मालूम पड़ते हैं। मगर बिना तेज रोशनी के इनका पढ़ा जाना मुश्किल है!

आनन्द - मैं तिलिस्मी खंजर की रोशनी करता हूं, आप पढ़िये।

इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खजर की रोशनी में उसे पढ़ा और आनन्दसिंह को समझाया, इसके बाद दोनों भाई कूदकर उस गोलाम्बर पर चले गये जिस पर हाथ में ताली लिए हुए वह पुतली खड़ी थी। ढूंढ़ने और गौर से देखने पर दोनों भाइयों को मालूम हुआ कि उसी पुतली के दाहिने पर में एक छेद ऐसा है जिसमें वह तलवार जो पुतली के हाथ से ली गई थी बखूबी घुस जाय। भाई की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने वही पुतली वाली तलवार उस छेद में डाल दी, यहां तक कि पूरी तलवार छेद के अन्दर चली गई और केवल उसका कब्जा बाहर रह गया। उस समय दोनों भाइयों ने मजबूती के साथ उस पुतली को पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद गोलाम्बर के नीचे आवाज आई और पहिले की तरह पुनः वह गोलाम्बर पुतली सहित घूमने लगा। पहिले धीरे-धीरे मगर फिर क्रमशः तेजी के साथ वह गोलाम्बर घूमने लगा। उस समय दोनों भाइयों के हाथ उस पुतली के साथ ऐसे चिपक गये कि मालूम होता था छुड़ाने से भी नहीं छुटेंगे। वह गोलाम्बर घूमता हुआ जमीन के अन्दर धंसने लगा और सिर में चक्कर आने के कारण दोनों भाई बेहोश हो गए।

जब वे होश में आये तो आंखें खोलकर चारों तरफ देखने लगे मगर अन्धकार के सिवाय और कुछ भी दिखाई न दिया, उस समय इन्द्रजीतसिंह ने अपने तिलिस्मी खंजर के जरिये से रोशनी की और इधर-उधर देखने लगे। अपने छोटे भाई को पास ही में बैठे पाया और उस पुतली को भी टुकड़े-टुकड़े भई उसी जगह देखा जिसके टुकड़े कुछ गोलाम्बर के ऊपर और कुछ जमीन पर छितराये हुए थे।

इस समय भी दोनों भाइयों ने अपने को उसी गोलाम्बर पर पाया और इससे समझे कि यह गोलाम्बर ही धंसता हुआ इस नीचे वाली जमीन के साथ आ लगा है, मगर जब छत की तरफ निगाह की तो किसी तरह का निशान या छेद न देखकर छत को बराबर और बिल्कुल साफ पाया। अब जहां पर दोनों भाई थे वह कोठरी बनिस्बत ऊपर वाले (या पहिले) कमरे के बहुत छोटी थी। चारों तरफ तरह-तरह के कल-पुर्जे दिखाई दे रहे थे जिनमें से निकलकर फैले हुए लोहे के तार और लोहे की जंजीरें जाल की तरह बिल्कुल कोठरी को घेरे हुए थीं। बहुत-सी जंजीरें ऐसी थीं जो छत में, बहुत-सी दीवार में, और बहुत-सी जमीन के अन्दर घुसी हुई थीं। इन्द्रजीतसिंह के सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा था जिसके अन्दर दोनों कुमारों को जाना पड़ता अस्तु दोनों कुमार गोलाम्बर के नीचे उतरे और तारों तथा जंजीरों से बचते हुए उस दरवाजे के अन्दर गये। वह रास्ता एक सुरंग की तरह था जिसकी छत, जमीन और दोनों तरफ की दीवारें मजबूत पत्थर की बनी हुई थीं। दोनों कुमार थोड़ी दूर तक उसमें बराबर चलते गये और इसके बाद एक ऐसी जगह पहुंचे जहां ऊपर की तरफ निगाह करने से आसमान दिखाई देता था। गौर करने से दोनों कुमारों को मालूम हुआ कि यह स्थान वास्तव में कुएं की तरह है। इसकी जमीन (किसी कारण से) बहुत ही नरम और गुदगुदी थी। बीच में एक पतला लोहे का खंभा था और खंभे के नीचे जंजीर के सहारे एक खटोली बंधी हुई थी जिस पर दो-तीन आदमी बैठ सकते थे। खटोली से अढ़ाई-तीन हाथ ऊंचे (खंभे में) में चर्खी लगी हुई थी और चर्खी के साथ एक ताम्रपत्र बंधा हुआ था। इन्द्रजीतसिंह ने ताम्रपत्र को पढ़ा, बारीक-बारीक हरफों में यह लिखा था –

“यहां से बाहर निकल जाने वाले को खटोली के ऊपर बैठकर यह चर्खी सीधी घुमानी चाहिए। चर्खी सीधी तरफ घुमाने से यह खंभा खटोली को लिये हुए ऊपर जायगा और उल्टी तरफ घुमाने से यह नीचे उतरेगा। पीछे हटने वाले को अब वह रास्ता खुला नहीं मिलेगा जिधर से वह आया होगा।”

पत्र पढ़कर इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, “यहां से बाहर निकल चलने के लिए यह बहुत अच्छी तर्कीब है, अब हम दोनों को भी इसी तरह बाहर हो जाना चाहिए। लो तुम भी इसे पढ़ लो।”

आनन्द - (पत्र पढ़कर) आइये इस खटोली में बैठ जाइये।

दोनों कुमार उस खटोली में बैठ गये और इन्द्रजीतसिंह चर्खी घुमाने लगे। जैसे-जैसे चर्खी घुमाते थे वैसे-वैसे वह खंभा खटोली को लिये हुए ऊपर की तरफ उठता जाता था। जब खंभा कुएं के बाहर निकल आया तब अपने चारों तरफ की जमीन और इमारतों को देखकर दोनों कुमार चौंके और इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर आनन्दसिंह ने कहा –

आनन्द - यह तो तिलिस्मी बाग का वही चौथा दर्जा है जिसमें हम लोग कई दिन तक रह चुके हैं!

इन्द्रजीत - बेशक वही है, मगर यह खंभा हम लोगों को (हाथ का इशारा करके) उस तिलिस्मी इमारत तक पहुंचावेगा।

पाठक, हम सन्तति के नौवें भाग के पहिले बयान में इस बाग के चौथे दर्जे का हाल जो कुछ लिख चुके हैं शायद आपको याद होगा, यदि भूल गये हों तो उसे पुनः पढ़ जाइए। उस बयान में यह भी लिखा जा चुका है कि इस बाग के पूरब तरफ वाले मकान के चारों तरफ पीतल की दीवार थी इसलिये उस मकान का केवल ऊपर वाला हिस्सा दिखाई देता था और कुछ मालूम नहीं होता था कि उसके अन्दर क्या है। हां, छत के ऊपर लोहे का एक पतला महराबदार खंभा था जिसका दूसरा सिरा उसके पास वाले कुएं के अन्दर गया था। उस मकान के चारों तरफ पीतल की जो दीवार थी उसमें एक बन्द दरवाजा भी दिखाई देता था और उसके दोनों तरफ पीतल के दो आदमी हाथ में नंगी तलवार लिए खड़े थे, इत्यादि।

यह उसी मकान के साथ वाला कुआं था जिसमें से इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह निकले थे। धीरे-धीरे ऊंचे होकर दोनों भाई उस मकान की छत पर जा पहुंचे जिसके चारों तरफ पीतल की दीवार थी। खटोली को मकान की छत पर पहुंचाकर वह खंभा अड़ गया और दोनों कुमारों को उस पर से उतर जाना पड़ा। पहिले जब दोनों कुमार इस बाग के (चौथे दर्जे के) अन्दर आये थे, तब इस मकान के अन्दर का हाल कुछ जान नहीं सके थे मगर अब तो इत्तिफाक ने खुद ही इन दोनों को उस मकान में पहुंचा दिया इसलिए बड़े उत्साह से दोनों भाई इस जगह का तमाशा देखने के लिए तैयार हो गये।

इस मकान की छत पर एक रास्ता नीचे उतर जाने के लिए था; उसी राह से दोनों भाई नीचे वाली मंजिल में उतरकर एक छोटे से कमरे में पहुंचे जहां की छत, जमीन और चारों तरफ की दीवारों में कलई किये हुए दलदार शीशे बड़ी कारीगरी से जड़े हुए थे। अगर एक आदमी भी उस कमरे में जाकर खड़ा हो तो अपनी हजारों सूरतें1 देखकर घबड़ा जाय। सिवाय इस बात के उस कमरे में और कुछ भी न था और न यही मालूम होता था कि यहां से किसी और जगह जाने के लिए कोई रास्ता है। उस कमरे की अवस्था देखकर इन्द्रजीतसिंह हंसे और आनन्दसिंह की तरफ देखकर बोले –

इन्द्रजीत - इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस कमरे में इन शीशों की बदौलत एक प्रकार की दिल्लगी है, मगर आश्चर्य इस बात का होता है कि तिलिस्म बनाने वालों ने यह फजूल कार्रवाई क्यों की है! इन शीशों के लगाने से कोई फायदा या नतीजा तो मालूम नहीं होता!

आनन्द - मैं भी यही सोच रहा हूं मगर विश्वास नहीं होता कि तिलिस्म बनाने वालों ने इसे व्यर्थ ही बनाया होगा, कोई-न-कोई बात इसमें जरूर होगी। इस मकान में इसके सिवाय अभी तक कोई दूसरी अनूठी बात दिखाई नहीं दी, अगर यहां कुछ है तो केवल यही एक कमरा है, अस्तु इस कमरे को फजूल समझना इस इमारत-भर को फजूल समझना होगा, मगर ऐसा हो नहीं सकता। देखिये इसी मकान से उस लोहे वाले खम्भे का सम्बन्ध है जिसकी बदौलत हम... (रुककर) सुनिये, सुनिये, यह आवाज कैसी और कहां से आ रही है?

बात करते-करते आनन्दसिंह रुक गये और ताज्जुब भरी निगाहों से अपने भाई की तरफ देखने लगे क्योंकि उन्हें दो आदमियों के जोर-जोर से बातचीत करने की आवाज सुनाई देने लगी। वह आवाज यह थी –

एक - तो क्या दोनों कुमार उस कुएं से निकलकर यहां आ जायंगे!

दूसरा - हां जरूर आ जायंगे। उस कुएं में जो लोहे का खम्भा गया हुआ है उसमें एक खटोली बंधी है, उस खटोली पर बैठकर एक कल घुमाते हुए दोनों आदमी यहां आ जायेंगे।

1. यदि दो बड़े शीशे आमने-सामने रखकर देखिये तो शीशों में दो-चार ही नहीं बल्कि हजारों शीशे एक-दूसरे के अन्दर दिखाई देंगे।

पहिला - तब तो बड़ी मुश्किल होगी, हम लोगों को यह जगह छोड़ देनी पड़ेगी।

दूसरा - हम लोग इस जगह को क्यों छोड़ने लगे जिसके भरोसे पर हम लोग यहां बैठे हैं क्या वह दोनों राजकुमारों से कमजोर है खैर उसे जाने दो, पहिले तो हमीं लोग उन्हें तंग करने के लिए बहुत हैं।

पहिला - इसमें तो कोई शक नहीं कि हम लोग उनकी ताकत और जवांमर्दी को हवा खिला सकते हैं, मगर एक काम जरूर करना चाहिए।

दूसरा - वह क्या?

पहिला - इस कमरे का दरवाजा खोल देना चाहिए जिसमें भयानक अजगर रहता है, जब दोनों उसे खुला देख उसके अन्दर जायंगे तो निःसन्देह वह अजगर उन दोनों को निगल जायेगा।

दूसरा - और बाकी के दरवाजे मजबूती के साथ बन्द कर देना चाहिए जिससे वे और किसी तरफ जा न सकें।

पहिला - बेशक, इसके अतिरिक्त एक काम और भी करना चाहिए जिससे वे दोनों उस दरवाजे के अन्दर जरूर जायें अर्थात् उन दोनों लड़कियों को भी उस अजगर वाली कोठरी में हाथ-पैर बांधकर पहुंचा देना चाहिए, जिन पर दोनों कुमार आशिक हैं।

दूसरा - यह तुमने बहुत अच्छी बात कही। जब वह अजगर उन लड़कियों को निगलना चाहेगा तो वे जरूर चिल्लायेंगी, उस समय आवाज पहिचानने पर वे दोनों अपने को किसी तरह रोक न सकेंगे और उस दरवाजे के अन्दर जाकर अजगर की खुराक बनेंगे।

पहिला - यह भी अच्छी बात कही। अच्छा उन दोनों को पकड़ लाओ और हाथ-पैर बांधकर उस कोठरी में डाल दो, अगर इस कार्रवाई से काम न चलेगा तो दूसरी कार्रवाई की जायेगी मगर उन्हें इस मकान के बाहर न जाने देंगे।

इसके बाद वह बातचीत की आवाज बन्द हो गई और यकायक सामने वाले आईने में कुंअर इन्दजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने प्यारे ऐयार भैरोसिंह और तारासिंह की सूरत देखी, सो भी इस ढंग से दोनों ऐयार अकड़ते हुए एक तरफ से आये और दूसरी तरफ को चले गये। इसके बाद दो औरतों की सूरत नजर आईं। पहिले तो पहिचानने में कुछ शक हुआ मगर तुरन्त ही मालूम हो गया कि वे दोनों कमलिनी और लाडिली हैं। उन दोनों की कमर में लोहे की जंजीरें बंधी हुई थीं और एक मजबूत आदमी उन्हें अपने हाथ में लिये हुए उन दोनों के पीछे-पीछे जा रहा था। यह भी देखा कि कमलिनी और लाडिली चलते-चलते रुकीं और उसी समय पिछले आदमी ने उन दोनों को धक्का दिया जिससे वे झुक गईं और सिर हिलाकर आगे बढ़ती हुई नजरों से ओट हो गईं।

भैरोसिंह और तारासिंह यहां कैसे आ पहुंचे और कमलिनी तथा लाडिली को कैदियों की तरह ले जाने वाला वह कौन था इस शीशे के अन्दर उन सभों की सूरत कैसे दिखाई पड़ी चारों तरफ से बन्द रहने पर भी यहां आवाज कैसे आई, इन बातों को सोचते हुए दोनों कुमार बहुत ही दुःखी हुए।

आनन्द - भैया, यह तो बड़े आश्चर्य की बात मालूम पड़ती है। यह लोग (अगर वास्तव में कोई हों तो) कहते हैं कि अजगर कुमारों को निगल जायेगा। मगर हम लोग तो खुद ही अजगर के मुंह में जाने के लिए तैयार हैं क्योंकि तिलिस्मी बाजे की यही आज्ञा है। अब कहिए तिलिस्मी बाजे की बात झूठी है या वे लोग कोई धोखा देना चाहते हैं?

इन्द्रजीत - मैं भी इन्हीं बातों को सोच रहा हूं। तिलिस्मी बाजे की आवाज को झूठा समझना तो बुद्धिमानी की बात नहीं होगी क्योंकि उसी आवाज के भरोसे पर हम लोग तिलिस्म तोड़ने के लिए तैयार हुए हैं, मगर हां, इस बात का पता लगाए बिना अजदहे के मुंह में जाने की इच्छा नहीं होती कि यह आवाज आखिर थी कैसी और इस आईने में जिन लोगों के बातचीत की आवाज सुनाई दी है वे वास्तव में कोई हैं भी या सब बिल्कुल तिलिस्मी खेल ही है कलई किए हुये आईने में किसी ऐसे आदमी की सूरत भला क्योंकर दिखाई दे सकती है जो उसके सामने न हो।

आनन्द - बेशक यह एक नई बात है। अगर किसी के सामने हम यह किस्सा बयान करें तो वह यही कहेगा कि तुमको धोखा हुआ। जिन लोगों को तुमने आईने में देखा था वे तुम्हारे पीछे की तरफ से निकल गये होंगे और तुमने उस बात का खयाल न किया होगा मगर नहीं, अगर वास्तव में ऐसा होता तो आईने में भी हम उन्हें अपने पीछे की तरफ से जाते हुए देखते। जरूर इसका सबब कोई दूसरा ही है जो हम लोगों की समझ में नहीं आ रहा है।

इन्द्र - खैर फिर अब किया क्या जाये इस मंजिल से नीचे उतर जाने को किसी और तरफ जाने के लिए रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। (उंगली का इशारा करके) सिर्फ वह एक निशान है जहां से अपने आप एक दरवाजा पैदा होगा या हम लोग दरवाजा पैदा कर सकते हैं मगर वह दरवाजा उसी अजदहे वाली कोठरी का है जिसमें जाने के लिए हम लोग यहां आए हैं।

आनन्द - ठीक है, मगर क्या हम लोग तिलिस्मी खंजर से इस शीशे को तोड़ या काट नहीं सकते?

इन्द्र - जरूर काट सकते हैं मगर यह कार्रवाई अपने मन की होगी।

आनन्द - तो क्या हर्ज है, आज्ञा दीजिये तो एक हाथ शीशे पर लगाऊं!

इन्द्र - सो ही कर देखो, मगर कहीं कोई बखेड़ा न पैदा हो

“अब तो होना हो सो हो!” इतना कहकर आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर लिये हुए आईने की तरफ बढ़े। उसी वक्त एक आवाज हुई और बाएं तरफ की शीशे वाली दीवार में ठीक उसी जगह एक छोटा-सा दरवाजा निकल आया जहां कुमार ने हाथ का इशारा करके आनन्दसिंह को बताया था, मगर दोनों कुमारों ने उसके अन्दर जाने का खयाल भी न किया और आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर का एक भरपूर हाथ अपने सामने वाले शीशे पर लगाया, जिसका नतीजा यह हुआ कि शीशे का एक बहुत बड़ा टुकड़ा भारी आवाज देकर पीछे की तरफ हट गया और आनन्दसिंह इस तरह उसके अन्दर घुस गये जैसे हवा के किसी खिंचाव या बवण्डर ने उन्हें अपनी तरफ खींच लिया हो, इसके बाद वह शीशे का टुकड़ा फिर ज्यों-का-त्यों बराबर मालूम होने लगा।

हवा के खिंचाव का असर कुछ-कुछ इन्द्रजीतसिंह पर भी पड़ा मगर वे दूर खड़े थे इसलिए खिंचकर वहां तक न जा सके पर आनन्दसिंह उसके पास होने के कारण खिंचकर अन्दर चले गये।

आनन्दसिंह का यकायक इस तरह आफत में फंस जाना बहुत ही बुरा हुआ, इस बात का जितना रंज इन्द्रजीतसिंह को हुआ सो वे ही जान सकते हैं। उनकी आंखों में आंसू भर आए और बेचैन होकर धीरे से बोले - “अब जब तक कि मैं इस शीशे के अन्दर न चला जाऊंगा अपने भाई को छुड़ा न सकूंगा और न इस बात का ही पता लगा सकूंगा कि उस पर क्या मुसीबत आई।” इतना कहकर वे तिलिस्मी खंजर लिये हुए शीशे की तरफ बढ़े मगर दो ही कदम जाकर रुक गये और फिर सोचने लगे, “कहीं ऐसा न हो कि जिस मुसीबत में आनन्द पड़ गया है उसी मुसीबत में मैं भी फंस जाऊं! यदि ऐसा हुआ तो हम दोनों इसी तिलिस्म में मरकर रह जायेंगे। यहां कोई ऐसा भी नहीं जो हम लोगों की सहायता करेगा लेकिन ईश्वर की कृपा से तिलिस्म के इस दर्जे को मैं अकेला तोड़ सकूं तो निःसन्देह आनन्द को छुड़ा लूंगा। मगर कहीं ऐसा न हो कि जब तक हम तिलिस्म तोड़ें तब तक आनन्द की जान पर आ बने बेशक इस आवाज ने हम लोगों को धोखे में डाल दिया, हमें तिलिस्मी बाजे पर भरोसा करके बेखौफ अजदहे के मुंह में चले जाना चाहिये था।” इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचकर इन्द्रजीतसिंह रुक गये और आनन्दसिंह की जुदाई में आंसू गिराते हुए उसी अजदहे वाली कोठरी में चले गये जिसका दरवाजा पहिले ही खुल चुका था।

उस कोठरी में सिवाय एक अजदहे के और कुछ भी न था। इस अजदहे की मोटाई दो गज घेरे से कम न होगी। उसका खुला मुंह इस योग्य था कि उद्योग करने से आदमी उसके पेट में बखूबी घुस जाय। वह एक सोने के चबूतरे में ऊपर कुण्डली मारे बैठा था और अपने डील-डौल और खुले हुए भयानक मुंह के कारण बहुत ही डरावना मालूम पड़ता था। झूठा और बनावटी मालूम हो जाने पर भी उसके पास जाना या खड़ा होना बड़े जीवट का काम था।

इन्द्रजीतसिंह बेखौफ उस अजदहे के मुंह में घुस गये और कोशिश करके आठ या नौ हाथ के लगभग नीचे उतर गये। इस बीच में उन्हें गर्मी तथा सांस लेने की तंगी से बहुत तकलीफ हुई और उसके बाद उन्हें नीचे उतर जाने के लिए दस-बारह सीढ़ियां मिलीं। नीचे उतरने पर कई कदम एक सुरंग में चलना पड़ा और इसके बाद वे उजाले में पहुंचे।

अब जिस जगह इन्द्रजीतसिंह पहुंचे वह एक छोटा-सा तिमंजिला मकान संगमर्मर के पत्थरों से बना हुआ था, जिसका ऊपरी हिस्सा बिल्कुल खुला हुआ था, अर्थात् चौक में खड़े होने से आसमान दिखाई देता था। नीचे वाले खड्डे में जहां इन्द्रजीतसिंह खड़े थे चारों तरफ चार दालान थे और चारों दालान अच्छे बेशकीमत सोने के जड़ाऊ नुमाइशी बरतनों तथा हर्बो से भरे हुए थे। कुमार उस बेहिसाब दौलत तथा अनमोल चीजों को देखते हुए जब बाईं तरफ वाले दालान में पहुंचे तो यहां की दीवार में भी उन्होंने एक छोटा-सा दरवाजा देखा। झांकने से मालूम हुआ कि ऊपर के खण्ड में जाने के लिए सीढ़ियां हैं। कुंअर इन्द्रजीतसिंह सीढ़ियों की राह ऊपर चढ़ गये। उस खण्ड में भी चारों तरफ दालान थे। पूरब तरफ वाले दालान में कल-पुर्जे लगे हुए थे, उत्तर तरफ वाले दालान में एक चबूतरे के ऊपर लोहे का एक सन्दूक ठीक उसी ढंग का था जैसा कि तिलिस्मी बाजा का कुमार देख चुके थे। दक्खिन तरफ वाले दालान में कई पुतलियां खड़ी थीं जिनके पैरों में गड़ारीदार पहिये की तरह बना हुआ था, जमीन में लोहे की नालियां जड़ी हुई थीं और नालियों में पहिया चढ़ा हुआ था अर्थात् वह पुतलियां इस लायक थीं कि पहियों पर नालियों की बरकत से बंधे हुए (महदूद) स्थान तक चल-फिर सकती थीं, और पश्चिम तरफ वाले दालान में सिवाय एक शीशे की दीवार के और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।

उन पुतलियों में कुमार ने कई अपने जान-पहिचान वाले और संगी-साथियों की मूरतें भी देखीं। उन्हीं में भैरोसिंह, तारासिंह, कमलिनी, लाडिली, राजा गोपालसिंह, और अपनी तथा अपने छोटे भाई की भी मूरतें देखीं जो डील-डौल और नक्शे में बहुत असल-सी बनी हुई थीं। कमलिनी और लाडिली की मूरतों की कमर में लोहे की जंजीर बंधी हुई थी और एक मजबूत आदमी उसे थामे हुए था। कुमार ने मूरतों को हाथ का धक्का देकर चलाना चाहा मगर वह अपनी जगह से एक अंगुल भी न हिलीं। कुमार ताज्जुब से उनकी तरफ देखने लगे।

इन सब चीजों को गौर और ताज्जुब की निगाह से कुमार देख ही रहे थे कि यकायक दो आदमियों के बातचीत की आवाज उनके काम में पड़ी। वे चौंककर चारों तरफ देखने लगे मगर किसी आदमी की सूरत न दिखाई पड़ी। थोड़ी ही देर में इतना जरूर मालूम हो गया कि उत्तर तरफ वाले दालान में चबूतरे के ऊपर जो लोहे वाला सन्दूक है उसी में से यह आवाज निकल रही है। कुमार समझ गये कि वह सन्दूक उसी तरह का कोई तिलिस्मी बाजा है जैसा कि पहिले देख चुके हैं अस्तु वे तुरत उस बाजे के पास चले आये और आवाज सुनने लगे। यह बातचीत या आवाज ठीक वही थी जो कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह शीशे वाले कमरे में सुन चुके थे अर्थात् एक ने कहा, “तो क्या दोनों कुमार कुएं में से निकलकर यहां आ जायेंगे!” उसी के बाद दूसरे आदमी के बोलने की आवाज आई मानो दूसरे ने जवाब दिया, “हां जरूर आ जायेंगे, उस कुएं में लोहे का खम्भा गया हुआ है उसमें एक खटोली बंधी हुई है, उस खटोली पर बैठकर एक कल घुमाते हुए दोनों आदमी यहां आ जायेंगे - “ इत्यादि जो-जो बातें दोनों कुमारों ने उस शीशे वाले कमरे में सुनी थीं ठीक वे ही बातें उसी ढंग की आवाज में कुमार ने इस बाजे में भी सुनीं। उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ और उन्होंने इस बात का निश्चय कर लिया कि अगर वह शीशे वाला कमरा इस दीवार के बगल में है तो निःसन्देह यही आवाज हम दोनों भाइयों ने सुनी थी। इसके साथ ही कुमार की निगाह पश्चिम तरफ वाले दालान में शीशे की दीवार के ऊपर पड़ी और वे धीरे से बोल उठे, “बेशक इसी दीवार के उस तरफ वह कमरा है और ताज्जुब नहीं कि उस कमरे में इस तरफ यही शीशे की दीवार हम लोगों ने देखी भी हो।”

इतने ही में दक्खिन तरफ वाले दालान में से धीरे-धीरे कुछ कल-पुर्जों के घूमने की आवाज आने लगी, कुमार ने उस तरफ देखा तो भैरोसिंह और तारासिंह की मूरत को अपने ठिकाने से चलते हुए पाया, उन दोनों की मूरतों की अकड़कर चलने वाली चाल भी ठीक वैसी ही थी जैसी कुमार उस शीशे के अन्दर देख चुके थे। जिस समय वे दोनों मूरतें चलती हुई उस शीशे वाली दीवार के पास पहुंचीं उसी समय दीवार में एक दरवाजा निकल आया और दोनों मूरतें उसके अन्दर घुस गईं। इसके बाद कमलिनी और लाडिली की मूरतें चलीं और उनके पीछे वाला आदमी जो जंजीर थामे हुए था पीछे-पीछे चला, ये सब उसी तरह शीशे वाली दीवार के अन्दर जाकर थोड़ी देर के बाद फिर अपने ठिकाने लौट आये और वह दरवाजा ज्यों-का-त्यों बन्द हो गया। अब कुंअर इन्द्रजीतसिंह के दिल में किसी तरह का शक नहीं रहा, उन्हें निश्चय हो गया कि उस शीशे वाले कमरे में जो कुछ हम दोनों ने सुना और देखा वह वास्तव में कुछ भी न था, या अगर कुछ था तो वही जो कि यहां आने से मालूम हुआ है, साथ ही इसके कुमार यह भी सोचने लगे कि, 'ये हमारे संगी-साथियों और मुलाकातियों की मूरतें पुरानी बनी हुई हैं या उन तस्वीरों की तरह इन्हें भी राजा गोपालसिंह ने स्थापित किया है, और इन मूरतों का चलना-फिरना तथा इस बाजे का बोलना किसी खास वक्त पर मुकर्रर है या घण्टे-घण्टे, दो-दो घण्टे पर ऐसा ही हुआ करता है मगर नहीं घड़ी-घड़ी व्यर्थ ऐसा होना अनुचित है। तो क्या जब शीशे वाले कमरे में कोई जाता है तभी ऐसी बातें होती हैं क्योंकि हम लोगों के भी वहां पहुंचने पर यही दृश्य देखने में आया था। अगर मेरा यह खयाल ठीक है तो अब भी उस शीशे वाले कमरे में कोई पहुंचा होगा। गैर आदमी का वहां पहुंचना तो असम्भव है अगर कोई वहां पहुंचता है तो चाहे वह आनन्दसिंह हो या राजा गोपालसिंह हों। कौन ठिकाना फिर किसी कारण से आनन्दसिंह वहां पहुंचा हो। अगर ऐसा हो तो जिस तरह इस बाजे की आवाज उस कमरे में पहुंचती है उसी तरह मेरी आवाज भी वहां वाला सुन सकता है।' इत्यादि बातें कुमार ने जल्दी-जल्दी सोचीं और इसके बाद ऊंचे स्वर में बोले, “शीशे वाले कमरे में कौन है?'

जवाब - मैं हूं आनन्दसिंह, क्या मैं भाई साहब की आवाज सुन रहा हूं?

इन्द्र - हां मैं यहां आ पहुंचा हूं, तुम भी जहां तक जल्दी हो सके उस अजदहे के मुंह में चले जाओ और हमारे पास पहुंचो।

जवाब - बहुत अच्छा।

चंद्रकांता संतति

देवकीनन्दन खत्री
Chapters
चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 15 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 16 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 16 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 17 / बयान 17 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 18 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 19 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 5 / भाग 20 / बयान 15 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 21 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 13 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 22 / बयान 14 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 8 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 9 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 10 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 11 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 23 / बयान 12 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 1 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 2 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 3 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 4 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 5 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 6 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 7 चंद्रकांता संतति / खंड 6 / भाग 24 / बयान 8